तीन दुख और उनका कारण

December 1942

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पिछले अंक में बताया जा चुका है कि आकस्मिक सुख दुख हर व्यक्ति के जीवन में आया करते हैं। इससे सुर मुनि, देव, दानव कोई नहीं बचता। भगवान राम तक इस कर्म गति से छूट न सके। सूरदास ने ठीक कहा है-

कर्मगति टारी नाहि टरै।

गुरु वशिष्ठ पण्डित बड़ ज्ञानी,

रचि पाँच लगन धरै।

पिता मरण और हरण सिया को,

बन में विपति परै॥

वशिष्ठ जैसे गुरु के होते हुए भी राम कर्म गति को टाल न सके। उन्हें भी पिता का मरण, सिया का हरण एवं वन की विपत्तियाँ सहन करना पड़ी। वह विपत्तियाँ कहीं से अकस्मात् टूट पड़ती हैं, या ईश्वर नाराज होकर दुख दंड देता है, ऐसा समझना ठीक न होगा। ‘पंच् ध्यायी’ का निश्चित मत है कि सब प्रकार के दुख अपने ही बुलाने से आते हैं रामायण का मत भी इस सम्बन्ध में यही है

काहु न कोउ दुख सुखकर दाता।

निज-निज कर्म भोग सब भाता॥

दूसरा कोई भी प्राणी या पदार्थ किसी को दुख देने की शक्ति नहीं रखता। सब लोग अपने ही कर्मों का फल भोगते हैं और उसी भोग से रोते चिल्लाते रहते हैं। जीव की पूँछ से ऐसी कठोर व्यवस्था बँधी हुई है जो कर्मों का फल तैयार करती रहती है। मछली पानी में तैरती है उसकी पूँछ पानी को काटती हुई पीछे पीछे एक रेखा सी बनाती चलती है। साँप रेंगता जाता है और रेत पर उसकी लकीर बनती जाती है, जो काम हम करते हैं उनके स्वयं बोई हुई कटीली झाड़ी की तरह अपने लिए ही दुखदायी बन जाते है।

अब हम तीन प्रकार के कर्म, उनके तीन प्रकार के प्रभाव एवं तीन तरह के फलों की चर्चा आरम्भ करते हैं। सुख तो मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति है। सुकर्म करना स्वभाव है इसलिए सुख प्राप्त होना भी स्वाभाविक ही है। कष्ट दुख में होता है। दुख से ही लोग डरते घबराते हैं, उसी से छुटकारा पाना चाहते हैं। इसलिए दुखों का ही विवेचन यहाँ होना उचित है। आरोग्यवर्द्धन शास्त्र और चिकित्सा शास्त्र दो अलग-अलग शास्त्र हैं। इसी प्रकार सुख दुख के भी दो अलग विज्ञान हैं। सुख वृद्धि के लिए धर्माचरण करना चाहिए जैसे कि स्वास्थ्य वृद्धि के लिए पौष्टिक पदार्थों का सेवन किया जाता है। दुख निवृत्ति के लिए रोग का निवारण करने के लिये उसका निदान ओर चिकित्सा जानने की आवश्यकता है। कर्म की गहन गति की जानकारी प्राप्ति करने से दुखों का मर्म समझ में आ जाता है। दुखों के कारण को छोड़ देने से सहज ही दुखों की निवृत्ति हो जाती है। आइए, अब हम दुखों का स्वरूप आपके सामने रखने का प्रयत्न करें।

दुख तीन प्रकार के होते हैं (1) दैविक (2) दैहिक (3) भौतिक। दैविक दुख वे कहे जाते हैं जो मन को होते हैं जैसे चिन्ता, आशंका, क्रोध, अपमान, शत्रुता, बिछोह, भय, शोक आदि। दैहिक दुख वे होते हैं जैसे रोग, चोट, आघात, विष आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट। भौतिक दुःख वे हैं जो अचानक अदृश्य प्रकार से आते हैं जैसे भूकम्प, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, महामारी, युद्ध आदि। इन्हीं तीन प्रकार के दुखों की वेदना से मनुष्यों को तड़पता हुआ देखा जाता है। यह तीनों दुख हमारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कर्मों के फल हैं। मानसिक पापों के परिणाम से दैविक दुख आते हैं, शारीरिक पापों के फलस्वरूप दैहिक और सामाजिक पापों के कारण भौतिक दुख उत्पन्न होते हैं

दैविक दुख-मानसिक कष्ट, उत्पन्न होने का कारण वे मानसिक पाप हैं जो स्वेच्छापूर्वक तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किये जाते हैं जैसे ईर्ष्या, कृतघ्नता, छल, दम्भ, घमण्ड, क्रूरता, स्वार्थपरता आदि इन कुविचारों के कारण जो वातावरण मस्तिष्क में घुटता रहता है उससे अन्तः चेतना पर उसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है जिस प्रकार धुएँ के कारण दीवाल काली पड़ जाती है या तेल से भीगने पर कपड़ा गन्दा हो जाता है। आत्मा स्वभावतः पवित्र है वह अपने ऊपर इन पाप मूलक कुविचारी प्रभावों को जमा हुआ नहीं रहने देना चाहती, वह इस फिक्र में रहती है कि किस प्रकार इस गन्दगी को साफ करूं? पेट में हानिकारक वस्तुएं जमा हो जाने पर पेट उसको दस्त के रूप में निकाल बाहर करता है। इसी प्रकार तीव्र इच्छा से जानबूझ कर किये गये पापों को निकाल बाहर करने के लिये आत्मा आतुर हो उठती है। हम उसे जरा भी जान नहीं पाते किन्तु आत्मा भीतर ही भीतर उस पाप भार को हटाने के लिये अत्यन्त व्याकुल हो जाती है। बाहरी मन-स्थूल बुद्धि को उस अदृश्य प्रक्रिया का कुछ भी पता नहीं लगता पर अंतर्मन चुपके ही चुपके ऐसे अवसर एकत्रित करने में लगा रहता है जिससे वह भार हट जाए। अपमान, असफलता, बिछोह, शोक, दुख आदि प्राप्त हो, ऐसे अवसरों को वह कहीं न कहीं से एक न एक दिन, किसी प्रकार खींच ही लाता है ताकि उन दुर्भावनाओं का, पाप संस्कारों का-इन अप्रिय परिस्थितियों में समाधान हो जाए।

शरीर द्वारा किये हुए चोरी, डकैती, व्यभिचार, अपहरण, हिंसा आदि में मन ही प्रमुख है, हत्या करने में हाथ का कोई स्वार्थ नहीं है, वरन् मन के आवेश की पूर्ति है, इसलिये इस प्रकार के कार्य जिनके करते समय इन्द्रियों को सुख न पहुँचता हो, मानसिक पाप कहलाते हैं, ऐसे पापों का फल मानसिक दुख होता है। स्त्री-पुत्र आदि प्रिय जनों की मृत्यु, धन नाश, लोक निन्दा, अपमान, पराजय, असफलता, दरिद्रता आदि मानसिक दुख प्राप्त हैं, उनसे मनुष्य की मानसिक वेदना उखड़ पड़ती है, शोक सन्ताप उत्पन्न होता है, दुखी होकर रोता चिल्लाता है, आंसू बहाता है, शिर धुनता है। इससे वैराग्य के भाव उत्पन्न होते हैं और भविष्य में अधर्म न करने एवं धर्म में प्रवृत्त रहने की प्रवृत्ति बढ़ती है। देखा गया है कि मरघट में स्वजनों की चिता रचते हुए ऐसे भाव उत्पन्न होते हैं कि जीवन का सदुपयोग करना चाहिये। धन नाश होने पर मनुष्य भगवान को पुकारता है। पराजित और असफल व्यक्ति का घमण्ड चूर हो जाता है। नशा उतर जाने पर वह होश की बात करता है, मानसिक दुखों का एक मात्र उद्देश्य मन में जमे हुए ईर्ष्या, कृतघ्नता, स्वार्थपरता, क्रूरता, निर्दयता, छल, दम्भ, घमण्ड आदि की सफाई होना है। दुख इसीलिये आते है कि आत्मा के ऊपर जमा हुआ प्रारब्ध कर्मों का पाप संस्कार निकल जाए। पीड़ा और वेदना की धारा उन पूर्व कृत प्रारब्ध कर्मों के निकृष्ट संस्कारों को धोने के लिये प्रकट होती है।

दैविक-मानसिक कष्टों का कारण समझ लेने के उपरान्त अब दैहिक-शारीरिक-कष्टों का कारण समझना चाहिये। जन्मजात अपूर्णता एवं पैतृक रोगों का कारण पूर्व जन्म में उन अंगों का दुरुपयोग करना है। मरने के बाद सूक्ष्म शरीर रह जाता है। नवीन शरीर की रचना इस सूक्ष्म शरीर द्वारा होती है। इस जन्म में जिस अंग का दुरुपयोग किया जा रहा है, वह अंग सूक्ष्म शरीर में अत्यन्त निर्बल हो जाता है, जैसे कोई व्यक्ति अति मैथुन करता हो, तो सूक्ष्म शरीर का वह अंग निर्बल होने लगेगा, फलस्वरूप संभव है कि वह अगले जन्म में नपुँसक हो जाए। यह नपुंसकता केवल कठोर दंड नहीं है, वरन् सुधार का एक उत्तम तरीका भी है। कुछ समय तक उस अंग को विश्राम मिलने से आगे के लिये वह फिर सचेत और सक्षम हो जाएगा। शरीर के अन्य अंगों का शारीरिक लाभ के लिये पाप पूर्ण, अमर्यादित अपव्यय करने पर आगे के जन्म में वे अंग जन्म में ही निर्बल या नष्ट प्रायः होते हैं। शरीर और मन के सम्मिलित पापों के शोधन के लिये जन्म जात रोग मिलते हैं या बालक अंग-भंग उत्पन्न होते हैं। अंग भंग या निर्बल होने से उस अंग को अधिक काम नहीं करना पड़ता, इसलिये सूक्ष्म शरीर का वह अंग विश्राम पाकर अगले जन्म के लिये फिर तरोताजा हो जाता है। साथ ही मानसिक दुख मिलने से वह मन का पाप भार भी धुल जाता है

मानसिक पाप भी जिस शारीरिक पाप के साथ घुला मिला होता है, वह यदि राजदंड, समाज दंड या प्रायश्चित द्वारा इस जन्म से शोधित न हुआ तो अगले जन्म के लिये जाता है। परन्तु यदि पाप केवल शारीरिक है या उसमें मानसिक पाप का मिश्रण अल्प मात्रा में है, तो उसका शोधन शीघ्र ही शारीरिक प्रकृति द्वारा हो जाता है, जैसे नशा पिया-उन्माद आया। विष खाया मृत्यु हुई। आहार विहार में गड़बड़ी की, बीमार पड़े। इस तरह शरीर अपने साधारण दोषों की सफाई जल्दी-2 कर लेता है और इस जन्म का भुगतान इसी जन्म में कर जाता है। परन्तु गम्भीर शारीरिक दुर्गुण, जिनमें मानसिक जुड़ाव भी होता है, अगले जन्म में फल प्राप्त करने के लिये सूक्ष्म शरीर के साथ जाते हैं।

भौतिक कष्टों का कारण हमारे सामाजिक पाप हैं। सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक ही सूत्र में बँधी हुई है। विश्वव्यापी जीव तत्व एक है। आत्मा सर्व व्यापी है। जैसे एक स्थान पर यज्ञ करने से अन्य स्थानों का भी वायुमण्डल शुद्ध होता है और एक स्थान पर दुर्गन्ध फैलने से उसका प्रभाव अन्य स्थानों पर भी पड़ता है। इसी प्रकार एक मनुष्य के कुत्सित कर्मों के लिये दूसरा भी जिम्मेदार है। एक दुष्ट व्यक्ति अपने माता पिता को लज्जित करता है, अपने घर कुटुम्ब को शर्मिंदा करता है। वे इसलिये शर्मिंदा होते हैं कि उस व्यक्ति के कामों से उनका कर्त्तव्य भी बँधा हुआ है। अपने पुत्र, कुटुम्बी, या घर वाले को अशिक्षित, सदाचारी न बनाकर दुष्ट क्यों हो जाने दिया? इसकी आध्यात्मिक जिम्मेदारी कुटुम्बियों की भी है। कानून द्वारा अपराधी को ही सजा मिलेगी परन्तु कुटुम्बियों की आत्मा स्वयमेव शर्मिन्दा होंगी, क्योंकि उनका गुप्त शक्ति यह स्वीकार करती है कि हम भी किसी हद तक इस मामले में अपराधी हैं। सारा समाज एक सूत्र में बँधा होने के कारण आपस में एक दूसरे की हीनता के लिये जिम्मेदार है। पड़ोसी का घर जलता रहे और दूसरा पड़ोसी खड़ा-खड़ा तमाशा देखे, तो कुछ देर बाद उस का भी घर जल सकता है। मुहल्ले के एक घर में हैजा फैले और दूसरे लोग उसे रोकने की चिंता न करें, तो उन्हें भी हैजा का शिकार होना पड़ेगा। कोई व्यक्ति किसी की चोरी, बलात्कार, हत्या, लूट आदि होती हुई देखता रहे और समर्थ होते हुए भी उसे रोकने का प्रयत्न न करे तो समाज उससे घृणा करेगा एवं कानून के अनुसार वह भी दंडनीय समझा जाएगा।

ईश्वरीय नियम है कि हर मनुष्य स्वयं सदाचारी जीवन बितावे और दूसरों को अनीति पर न चलने देने के लिये भरसक यत्न करे। यदि कोई देश या जाति अपने तुच्छ स्वार्थों में संलग्न होकर दूसरों के कुकर्मों को रोकने और सदाचार बढ़ाने का प्रयत्न नहीं करती हो उसे भी दूसरों का पाप लगता है। उसी स्वार्थपरता के सामूहिक पाप से सामूहिक दण्ड मिलता है। भूकम्प अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, महामारी, महायुद्ध के कारण ऐसे ही सामूहिक दुष्कर्म होते हैं जिनमें स्वार्थपरता को प्रधानता दी जाती है और परोपकार की उपेक्षा की जाती है।

देखा जाता है कि अन्याय करने वाले अमीरों की अपेक्षा मूक पशु की तरह जीवन बिताने वाले भोले भाले लोगों पर दैवी प्रकोप अधिक होते हैं। अतिवृष्टि, अनावृष्टि का कष्ट गरीब किसानों को ही अधिक सहन करना पड़ता है। इसका कारण यह है कि अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला अधिक बड़ा पापी होता है। कहते हैं कि ‘बुज़दिल जालिम का बाप होता है।’ कायरता में यह गुण है कि वह अपने ऊपर जुल्म करने के लिए किसी को न किसी को न्योत ही बुलाती है। भेड़ की ऊन एक गड़रिया छोड़ देगा तो दूसरा कोई न कोई उसे काट लेगा। कायरता, कमजोरी, अविद्या स्वयं बड़े भारी पातक हैं। ऐसे पातकियों पर यदि भौतिक कोप अधिक हो तो कुछ आश्चर्य नहीं? सम्भव है कि उनकी कायरता को दूर करने एवं स्वाभाविक सतेजता जगाकर निष्पाप बना देने के लिये अदृश्य सत्ता द्वारा यह घटनाएं उपस्थित होती हों। यह भौतिक दुर्घटनाएं सृष्टि के दोष नहीं हैं वरन् अपने ही दोष हैं अग्नि में तपा कर सोने की तरह हमें शुद्ध करने के लिये यह कष्ट बार बार कृपापूर्वक आया करते हैं और संसार को जोरदार चेतावनियाँ देकर सामाजिक निष्पापता बढ़ाने का आदेश दिया करते हैं।

दैविक, दैनिक, भौतिक दुखों की कुछ विवेचना ऊपर की पंक्तियों में की जा चुकी है। अब हम इसी लेखमाला के अंतर्गत यह बतावेंगे कि किस प्रकार के पाप पुण्यों का फल कितने कितने समय में मिलता है?


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