ज्ञान का संचय

December 1942

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(ऋषि तिरुवल्लुवर)

वे मनुष्य बड़े अभागे हैं जो विद्या पढ़ने से जी चुराते हैं। भिखारी को दाता के सामने जैसे तुच्छ बनना पड़ता है वैसे ही तुच्छ यदि तुम्हें शिक्षकों के सामने बनना पड़े तो भी शिक्षा प्राप्त करना ही कर्तव्य है। मनुष्य जाति के सच्चे नेत्रों के नाम हैं (1) अंक (2) अक्षर। जो पढ़ा लिखा है वही नेत्रवान् है, जिसने विद्या नहीं पढ़ी वह तो अन्धा है। उसके माथे में तो दो गड्ढ़े मात्र है नेत्र नहीं।

विद्वान पुरुष सुगन्धित पुष्पों के समान हैं, वे जहाँ जाते हैं वही आनन्द साथ ले जाते हैं। उनका सभी जगह घर है और सभी जगह स्वदेश है। विद्या धन है। अन्य वस्तुएं तो उसकी समता में बहुत ही तुच्छ हैं। यह धन ऐसा है जो अगले जन्मों तक भी साथ रहता है। विद्या द्वारा संस्कारित की हुई बुद्धि आगामी जन्मों में क्रमशः उन्नति ही करती जाती है और उनके जीवन उच्चतम बनते हुए पूर्णता तक पहुँच जाते हैं।

कुँए को जितना गहरा खोदा जाए उसमें से उतना ही अधिक जल प्राप्त होता जाता है। जितना अधिक अध्ययन किया जाय, मनुष्य उतना ही ज्ञानवान बनता जाता है। विश्व क्या है? और इसमें कितनी आनन्दमयी शक्ति भरी हुई है इसे वही जान सकता है जिसने विद्या पढ़ी है। ऐसी अनुपम सम्पत्ति को उपार्जन करने में न जाने क्यों लोग आलस्य करते हैं। आयु का कोई प्रश्न नहीं हैं, चाहें मनुष्य बूढ़ा हो जाए या मरने के लिए चारपाई पड़ा हो तो भी विद्या प्राप्त करने में उसे उत्साहित होना चाहिए क्योंकि ज्ञान तो जन्म जन्मान्तरों तक साथ जाने वाली वस्तु है।


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