ध्यान योग का मर्म

December 1942

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पिछले अंक में यह बताया जा चुका है कि ईश्वर की जिस मूर्ति का भक्त लोग ध्यान करते हैं, वह अवश्य ही ध्यान करने वाले की योग्यताओं से अधिक सुसम्पन्न होती है। इष्टदेव चाहे अलग अलग क्यों न हों, पर वे सभी ईश्वर मनुष्य की अपेक्षा शारीरिक, मानसिक तथा साँसारिक दृष्टि से बहुत बलवान होते हैं। भगवान कृष्ण का कोई असली फोटो इस समय प्राप्त नहीं होता, इसलिये ध्यान करने के लिए जिन चित्रों की मानसिक स्थापना की जाती है, वह कल्पित ही मानने पड़ेंगे। एक ही देवता के अनेक भक्त अनेक मन में देवता का ध्यान करते हैं, पर सब की ध्यान मूर्ति में कुछ न कुछ अन्तर होता है। इससे भी प्रकट होता है कि यह ध्यान चित्र कल्पित हैं, यदि वह असली होते, तो सब भक्त एक ही समान मूर्ति का ध्यान करते।

अनीश्वरवादी महानुभाव यह न समझें कि इन कल्पित चित्रों का ध्यान करने से कुछ फायदा नहीं है। ईश्वर के नाम से ही जो बिदकते हैं, उन्हें इन ध्यान मूर्तियों को ‘ध्येय प्रतिमा’ नाम दे लेना चाहिये। मनुष्य उन्नति करना चाहता है। हर किसी की इच्छा होती है कि मैं सुन्दर, स्वरूपवान, स्वस्थ, बलवान, विद्वान, बुद्धिमान, तेजस्वी, प्रतापी ऐश्वर्यवान, असाधारण शक्तियाँ रखने वाला बनूँ। अब सोचना चाहिए कि सर्वतोमुखी उन्नति के मार्ग पर बढ़ने का कार्य किस प्रकार आरम्भ किया जा सकता है। कोई भी कार्यकर्ता तभी कार्य आरम्भ कर सकता है, जब अपने ध्येय की एक तस्वीर मन में खड़ी कर ले। सुनार एक साँचा तैयार करता है चाँदी पिघलाकर उसमें ढाल देता है, तब वैसा ही गहना बन जाता है। बिना साँचा बनाये रुपया ढालने की टकसाल का काम कैसे चलेगा। इसलिए मनुष्य जैसा बनना चाहता है, अपने को वैसा ढालने के लिए एक साँचा तैयार करना पड़ेगा। यह ‘ध्येय प्रतिमा’ या ईश्वरीय ध्यान मूर्ति वह साँचा ही तो है।

शब्द के पीछे एक चित्र जुड़ा होता है। जैसे वर्णमाला का अक्षर ‘ह’ उस पर आ की मात्रा ‘हा’ थ अक्षर पर ई की मात्रा ‘थी’ हाथी। यह दो अक्षर अपने आप कुछ अर्थ नहीं रखते। किसी हिन्दी न जानने वाले रूसी के सामने हाथी शब्द कहा जाए तो वह कुछ न समझेगा। पर हमारी मनोभूमि को यह पता है कि हाथी शब्द के पीछे एक विशालकाय जन्तु विशेष का चित्र जुड़ा हुआ है। इसलिए ‘हाथी’ शब्द को कहते ही वह विशालकाय जन्तु स्मरण हो जाता है। यदि यह चित्र सामने न आवे तो वह शब्द निरर्थक है। मनुष्य चाहता है कि मैं सुन्दर, सुडौल, ज्ञानवान, बुद्धिमान आदि बनूँ, इन इच्छित चित्रों के साथ ही एक-एक चित्र जुड़ा हुआ है। ‘सुन्दर’ शब्द कहते ही गोरा रंग, भरा हुआ गुलाबी चेहरा, रतनारे नयन, पतली नाक, मोती से दाँत स्मरण हो आते हैं। अर्थात् सुन्दर शब्द के साथ जो चित्र जुड़ा हुआ है, वह दिव्य नेत्रों के सामने नाचने लगता है। आन अपने में जो उन्नति देखना चाहते हैं, जिन जिन विशेषताओं की इच्छा करते हैं, उन सबका एक सम्मिलित चित्र अवश्य बन जाएगा। यदि इच्छा निर्बल हुई तो वह चित्र भी धुँधला, निर्बल, अस्थिर और उदासीन होगा। उन्नति की इच्छा जितनी ही प्रबल होगी, उतना ही चित्र अधिक स्पष्ट, सतेज, प्रकाशवान, स्थिर एवं उत्सुकतापूर्ण होगा। एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के बिछोह में है। वह प्रेमिका को अपने पास देखना चाहता है, उसकी यह इच्छा जितनी ही प्रबल होगी, उतना ही उसे प्रेमिका का ध्यान अधिक आवेगा। प्रेयसी की सलौनी मूर्ति आँखों के आगे ही खड़ी रहेगी। सच्ची लगन से ही किसी वस्तु की प्राप्ति होती है। मनुष्य यदि उन्नत दशा को प्राप्त होना चाहता है, तो यह कार्य यों ही लस्टम-पस्टम उदासीनता के साथ पूरा न होगा। वरन् दृढ़ विश्वास, सच्ची लगन प्रेममय उत्सुकता के साथ एक ध्येय प्रतिमा बनानी होगी। आकाँक्षा उस ध्येय को प्राप्त करने की लगन में लगी रहे और तन-मन से उसकी प्राप्ति का कर्तव्य करता रहे। कोलम्बस की आकाँक्षा भारत भूमि को तलाश करने के लिए व्याकुल हो रही थी और सर्वस्व की बाजी लगाकर उसका तन-मन जहाज का संचालन कर रहा था तब कहीं वह एक स्वर्ण भूमि को ढूँढ़ पाया। यदि यों ही बिना किसी तीव्र आकाँक्षा के बिना किसी ध्येय प्रतिमा के, समुद्र में जहाज चला देता, तो सफलता प्राप्त नहीं कर सकता था।

हमारे पूर्वजों ने अत्यन्त गहरे मानसिक तत्व ज्ञान के आधार पर ईश्वर की सुन्दर मूर्ति का ध्यान करने का पूजा विधान बनाया है। अपनी नाना प्रकार की उन्नति का बोध कराने वाली एक मनमोहक प्रतिमा का ध्यान करना आवश्यक है। इस प्रतिमा के साथ ईश्वर का पवित्र नाम जोड़ देने से यह विशेषता हो जाती है कि वह प्रतिमा केवल भौतिक-साँसारिक उन्नति तक ही सीमित नहीं रहती वरन् आध्यात्मिकता के साथ, सतोगुणी दिव्य वृत्तियों के साथ, भी सम्बन्धित हो जाती है। वह साँचा भौतिक और आध्यात्मिक दोनों उन्नतियों से युक्त हमारे भविष्य की रचना करता है। मनुष्य की मूलभूत प्रकृति उन्नति की ओर अग्रसर होने की है। कोई भी व्यक्ति उन्नति की इच्छा किये बिना रह नहीं सकता। इसलिए उन्नत भविष्य की एक रूपरेखा बनाना भी नितान्त अनिवार्य है। विष्णुलोक, गौलोक, स्वर्ग, बहिश्त, हेविन, आदि स्थान सम्बन्धी कल्पना है। तथा मुक्ति, स्वर्ग प्राप्ति आदि अवस्था सम्बन्धी कल्पनाएं उसी ध्येय अवस्था की बोधक हैं, जिसकी प्रायः हर व्यक्ति इच्छा किया करता है।

ईश्वर को निराकार मानने वाले जो सज्जन परमात्मा को एक विशेष मूर्ति में ही होना स्वीकार नहीं करते, उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे अपने मत को बदले बिना भी ध्येय प्रतिमा का ध्यान करने के लाभों के सम्बन्ध में विचार करें और उसके अन्दर जो बड़ा भारी लाभ छिपा हुआ है, उसे ग्रहण करें। अनीश्वरवादी महानुभाव कहा करते हैं कि हम पेशेवर धर्मध्वजी दुकानदारों के रिश्वती और खुशामदी खुदा को नहीं मानते। अच्छा बाबा, उसे मत मानो, पर अपना उत्तम भविष्य ढालने वाले साँचे को तो मानो। अच्छा ठहरो। कृष्ण को छोड़ो हम तुम्हें ही कृष्ण बनाए देते हैं। शरीर ढीला करके, आँखें बन्द करके पालती मार के एकान्त स्थान में बैठ जाओ। अपनी सूरत तो दर्पण में देखी ही होगी, उसका ज्ञान नेत्रों से ध्यान करो उसे उत्तम से उत्तम साँसारिक और आध्यात्मिक गुणों से सजा डालो। वर्तमान शरीर की सभी कमियों को हटा कर अपने लिए जैसा उत्तम से उत्तम शरीर चाहते हो, जैसे गुण चाहते हो, जैसी शक्तियाँ चाहते हो, उन सबसे अपनी तस्वीर की सजावट कर डालो। बस यही ईश्वर की तस्वीर हो गई, इसी का ध्यान किया करो। इस मूर्ति से तुम्हारा जितना प्रेम होगा उतना ही तुम भृंग कीट की तरह उस आदर्श प्रतिमा में तल्लीन होते जाओगे और वह आध्यात्मिक तल्लीनता इतनी महत्वपूर्ण सिद्ध होगी कि बहुत अंश में तो वे इच्छाएं इसी जन्म में अवश्य पूरी हो जायेंगी। मजाक की बात नहीं है, यह आध्यात्मिक ध्रुव सत्य है, हिरन के बच्चे में अधिक प्रेम होने पर जड़ भरत के दूसरे जन्म में हिरन होने की कथा महाभारत में मौजूद है। तुम्हारी आकाँक्षा जिस स्थिति को प्राप्त करने में पूरी तत्परता से जुड़ी हुई है, कोई कारण नहीं कि एक दो जन्मों में ही वह पूर्णता प्राप्त न हो जाए। ध्यान प्रतिमा की भक्ति का अतुलित प्रताप है। इस महान् सत्य को विज्ञान की कसौटी पर जितना-जितना अधिक कसा जाता है, उतना ही वह अधिक खरा साबित होता जाता है।

केवल ध्यान करने में कुछ नहीं होता, यह समझना भूल है। ध्यान आरम्भिक सीढ़ी है। आदर्श का निर्माण होते ही शरीर और मन सारी शक्तियों से उसे प्राप्त करने लग जाता है और दृश्य एवं अदृश्य लोकों से सफलता के लिए ऐसे ऐसे विचित्र साधन सूक्ष्म तत्वों की सहायता से जुटाने लगता है, कभी कभी तो वे सहायताएं चमत्कार जैसी जान पड़ती है। कई बार भगत लोग बड़े आलसी, दरिद्री, अकर्मण्य, दुर्गुणी तथा अवनति की ओर गिरते देखे जाते हैं। यह भगत लोग असल में भक्ति की झूठी विडम्बना करते हैं, उनका भगतपना पेट पालने का या सस्ती वाहवाही लूटने का एक जरिया है। सच्चा ध्यान योगी ईश्वर की पवित्र मूर्ति में अपने को तल्लीन कर देता है, अथवा यों कहिए कि आत्मोन्नति की जो सबसे ऊँची, सर्वगुण सम्पन्न ध्येय प्रतिमा बनाई है, उसके साथ तदाकार होने के लिये प्रेमपूर्वक विह्वल हो जाता है। भक्ति का सच्चा तत्व यही है। भक्ति का महाविज्ञान इतना सत्य है कि उसके प्रत्यक्ष परिणाम को चाहे जो अनुभव कर सकता है। आप कैसे बढ़ना चाहते हैं? उसका एक मजबूत नक्शा बनाकर उसमें सफल होने के लिए प्राण प्रण से तल्लीन हो जाइए। फिर कुछ ही दिनों में भक्ति का जादू देखिए, आपकी काया पलट हो जाएगी। काफिला कहीं का कहीं पहुँच जायगा। आपकी जीवन दशा में आश्चर्यजनक आत्मोन्नतिकारी प्रचण्ड विद्युत प्रवाह नस-नस में दौड़ने लगेगा। लालटेन के ऊपर जिस रंग का काँच लगा दिया जाए उसी रंग की रोशनी होने लगती है। जैसा जीवन ध्येय निश्चित हो जाता है उसी के अनुरूप शरीर के कार्य और मन के कार्य दिखाई देने लगते हैं।

पेशेवर भगत लोग ‘भक्ति’ का कैसा विकृत और नाशकारी रूप बनाये बैठे हैं, इस सम्बन्ध में पाठक स्वयं ही सब कुछ जानते हैं, उस गढ़ी हुई दुर्गन्धि को उखाड़ कर बदबू बढ़ाने की इस समय हमारी इच्छा नहीं। इन पंक्तियों में तो हमने भक्ति सच्चे तत्वज्ञान, ध्यान योग के गुप्त रहस्य पर प्रकाश डालते हुए यह बताने का प्रयत्न किया है कि अपने लिए निर्धारित किये हुए उच्च आदर्श एवं उन्नत भविष्य की ध्येय प्रतिमा बनना, मानसिक चित्र निर्माण करना, आवश्यक है। ईश्वर को मानने वाले या न मानने वाले सभी व्यक्तियों के लिए यह आवश्यक है कि ध्येय प्रतिमा का ध्यान किया करें। मनोविज्ञान शास्त्र की दृष्टि से यह व्यापार कल्पवृक्ष के समान मनोवांछाएं पूरी करने वाला सिद्ध होगा।


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