भ्रम निवारण

December 1942

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(संत कबीर)

तीरथ करि करि जग मुवा, डुबै पानी न्हाय।

यम नाम जप के बिना, काल घसीटा जाय॥ 1॥

काशी काठैं घर करै, पीवै निर्मल नीर।

मुकति नहीं हरिनाम बिन, यों कहें दास कबीर॥ 2॥

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मवा, पंडित भया न कोय।

एकै अक्षर प्रेम का, पढ़ै सो पण्डित होय॥ 3॥

यह सब झूठी बन्दगी बरियाँ पंच निवाज।

सोचै मारै झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज॥ 4॥

कबीर माला काठ की, वहि समभावे नोहि।

मन न फिरावै आपना, कहा फिरावै मोहि॥ 5॥

माला पहरयाँ कुछ नहीं, गाँठ हृदय की खोइ।

हरि चरनन चित राखिये, तो अमरापुर होई॥ 6॥

केशन कहा बिगाड़ियो, जो मूड़ै सौ बार।

मन को कहे न मूँडिए जामें विषय विकार॥ 7॥

वैष्णव भया तो क्या भया, बूझा नहीं विवेक।

छापा-तिलक बनाय कर, दगध्या लोक अनेक॥ 8॥

तन को जागी सब करैं, मन को बिरला कोय।

सब विधि सहजै पाइये, जो मन जोगी होय॥ 9॥

पत्थर केरा पूतला, करि पूजै करतार।

इसी भरोसे जे रहे, ते बूढ़े काली धार॥10॥

जेती देखों आत्मा, तेते सालिगराम।

साधु प्रत्यक्ष देव हैं, नहिं पत्थर सूँ काम॥11॥

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया काशी जानि।

दसवाँ द्वारा देहुरा, तहाँ ज्योति पहिचानि॥12॥

दुनियाँ मन्दिर देहरी, शीश नवावन जाई।

हिरदे भीतर हरि बसें, तू ताही सो लौ लाई॥13।

मुल्ला मुनारे क्या चढ़हि, साँई न बहरा होइ।

जा का तू बाँग देहि, दिल के भीतर सोइ॥14॥

वैष्णव हुआ तो क्या हुआ, माला मेलीं चारि।

बाहर कंचनवा रहा, भीतर भरी भँगारि॥15॥

शेख सबूरी बाहरी, क्या हज कावै जाय।

जाका दिल साबित नहीं, ताको कहा खुराई॥16॥

जीवन विज्ञान लेखमाला-2


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