हर कदम आगे की ओर

December 1942

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जीव का निरन्तर विकास हो रहा है उसका अज्ञान हर घड़ी घट रहा है और ज्ञान की किरणें निरन्तर अधिक उज्ज्वल होती जा रही हैं। यहाँ एक कल्पना कीजिए। मान लीजिये कि एक जलता हुआ बिजली का बल्ब है। उसके ऊपर कपड़े के सैकड़ों पर्त चढ़े हुये हैं, सबसे ऊपर वाले पर्त को देखने पर भीतरी बल्ब का प्रकाश नहीं के बराबर दृष्टिगोचर होगा, किन्तु यह पर्त जैसे जैसे खुलते जाते हैं वैसे ही वैसे प्रकाश अधिक स्पष्ट होता जाता है। दो चार पर्तों का कपड़ा हटा देन पर भीतर की रोशनी हलकी हलकी किरणों से बाहर आने लगती है। जब सारे पर्त हट जाते हैं तो बल्ब अपने उज्ज्वल स्वरूप में निकल आता है। जीव का आरम्भिक जीवन अनेक पर्तों से लिपटी हुई प्रारम्भिक दशा में होता है। अन्त में अपने पर्तों को खोलता खोलता ज्योति स्वरूप हो जाता है। प्याज अनेक पर्तों से लिपटी होती है। एक के बाद एक पर्त उतारते जाइए तो प्याज की भीतरी भिंगी निकल आती है। यही जीवन क्रम है। योनियों की सीढ़ियों पर अज्ञान का एक एक पर्त उतरता जाता है और ज्ञान का प्रकाश बढ़ता आता है। आप तो समझिये कि जीवन एक पतंग की डोरी है। जीव रूपी पतंग आकाश में ऊँची चढ़ती जा रही है और लिपटी हुई जीवन की सुषुप्त डोरी खुल कर आकाश में उड़ती जा रही है। इसका एक सिरा परमात्मा रूपी बालक के हाथ में है वह चर्खी से लिपटी हुई डोरी को निरन्तर खोलता जा रहा है और एक दिन सारी डोरी को खोल कर पतंग को मुक्ति प्रदान कर देता है। एक बात और ध्यान रखनी चाहिए कि विकास क्रम में शारीरिक बल की अपेक्षा मानसिक चेतना प्रधान है। भैंसे की अपेक्षा बन्दर को ऊँचे दर्जे का विद्यार्थी समझा जाएगा भले ही शारीरिक बल में भैंसा अधिक हो पर बुद्धि में बन्दर ही प्रधान है। मनुष्य भी अन्य जीवों की अपेक्षा बल और विशालता में न्यून है पर बुद्धि का प्रकाश उसकी सृष्टि का सर्व शिरोमणि प्राणी बना देता है।

यह बात निश्चित है कि एक जन्म से दूसरा जन्म अधिक उज्ज्वल होगा। कोई भी प्राणी उलटी योनि के लिये नहीं चलता। हाँ मनुष्य योनि में ऐसे अपवाद हो सकते हैं। पर वे अपवाद कभी कभी और कदाचित ही होते हैं। बी. ए. का विद्यार्थी प्रायः छठवें सातवें दर्जे में नहीं उतारा जाता।यह हो सकता है कि कोई आलसी, प्रमादी या उद्दंड लड़का कई वर्ष एक ही कक्षा में पड़ा रहे और अपनी शैतानियों के लिए पिटता रहे। पर जो पुस्तक उसे अनिवार्यतः नित्य पढ़नी पड़ती है उसे भूल जाना कठिन है। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि कोई व्यक्ति पाप कर्म करता हुआ और पुण्य कर्म करता हुआ दिखाई पड़ता है। इसका क्या कारण है? इसका कारण यह है कि एक मनुष्य अभी अभी ही नीच योनियों में से निकल कर ऊपर आया है। दूसरा मनुष्य कई जन्मों से मनुष्य योनि में विचरण कर रहा है। जो व्यक्ति भेड़िया, व्याघ्र, सर्प, सियार, बिच्छू आदि की कक्षाओं में से अभी अभी निकला है, वह मनुष्य योनि में प्रवेश पाकर भी अपने उन पुराने संस्कारों में जागता देखा जाता है। स्वार्थी, चोर, दुष्ट, डाकू, हिंसक ऐसे ही व्यक्ति हैं। वे अपने पुराने संस्कारों को क्रमशः छोड़ते हुए आगे चलेंगे। भारतीय धर्म शास्त्र इसीलिए किसी से भी घृणा करने की आज्ञा नहीं देता। दसवीं कक्षा के छात्र को यह उचित नहीं कि वह तीसरे दर्जे के विद्यार्थी के अल्पज्ञान के लिए घृणा करे। एक दिन वह स्वयं ही तीसरे दर्जे में रहा होगा। आज वह दसवें दर्जे में है, तो भी एम. ए. के छात्र की दृष्टि में उतना ही छोटा होगा जैसा कि वह स्वयं आज तीसरे दर्जे वाले को छोटा समझ रहा है।

घृणा न करने का अर्थ यह नहीं है कि सेवा और सुधार से भी मुख मोड़ लिया जाए। बालक उत्पन्न होता है उसमें व्यावहारिक ज्ञान की कमी होती है कपड़े में टट्टी, पेशाब कर देने जैसे अप्रिय कार्य वह करता है, तो भी माता पिता उससे घृणा नहीं करते, वरन् उसको शुद्ध करने और ज्ञान बढ़ाने की सेवा सहायता करते हैं। अज्ञानियों, मूर्खों और पापियों को कुमार्ग से हटाकर सुमार्ग पर लाने का सतत् प्रयत्न करना आवश्यक है। उद्दंड बच्चे को कभी कभी चपत लगाने की जरूरत होती है। इस दृष्ट से उस दुष्ट को दण्ड भी दिया जा सकता है। सेवा और सुधार के लिए साम, दाम, दंड, भेद चारों में ही काम लिया जा सकता है। सुधार के लिए हिंसा की छूट है। अर्जुन को ऐसा ही अप्रिय सुधार करना पड़ा था। घृणा मूर्खता है और सेवा कर्तव्य है। इसलिए दुष्टों से घृणा की नहीं वरन् उनकी उन्नति के लिए सेवा का व्यवहार उसी प्रकार करना चाहिए जैसी समय की आवश्यकता हो।

यह बात यहाँ अच्छी तरह ध्यान रखने की है कि कोई जीव प्रायः नीचे की योनियों में नहीं लौटता, क्योंकि जितना ज्ञान उसने इकट्ठा कर लिया है उसे भूल नहीं सकता और भूले बिना छोटी योग्यता के शरीरों में उस प्राणी का निवास नहीं हो सकता। दस सेर पानी पाँच सेर के बर्तन में नहीं भरा जा सकता, बी. ए. का विद्यार्थी तीसरे दर्जे में नहीं उतारा जा सकता। मनुष्य को प्रायः कुकर्मों के दंड में नीच योनियाँ नहीं मिलती- अगला जन्म मनुष्य का ही होता है और विकास क्रम के अनुसार परिवार एवं वातावरण भी ऊँचा ही मिलता है, जिससे विकास क्रम न रुके। परन्तु पापों के दंड स्वरूप शारीरिक कष्ट मिलते हैं। अपवाद कभी कभी तब उपस्थित होते हैं, जब कोई जीव बहुत ऊँचा चढ़ कर अचानक बहुत नीचे की ओर खिसक पड़ता है। ऐसे प्राणियों के हथियार कुछ समय के लिए जब्त कर लिए जाते हैं और जड़ योनियों में कैद कर दिया जाता है। यह कैद इस लिए होती है कि वह उन मानव जीवन की अनुपयोगी आदतों को भूल जाए। यह दंड एक प्रकार का लम्बा बचपन है जिसमें पढ़ने की अपेक्षा भूलने की शिक्षा दी जाती है। अहिल्या के शिला हो जाने और पर्यक यक्ष के वृक्ष हो जाने की कथा इसी सत्य पर प्रकाश डालती है लेकिन ऐसा बहुत ही कम होता है। जेलखाने में कैदी पहुँचते तो हैं पर साधारण जनता की अपेक्षा उनकी संख्या बहुत ही कम होती है। इसी प्रकार मानव विकास का साधारण क्रम ऊपर को उठता हुआ ही जा रहा है। कैद से छूटने के बाद मनुष्य फिर अपने पुराने अधिकारों को प्राप्त कर लेता है, अपनी पिछली कमाई हुई सम्पत्ति का अधिकारी हो जाता है। अहिल्या का शिला जीवन समाप्त होते ही वह ऋषि पत्नी बन गई। इसी प्रकार यदि मनुष्य को कोई दण्ड योनि मिलती है, तो उससे छूटने के बाद वह फिर से अन्य योनियों में नहीं घूमता, वरन् सीधे अपने पिछले ज्ञान में जागृत होता है और जहाँ से मंजिल रुकी थी, वहीं से आगे के लिए आरम्भ हो जाती है। पिछला ज्ञान उसको ज्यों का त्यों मिल जाता है।

(क्रमशः)

लेखमाला-


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