तीसरे वर्ष की समाप्ति

December 1942

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इस अंक के साथ अखण्ड ज्योति का तीसरा वर्ष समाप्त हो रहा है। इन थोड़े से दिनों के भीतर अखण्ड ज्योति द्वारा जनता जनार्दन की जो सेवा हुई है, उसके लिये देश - विदेशों में एक स्वर से जितनी प्रशंसा की गई है, उसे सुनते हुए कानों पर सहसा विश्वास नहीं होता।

सत्य है हमारी अल्प शक्ति द्वारा इतने महान कार्य का होना निस्सन्देह आश्चर्य से परिपूर्ण है। चिन्तन करने पर एक ही बात प्रतीत होती है कि ईश्वरीय महान प्रेरणा का निमित्त बन जाने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है। भगवान राम को रावणवाद का नाश करना था पर बेचारे क्षुद्र बन्दर भी यश के भागी बन गये। कौरववाद का ध्वंस होना था पर पाण्डवों को अनायास ही कीर्ति मिल गई। इस युग में व्यापक रीति से फैले हुए असत्य, पाप, पाखण्ड एवं कुविचारों को भगवान नाश करने वाले हैं। निस्संदेह उसके स्थान पर सत्य की, धर्म की, प्रेम की तथा न्याय की स्थापना होगी। उसके अनेक साधनों में से प्रभु ने अखण्ड ज्योति को भी एक बनाया हो, तो कोई अचम्भे की बात नहीं है।

सत्य का प्रचार के लिए अखण्ड ज्योति द्वारा जो ज्ञान यज्ञ आरम्भ किया गया है, उसकी दिव्य सुगन्ध देश देशांतरों में व्यापक होती जा रही है। पच्चीसियों वर्ष निकलने वाले हिंदी के पत्र जिन प्रदेशों में पहुँच नहीं पाये थे वहाँ न जाने कैसे अखण्ड ज्योति की असाधारण प्रतिष्ठा हुई। तमिल तेलगू, कन्नड़ की प्रधानता वाले दक्षिण भारत में भी अखण्ड ज्योति का काफी प्रचार है, फिर मराठी, गुजराती, बंगला, उर्दू, गुरुमुखी भाषा भाषी प्रान्तों का तो कहना ही क्या। वहाँ तो और भी अधिक प्रचार है। हिन्दी न जानने वाले पाठक अखण्ड ज्योति मँगाते हैं और किसी हिन्दी पढ़े दुभाषिये से पढ़वाकर उसका भावार्थ समझते हैं। जिन प्रान्तों में हिन्दी बोली जाती है, उनमें से तो एक भी स्थान ऐसा नहीं बचा जिसमें ज्योति का प्रवेश न हुआ हो। हिन्दुस्तान से बाहर भी अनेक देशों में अखण्ड ज्योति मँगाई जाती है इतना विस्तार, इतना प्रचार, इतना आदर, इतनी लोकप्रियता कागज के पन्नों के कारण नहीं है। इससे अधिक चमक दमक की बढ़िया कागज पर छापने वाली अधिक पृष्ठों की अनेक पत्रिकाएं मौजूद हैं, वे अपना क्षेत्र इतना विस्तार न कर सकी। खराब कागज पर थोड़े पृष्ठों में, बुरी छपाई में छपते हुए भी इतनी लोकप्रिय हो रही है, इसका कारण ईश्वरीय प्रेरणा के अतिरिक्त और कुछ हमारी समझ में नहीं आता। कागज के दाम आठ गुने हो जाने के कारण सैकड़ों पत्रों की कमर टूट गई, सैकड़ों घाटे के प्राणघातक भार से दबकर मरे जा रहे हैं। अखण्ड ज्योति को गत वर्ष केवल तेरह सौ रुपये का घाटा रहा। उसमें से भी बहुत कुछ पूर्ति श्री मुँशीरामजी गुप्त हिसार, श्री पं. जगन्नाथ राव नायडू नागपुर, पं. ऋषिरामजी गुप्त शाहपुर, पं. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा बाय, प्रभात धर्मात्माओं की गुप्त सहायताओं के द्वारा पूरा हो गया। सन् 42 अखबारों के लिए काल स्वरूप था, मृत्यु से लड़कर अखण्ड ज्योति जीवित रही, उपरोक्त सज्जनों की बिना माँगी आर्थिक सहायताएं प्राप्त हुई, उसके अतिरिक्त सैकड़ों सहृदय मित्रों ने अनेक मार्गों से उसका पोषण किया, इसे एक ईश्वरीय प्रेरणा के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है।

सन् 42 में प्रतिदिन औसतन 39 पत्र ऐसे आते रहे, जिनमें केवल धर्म चर्चा का प्रसंग रहता था। पत्र व्यवहार द्वारा इस सत्संग समागम में करीब पाँच हजार महानुभावों ने भाग लिया और उनके लिए करीब चौदह हजार पत्र यहाँ से भेजे गये। भारतवर्ष के कोने कोने में से करीब 700 महानुभाव केवल ज्ञान चर्चा के उद्देश्य से यहाँ पधारे, उनका यथा निधि समाधान किया गया। ‘सत्य का प्रचार’ यही एक कार्य उपरोक्त सारे परिश्रम के गर्भ में छिपा हुआ था। इस दशा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। पाँच सौ से ऊपर महानुभावों ने सत्य प्रतिज्ञा ग्रहण की। कई सौ कार्यकर्ताओं ने सत्य का विस्तार करने के लिए नित्य कुछ समय लगाना आरम्भ कर दिया है। अखण्ड ज्योति के हजारों पाठकों के कार्यों की सूची तैयार की जाए तो मालूम पड़ेगा कि कितने विशाल पैमाने पर सत्य का, प्रेम का, न्याय का, धर्म का विस्तार किया जा रहा है। नवयुग की स्थापना में हमारा यह कार्य एक बहुत छोटा अंश है तो भी जिन स्वल्प साधनों पर हम अवलम्बित है, उसे देखते हुए यह सब भी आशा से बहुत अधिक है।

अखण्ड ज्योति को दो मोर्चों पर लड़ना पड़ रहा है। हैवानियत और शैतानियत दोनों ही उसकी शत्रु हैं। पाप और पाखंड दोनों से उसे घृणा है। अधर्मी और धर्मध्वजी दोनों ही उसे अप्रिय हैं। हम चाहते हैं कि धर्म की स्थापना हो, सब लोग धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करें, त्याग, प्रेम, उदारता, भ्रातृत्व सेवा सद्भावना के पवित्र सूत्रों में भाई से भाई बँध जाए और सच्ची मनुष्यता का उदय हो। साथ ही हम यह भी चाहते हैं कि धर्म की आड़ में छिप कर बैठे हुए भेड़ियों का पर्दाफाश कर दिया जाए। आज का धर्म दुराचार, व्यभिचार, स्वार्थ, हरामखोरी, बदमाशी, कुविचार आदि घातक बुराइयों का आवरण मात्र रह गया है। इसे हटाना भी आवश्यक हैं। हमारी आँखें देख रही हैं कि पाजी से पाजी मनुष्य धर्म की पवित्र चादर को ओढ़े बैठे हैं और राक्षसी कुकर्मों को करते तथा कराते रहते हैं बेचारा ‘ब्राह्मण तत्व’ किसी कन्दरा में पड़ा सिसक रहा है और उसके स्थान पर ब्रह्म राक्षस की पैर पूजा हो रही है।

आज का धर्म सेवी वर्ग, ब्राह्मण वर्ण बड़ा ही नष्ट−भ्रष्ट हो रहा है। जो अपने को सर्वश्रेष्ठ मानव मुकुटमणि कहते हैं उनकी राजसी ठाट−बाट की महन्ताई, गद्दी, खजाने, हाथी, घोड़े, शिष्य समूह तथा रमणियों से भरा पूरा तो पाते हैं, पर सच्चा ब्राह्मण दीपक से ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलता। परमार्थ के लिये अस्थि दान करने वाले दधीचि, दिन रात प्रचार से निरत नारद, शिष्यों को अमर बना देने वाले वशिष्ठ, धर्म शास्त्रकार मनु, साहित्यिक युग निर्माता व्यास, अज्ञान का अन्धकार दूर करने वाले शंकराचार्य अब कहाँ हैं? उनके स्थान पर कान फूंके गुरु “हरे शिष्य धन पीर न हरई” की कहावत चरितार्थ करते हुए चारों ओर विचरण कर रहे हैं। अखण्ड ज्योति अज्ञान ग्रस्त-नीचे स्तर पर खड़े हुए धर्म के महत्व से अनभिज्ञ-पशुता से ग्रस्त लोगों को धर्म की ऊँची सीढ़ी पर चढ़ाना चाहती है और धर्म का पाखंड करके अपनी स्वार्थसिद्धि के निमित्त संसार में अधिक अँधेरा फैलाने वाले धर्मध्वजी महानुभावों को एक सीढ़ी नीचे उतारना चाहती है। दोनों के प्रेम के सुविस्तृत चबूतरे पर बराबर-बराबर खड़ा करके भाई को भाई के गले मिलाना चाहती है। पापी ऊंचे उठे पाखंडी नीचे उतरें। दोनों सत्य की पवित्र वेदी पर खड़े होकर मनुष्यता का प्रकाश प्रकट करें।

हमारे उपरोक्त विचार पापी और पाखंडी दोनों ही नापसंद करते हैं। दोनों अपने-अपने स्थानों पर चिपके रहना चाहते हैं। इसलिये दोनों ही मोर्चों पर अखण्ड ज्योति को लड़ना पड़ता है। मनुष्यता के उपासक, सत्य के प्रेमी ज्ञान के भक्त न्यायनिष्ठ और निष्पक्ष उदार हृदय वाले व्यक्ति ही हमारी नीति के समर्थक रह जाते हैं। कितनी प्रसन्नता की बात है कि हमारे समर्थकों की संख्या दिन-दिन बढ़ती जा रही है। सच्ची मनुष्यता के उपासक, सच्ची धर्म नीति को अपनाने वाले व्यक्तियों की संख्या में दिन-दिन असाधारण वृद्धि होती हुई हमें दृष्टिगोचर हो रही है। इस महान आध्यात्मिक मिशन को भला हम जैसे कमजोर व्यक्ति कैसे इतना अधिक आगे बढ़ा पाते, निस्संदेह इसके पीछे प्रबल ईश्वरीय प्रेरणा ही काम कर रही है।

अखबारों के ग्राहक बनते हैं, साल दो साल बाद वे उन्हें छोड़ देते हैं। परन्तु जिन पाठकों ने एक अखण्ड ज्योति को अपनाया, वे फिर उससे प्रथक न हुए। सैकड़ा पीछे, 90 से अधिक ऐसे ही हमारे पाठक है। कई सज्जनों ने लिखा है। कि अखण्ड ज्योति का चन्दा भेजने का प्रबन्ध न होने से बड़ी चिन्ता थी, पर अचानक ऐसी व्यवस्था हो गई कि पैसा आ गया और चिन्ता दूर हो गई। हमारे पाठक केवल पाठक नहीं हैं, वरन् अखण्ड ज्योति परिवार के सच्चे कुटुम्बी की भाँति अपना स्नेह रखते है और अखण्ड ज्योति के सत्य प्रचार के महान धर्म कार्य में क्रियात्मक सहयोग देते रहते हैं। इतना बड़ा एक समान विचारों वाला सुसंगठित परिवार इतने स्वल्प काल में बन जाना ईश्वरीय इच्छा के अतिरिक्त और क्या समझा जा सकता है।

हमारे ज्ञानचक्षु अपने चारों और ईश्वरीय दिव्य प्रेरणा को उमड़ता हुआ देखते हैं। सत्य- नारायण का नवयुग निर्माण रूपी पुण्य प्रवाह स्वर्ग से उतर कर भूमंडल पर आ रहा है। गंगा के समान एक बार वह पुनः इस भारत भूमि को पवित्र करके सौभाग्यशालिनी बनावेगा। अनेक दिव्य आशाओं और विश्वासों के साथ अखण्ड ज्योति अपना तीसरा वर्ष समाप्त करते हुए चौथे वर्ष में प्रवेश करती है। संवत् 2000 की रोमाँचकारी खण्ड प्रलय हमारे सामने है। ज्योति को कितने बड़े संकटों का सामना करना है, यह हम जानते हैं तो भी अपनी सत्यनिष्ठा, पाठकों की सद्भावना और ईश्वरीय सत्यप्रेरणा से तरंगित होकर आगे कदम बढ़ाते हैं। ईश्वर सबका मंगल करें।


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