धर्म-संकट

December 1942

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वारणाय तु कष्टस्य स्थायिनो महतस्तथा।

स्वल्पं च स्वल्पकालीनं कष्टदानं न दोषकृत्॥

(महतः) महान् (तथा स्थायिनः) और स्थायी (कष्टस्य) कष्ट के निवारण के लिये (स्वल्पं) थोड़ा (च) और (स्वल्प कालीनं) स्वल्प कालीन (कष्टदानं) कष्ट देना (दोकृत) दोषकृत (न) नहीं होता।

अनेक बार मनुष्य के जीवन में ऐसे अवसर उपस्थित होते हैं जब यह धर्म संकट में पड़ जाता है। समाने दो ऐसे मार्ग आ जाते हैं जो दोनों ही अरुचिकर होते हैं, उनमें से किसी को भी करने की इच्छा नहीं होती, फिर भी ऐसी परिस्थिति सामने होती है कि एक को किये बिना गुजारा नहीं (1) एक ओर खाई दूसरी ओर खन्दक’ (2) ‘भई गति साँप छछूंदर केरी’ (3) ‘मुँह में भरा गरम दूध न पीते बने न उगलते’ (4) ‘मूसल निगलो या वृत्ति छोड़ो’ आदि अनेक कहावतें जन समाज में प्रचलित हैं जो यह सूचित करती हैं कि ऐसी द्विविधायें अक्सर सामने उपस्थित होती हैं और उनके हल ढूंढ़ने में बुद्धि विचलित हो जाती है।

धर्म ग्रन्थ, लोकमत, उदाहरण, अभिवचन और भावुकता के आधार पर कुछ निर्णय करते हुए मस्तिष्क चकरा जाता है। मान लीजिये कि एक सिंह गाँव में घुस आवे और ग्रामवासियों को खाने लगे, ऐसे समय में धर्मग्रन्थ टटोलने पर परस्पर विरोधी मन्तव्य प्राप्त होते हैं। एक स्थान पर लिखा होगा कि ‘किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये’ सभी जीव ईश्वर के हैं, जिस प्राणी को हम बना नहीं सकते उसे मारने का हक नहीं है। दूसरे स्थान पर ऐसा लिखा होगा कि “आततायी को मार डालना चाहिये” दोनों ही व्यवस्था एक दूसरे के विरोध में है, धर्मग्रन्थ का अवलम्बन करने पर जो धर्म संकट उपस्थित हुआ, उसका निराकरण हो सकना बहुत कठिन है। मित्रों से पूछा जाए तो वे भी अपनी अपनी विचार मर्यादा के अनुसार उत्तर देंगे। जैनी मित्र से पूछें तो कहेगा-चाहे जो होता रहे सिंह पर हाथ छोड़ना चाहिये। वेदान्ती कहेगा-संसार मिथ्या है, स्वप्न समान है तुम तो देखते मात्र रहो। गीता धर्म वाला कहेगा-कर्त्तव्य पालन करो, आततायी को मारो सिंह है या गौर इसकी विवेचना मत करो। पीड़ित गाँव वासी सिंह को अविलम्ब मार डालने की पुकार करेंगे। इस प्रकार लोकमत भी एक नहीं मिल सकता, कबूतरखाने में तरह तरह की चिड़ियाँ अपनी अपनी बोली बोलती हैं, किसकी बात बुरी कही जाए किसकी अच्छी? कोई वस्तु चाहे कितनी अच्छी क्यों न हो उसके सब लोग समर्थक नहीं हो सकते। स्वराज्य जैसे सर्वोपयोगी जीवन तत्व के भी विरोधी आज अनेक भारतीय दृष्टिगोचर होते हैं। कसाई के कुत्ते अपने टुकड़े से अधिक उत्तमता और किसी वस्तु में नहीं देख सकते। इस प्रकार लोकमत भी किसी बात का सर्वसम्मति से समर्थन नहीं कर सकता चाहे वह कितनी ही उत्तम हो, वैसे ही बुरी से बुरी बात का पक्ष लेने वाले लोग मिल जाते हैं। उदाहरण तो किसी भी बात के अनुकूल मिल सकते हैं। साधारण मनुष्यों की बात छोड़िए, बड़े से बड़े में बुराइयाँ ढूँढ़ी जा सकती हैं ब्रह्मा जी अपनी पुत्री पर आसक्त होकर उसके साथ बलात्कार करने को तैयार हो गये, चन्द्रमा गुरुपत्नी पर डिग गया, इन्द्र का अहिल्या के साथ कुकर्म करना प्रसिद्ध है, विष्णु ने जलन्धर की स्त्री का छलपूर्व पतिव्रत भंग किया व्यासजी का मछुए की लड़की पर, विश्वामित्र का मेनका पर आसक्त होने का वर्णन मिलता है। रामायण पढ़ने वालो ने नारद मोह की कथा पढ़ी होगी कि वे भक्ति भाव छोड़कर किस प्रकार विवाह के लिये व्याकुल फिरे थे। राक्षसों का पक्ष समर्थन करने वाले एवं सहायक शुक्राचार्य और कौरवों के सहायक द्रोणाचार्य जैसे विद्वान थे, बालि को वामन भगवान ने छला, बालि को राम ने आड़ में छिप कर अनीतिपूर्वक मारा, इस प्रकार बड़े बड़ों में जहाँ दोष है, वहाँ अत्यन्त छोटी श्रेणी के व्यक्ति भी उच्च चरित्र का पालन करते देखे जाते हैं। इतिहास एक समुद्र है। इसमें हर बुरे भले कार्य के पक्ष में तगड़े उदाहरण मिल सकते हैं, फिर इनमें से किसका अनुकरण किया जाए? दुर्भिक्ष में अन्न न मिलने पर प्राण जान का संकट उपस्थित होने पर विश्वामित्र ने चाण्डाल के घर से माँस चुरा कर खाया था और उषस्ति ने अन्त्यज के झूठे उर्द खाकर प्राण रक्षा की थी, किन्तु विलोचन का ऐसा भी उदाहरण मौजूद है कि अभक्ष खाने का अवसर आने पर उसने प्राणों का परित्याग कर दिया था। इनमें से किसका पक्ष ठीक माना जाए किसका गलत यह निर्णय करना साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है। अभिवचनों का भी यही हाल है कि एक विद्वान एक सिद्धान्त का प्रतिपादन बड़े प्रचण्ड तर्कों से करता है किन्तु दूसरा उससे भी उग्र प्रमाणों द्वारा उस सिद्धान्त का खण्डन कर देता है। प्रजातन्त्र, कम्यूनिज्म, फासिज्म, पूँजीवाद आदि के प्रतिपादन में जो तर्क और आधार उपस्थित प्रतिपादन में जो तर्क और आधार उपस्थित किये जाते हैं, उसके बीच में से सचाई ढूँढ़ निकालना साधारण प्रजा का काम नहीं है। फिर भावुकता का तो कहना ही क्या ? आँखों के सामने जो असाधारण अनुभूति करने वाले प्रसंग आते हैं, उनसे तरंगित होकर हृदय एक प्रवाह में बह जाता है और छोटी घटना को भी अत्यन्त महान समझकर उसके निराकरण में बड़े से बड़ा कार्य करने को तैयार हो जाता है, फिर चाहे उतने ही कार्य में अनेक गुने महत्वपूर्ण कार्य छूट जावें। साम्प्रदायिक दंगे हमारे देश में आये दिन होते हैं, इनकी तह में कोई बड़ी भारी जटिल पेचीदगी नहीं होती है किन्तु भावुकता का प्रवाह होता है। मुसलमान सोचता है कि नमाज के समय बाजा बजाने से खुदाबन्द करीम की तौहीन होती है, हिन्दू सोचता है रामचन्द्रजी की बारात का बाजा बन्द हो जाना ईश्वर का अपमान है। दोनों पक्ष खुदा की तौहीन और ईश्वर का अपमान न होने देने के लिए छुरी कटार लेकर निकल पड़ते हैं और खून से पृथ्वी लाल कर देते हैं। तत्वतः बाजे के कारण, न तो ईश्वर का अपमान होता था और न खुदा की तौहीन, पर दोनों पक्ष अपनी अपनी भावुकता के प्रवाह में बह गये और छोटी घटना को ऐसा बड़ा समझने लगे मानों यही जीवन मरण का प्रश्न है। यदि भावुकता की उड़ान पर विवेक का नियन्त्रण होता तो वह रक्तपात होने से बच जाता। मुहम्मद गोरी अपनी सेना के आगे गायों का झुण्ड आगे करके बढ़ा, पृथ्वीराज ने गौओं पर हथियार चलाने की अपेक्षा पराजय होने की भावुकता अपना ली। चन्द गायें उस समय बच गई, पर आज उसी के फलस्वरूप मिनट-मिनट पर सहसा गायों की गर्दन पर छुरी साफ हो रही है। ईद की कुर्बानी पर एक गाय को लेकर दंगा हो जाता है पर सूखे माँस के व्यापार में जो अगणित गौवध होता है उसकी ओर किस की दृष्टि जाती है? इस प्रकार भावुकता के प्रवाह में सामने वाली छोटी बातों को तूल मिल जाता है और पीछे पीछे रहने वाली जीवन मरण की समस्या जहाँ की तहाँ उपेक्षित पड़ी रहती है।

उपरोक्त पंक्तियों में हमने यह बताने का प्रयत्न किया है कि धर्मग्रंथ लोकमत, उदाहरण, अभिवचन और भावुकता के आधार पर धर्म संकट का सही हल निकालने में बहुत ही कम सहायता मिलती है और गड़बड़ में पड़ जाने की आशंका अधिक रहती है। हो सकता है कि सामने वाले दो मार्गों में से छोटी बात बड़ी मालूम पड़े और बड़ी का महत्व छोटा समझ में आवे। जैसे बालक के फोड़ा निकल रहा है इसे चिरवाना आवश्यक है। आपरेशन के चाकू को देखकर बालक भयभीत होकर करुण क्रन्दन करता है, पिता की भावुकता उमड़ पड़ती है, वह बालक को अस्पताल से उठा कर यह कहता हुआ चल देता है, इतना करुण रुदन मैं नहीं देख सकता। घर आने पर फोड़ा बढ़ता है, सड़ने पर गल कर नष्ट हो जाता है, बालक का जीवन निरर्थक हो जाता है। यहाँ तत्व ज्ञानी की दृष्टि से पिता की वह भावुकता अनुचित ठहरती है, जिसके प्रवाह में वह आपरेशन के समय बह गया था। यदि उस समय उसने धैर्य, विवेक और दूरदर्शिता से काम लिया होता तो बालक की जिन्दगी क्यों बर्बाद होती? पिता की सदाशयता पर किसी को आक्षेप नहीं, उसने जो किया था अच्छी भावना से किया था, पर भावुकता की मात्रा विवेक से अधिक बढ़ जाने के कारण वह उचित मार्ग से भटक गया और अनिष्टकर परिणाम उपस्थित करने का हेतु बन गया। जब पिता अस्पताल से बच्चे को उठा कर लाया था तब वह चाहता तो अनेक ऐसे सूत्र, लोकोक्ति, उदाहरण, तर्क आर अभिवचन सहज ही एकत्रित कर सकता था जो उसके कार्य का औचित्य सिद्ध करने ही के पक्ष में होते।

सामने एक भला मार्ग हो और दूसरा बुरा तो यह निर्णय आसान है कि इस मार्ग पर चलना उचित है। पर जब दोनों ही मार्ग बुरे हैं तो क्या किया जाए? यह निश्चित करना कठिन है। इसी प्रकार अच्छे मार्गों में से किसे चुना जाए यह भी पेचीदा प्रश्न है। इन पेचीदा मार्गों को धर्म संकट कहते हैं। धर्म संकट की घनघोर अँधियारा में किस ज्योति के प्रकाश में सच्चा मार्ग प्राप्त किया जा सकता है, इस सम्बन्ध में फरवरी के अंक में प्रकाश डाला जाएगा।


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