(ले.-श्री ‘रमण’)
झिलमिल झिलमिल कुछ जलता है।
तम से परिपूर्ण डगर मेरी, चलना भी है दुश्वार यहाँ।
पग-पग पर काटे मिलते हैं, दुश्मन सारा संसार यहाँ॥
प्यासी दुनिया के बीच हाय, युग से प्यासे मानव का दल -
कब मिली इसे तिरछी चितवन, इसकी किस्मत में प्यार कहाँ।
ठोकर खाता फिर सँभल-सँभल, गिरता, उठता फिर चलता है।
अपने हाथों से चिता सजा, उसे आग लगाने वाले को।
मधु है, अमृत है, कह कह कर, प्रिय जहर पिलाने वाले को॥
मैं ढूँढ़ रहा हूं किस युग से, आँखों में चिर अरमान लिए -
अपने अभाव से भरे हाय, दुख सपने सत्य बनाने को।
धूमिल बन सांसें उठती हैं, जब जीवन स्वयं पिघलता है।
लेकर प्राणों की अमर ज्योति अन्तर का दीपक जलता है
यह किसने कहा। मूर्ख अपनी, दुनिया के कर ले द्वार बन्द।
इस बाहर भीतर की हलचल में, मिट न सकेंगे अमर द्वंद्व॥
बाहर का दीपक ओर, यहाँ जितना प्रकाश उतना पाप तम है -
उतना ही प्रकाश से पूर्ण हृदय अन्तर का जितना पान मन्द॥
उर वातायन से झाँक, देख, राही कितना दुख सहता है -
जब सारी दुनिया फूँक रहा, अन्तर का दीपक जलती है।
झिलमिल झिलमिल कुछ जलता है।