पिछले अंक में पाठक पढ़ चुके हैं। कि हमारा गुप्त चित्र-अंतर्मन ही निरन्तर चित्रगुप्त देवता का काम करता रहता है। जो कुछ भले या बुरे काम हम करते हैं उनका सूक्ष्म चित्र उतारकर अपने भीतर जमा करता रहता है। सिनेमा के पर्दे पर मनुष्य की बराबर लम्बी चौड़ी तस्वीर दिखाई देती है पर उसकी फिल्म केवल एक इंच ही चौड़ी होती है। इसी प्रकार पाप पुण्य का घटना क्रम तो विस्तृत होता है पर उसका सूक्ष्म चित्र एक पतली रेखा मात्र के भीतर खिंच जाता है और वह रेखा गुप्त मन के किसी परमाणु पर अदृश्य रूप से जमकर बैठ जाती है। शॉर्टहैंड लिखने वाले बड़ी बात की थोड़ी सी उलटी सीधी लकीरों से इशारों से जरा से कागज पर लिख देते हैं। कर्म रेखा को ऐसा ही दैवी शॉर्टहैंड समझा जा सकता है।
अखण्ड ज्योति के पाठकों को इतनी जानकारी से बहुत पहले हो चुकी होगी कि मन के दो भाग हैं एक बहिर्मन दूसरा अंतर्मन, बाहरी मन तो तर्क वितर्क करता है, सोचता है, काट-छाँट करता है, निर्णय करता है और अपने इरादों को बदलता रहता है पर अंतर्मन भोले भाले किन्तु दृढ़ निश्चयी बालक के समान है वह काट छाँट नहीं करता वरन् श्रद्धा और विश्वास के आधार पर काम करता है। बाहरी मन तो यह सोच सकता है कि पाप कर्मों की रेखायें अपने ऊपर अंकित न होने दूँ और पुण्य कर्मों को बढ़ा चढ़ा कर अंकित करूं, जिससे पाप का फल न भोगना पड़े और फल का भरपूर आनन्द प्राप्त हो। परन्तु भीतरी मन ऐसा नहीं है वह सत्यनिष्ठ जज की तरह फैसला करता है, कोई लोभ, लालच, भय, स्वार्थ उसे प्रभावित नहीं करता। कहा जाता है कि मनुष्य के अन्दर एक ईश्वरीय शक्ति रहती हैं, दूसरी शैतानी। आप गुप्त मन को ईश्वरीय शक्ति और तर्क, मन, छल, कपट, स्वार्थ, लोभ में रत रहने वाले बाह्य मन को शैतानी शक्ति कह सकते हैं। बाहरी मन धोखेबाजी कर सकता है, परन्तु भीतर मन तो सत्य रूपी आत्मा का तेज है। वह न तो मायावी आचरण करता है न छल कपट। निष्पक्ष रहना उसका स्वभाव है। इसीलिए ईश्वर ने उसे इतना महत्वपूर्ण कार्य सौंपा है। दुनिया उसे चित्रगुप्त देवता कहती है। यदि वह भी पक्षपात करता तो भला इतनी ऊँची जज की पदवी कैसे पा सकता था। हमारा गुप्त मन खुफिया जासूस की तरह हर घड़ी साथ-साथ रहता है और जो जो भले बुरे काम किए जाते हैं उनका ऐमालनामा अपनी खुफिया डायरी से दर्ज करता रहता है।
बाहरी दुनिया में मुलजिम को सजा दिलाने का काम दो महकमों के अधीन है एक पुलिस, दूसरा अदालत। पुलिस तो मुलजिम को पकड़ ले जाती है और उसके कामों का सबूत एकत्रित करके अदालत के सामने पेश करती है। फिर अदालत का महकमा अपना काम करता है, जज महाशय अपराध और अपराधी की स्थिति के बारे में बहुत दृष्टियों से विचार करते हैं वैसा फैसला करते हैं। एक ही जुर्म में आये हुए अपराधियों को अलग अलग तरह की सजा देते हैं। तीन खूनी पकड़ कर आये, इनमें से एक को बिलकुल बरी कर दिया, दूसरे को पाँच साल की सजा मिली, तीसरे को फाँसी हत्या तीनों ने की थी, पर सजा देते वक्त मजिस्ट्रेट ने बहुत बातों पर विचार किया। जिसे बरी कर दिया गया था वह मकान बनाने वाला मजदूर था छत पर काम करते वक्त पत्थर का टुकड़ा उसके हाथ से अचानक छूट गया और वह नीचे सड़क पर चलते हुए मुसाफिर के सिर में लगा, सिर फट गया, मुसाफिर की मृत्यु हो गई। जज ने देखा हत्या तो अवश्य हुई, पर मजदूर निर्दोष है उसने जानबूझ कर बुरे इरादे से पत्थर नहीं फेंका था, इसलिए उसे बरी कर दिया गया। दूसरा मुलजिम एक किसान था खेत काटते हुए चोर को ऐसी लाठी मारी कि वह मर गया। मजिस्ट्रेट ने सोचा चोरी होते देखकर गुस्सा आना स्वाभाविक है पर किसान की इतनी गलती है कि मामूली अपराध पर इतना नहीं मारना चाहिए था इसलिए उसे पाँच साल की सजा मिली। तीसरा मुलजिम एक मशहूर डाकू था। एक धनी पुरुष के घर में रात को घुस गया और उसका कत्ल करके धन-माल चुरा लाया, इसका अपराध जघन्य था इसलिये फाँसी की सजा दी गई। तीनों ही अपराधियों ने खून किया था, जुर्म का बाहरी रूप एक सा था, पर मजिस्ट्रेट सूक्ष्मदर्शी होता है, वह बाहरी काम को देखकर ही सजा नहीं दे डालता वरन् भीतरी बारीकियों पर भली प्रकार विचार करके तब कुछ फैसला करता है।
भीतरी दुनिया में गुप्त-चित्र या चित्रगुप्त पुलिस और अदालत दोनों महकमों का काम स्वयं ही करता है। यदि पुलिस झूठा सबूत दे तो अदालत का फैसला भी अनुचित हो सकता है। परन्तु भीतरी दुनिया में ऐसी गड़बड़ी की संभावना नहीं। अन्तःकरण सब कुछ जानता है कि यह कर्म किस विचार से, किस इच्छा से किस परिस्थिति में, क्यों कर किया गया था। वहाँ बाहरी मन को बयान या सफाई देने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि गुप्त मन उस बात के सम्बन्ध में स्वयं ही पूरी पूरी जानकारी रखता है। हम जिस इच्छा से, जिस भावना से जो काम करते हैं उस इच्छा से या भावना से ही पाप पुण्य का नाप होता है। भौतिक वस्तुओं की तोल नाप बाहरी दुनिया में होती है। एक गरीब आदमी दो पैसा दान करता है और एक धनी आदमी दस हजार रुपया दान करता है। बाहरी दुनिया तो पुण्य की तौल रुपये पैसे की गिनती के अनुसार करेगी। दो पैसा दान करने वाले की ओर कोई आँख उठा कर भी न देखेगा पर दस हजार रुपया देने वाले की प्रशंसा चारों ओर फैल जावेगी। भीतरी दुनिया में यह तौल नाप नहीं चलती। अनाज के दाने अंगोछे में बाँधकर गाँव में बनिये की दुकान पर चले जाएं तो वह बदले में गुड़ दे देगा पर उसी अनाज को इंग्लैंड की राजधानी लन्दन में जा कर किसी दुकानदार को दिया जाए तो वह कहेगा-महाशय। इस शहर में अनाज के बदले सौदा नहीं मिलता यहाँ पौड शिलिंग पैंस का सिक्का चलता है। ठीक इसी तरह बाहरी दुनिया में रुपयों की गिनती से, काम के बाहरी फैलाव से, कथा वार्ता से, तीर्थ यात्रा आदि भौतिक चीजों से यश खरीदा जाता है, पर चित्रगुप्त देवता के देश में यह सिक्का नहीं चलता, वहाँ तो इच्छा और भावना की नाप तौल है। उसी के मुताबिक पाप पुण्य का जमा खर्च किया जाता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उकसा कर लाखों आदमियों को महाभारत के युद्ध में मरवा डाला। लाशों से भूमि पट गई खून की नदियाँ बह गई फिर भी अर्जुन को कुछ पाप न लगा, क्योंकि हाड़ माँस के बने हुये कितने खिलौने टूट फूट गये इसका लेख चित्रगुप्त के दरबार में नहीं रखा गया। भला कोई राजा यह हिसाब रखता है कि मेरे भण्डार में से कितने चावल फैल गये। पाँच तत्वों से बनी हुई नाशवान चीजों की कोई पूछ आत्मा के दरबार में नहीं है। अर्जुन का उद्देश्य पवित्र था, वह पाप को नष्ट करके धर्म की स्थापना करना चाहता था। बस वही इच्छा खुफिया रजिस्टर में दर्ज हो गई। आदमियों के मरने जीने की संख्या का कोई हिसाब नहीं लिखा गया। दुनिया में करोड़पति की बड़ी प्रतिष्ठा है, पर यदि उसका दिल खोटा है तो चित्रगुप्त के दरबार में भिखमंगा शुमार किया जायगा। दुनिया का भिखमंगा यदि दिल का धनी है तो उसे हजार बादशाहों का बादशाह गिना जायगा। इस प्रकार मनुष्य जो भी काम कर रहा है वह किस नीयत से कर रहा है वह नीयत, भलाई या बुराई जिस दर्जे में जाती होगी उसी में दर्ज कर ली जाएगी। सद्भाव से फाँसी लगाने वाला एक जल्लाद भी पुण्यात्मा गिना जा सकता है और एक धर्मध्वजी तिलकधारी पंडित भी गुप्त रूप से दुराचार करने पर पापी माना जा सकता है। बाहरी आडम्बर का कुछ मूल्य नहीं है, कीमत भीतरी चीज की है। सीप की कुछ कीमत नहीं, मोल तोल तो मोती का है। बाहर से कोई काम भला या बुरा दिखाई दे, तो उससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। असली तत्व, तो उस इच्छा और भावना में है, जिससे प्रेरित होकर वह काम किया गया है। पाप पुण्य की जड़ कार्य और प्रदर्शन में नहीं वरन् निश्चित रूप से इच्छा और भावना में ही है।
उपरोक्त पंक्तियों में बताया गया है कि हमारे प्राणों के साथ घुल−मिल कर रहने वाला चित्रगुप्त देवता बिना किसी पक्षपात के, बुरे भले कर्मों का लेख अन्तः चेतना के परमाणुओं पर लिखा करता है, उस अदृश्य लिपि को बोलबाल की भाषा में कर्म रेखा कहते हैं। साथ ही यह भी बताया जा चुका है कि पाप पुण्य का निर्णय काम के बाहरी रूप से नहीं, वरन् कर्ता की इच्छा और भावना के अनुरूप होता है। यह इच्छा जितनी तीव्र होगी, उतना ही पाप पुण्य भी अधिक एवं बलवान होगा। जैसे एक व्यक्ति उदास मन से किसी रोगी की सेवा करता है और दूसरा व्यक्ति दूसरे रोगी की सेवा अत्यन्त दया, सहानुभूति, उदारता एवं प्रेमपूर्वक करता है, तो बाहर से देखने में दोनों के काम एक समान भले ही हों, पर उस पुण्य का परिणाम भावना की उदासीनता एवं प्रेम तत्परता के अनुसार न्यूनाधिक होगा। इसी प्रकार एक भूखा व्यक्ति लाचार होकर चोरी करता है, दूसरा व्यक्ति मद्यपान के लिये चोरी करता है तो दोनों के पाप में निस्संदेह न्यूनाधिकता होगी। चोरी दोनों ने की है पर दुष्टता में न्यूनाधिकता के कारण पाप भी उसी अनुपात से होगा।
इस सम्बन्ध में एक और भी महत्वपूर्ण बात जान लेने की है कि हर व्यक्ति के लिये अलग-अलग कानून व्यवस्था है। रिश्वत के मामले में एक चपरासी, एक क्लर्क, एक मजिस्ट्रेट तीन आदमी पकड़े जाएं, तो तीनों को अलग- अलग तरह की सजा मिलेगी। संभव है चपरासी को डाट-डपट सुनाकर ही छुटकारा मिल जाए, पर मजिस्ट्रेट बर्खास्त हुए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि उसकी बड़ी जिम्मेदारी है। एक असभ्य भील शिकार मार कर पेट पालता है, अपराध उसका भी है, परन्तु अहिंसा का उपदेश करने वाला पंडित यदि चुपचाप बूचर की दुकान में जाता हैं, तो पंडित को उस भील की अपेक्षा अनेक गुना पाप लगेगा। कारण यह है कि ज्ञान वृद्धि करता हुआ जीव जैसे-जैसे आगे बढ़ता चलता है वैसे ही वैसे उसकी अन्तः चेतना अधिक स्वच्छ होती जाती है। मैले कपड़े पर थोड़ी सी धूल पड़ जाए तो उसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु दूध के समान स्वच्छ धुले हुए कपड़े पर जरा सा धब्बा लग जाए, तो वह दूर से ही चमकता है और बहुत बुरा मालूम पड़ता है। छोटा बच्चा कपड़ों पर टट्टी कर देता है, पर उसे कोई बुरा नहीं कहता और न बच्चे को कुछ शर्म आती है, किन्तु कोई जवान आदमी ऐसा कर डाले तो उसे बुरा कहा जाएगा। और वह खुद भी लज्जित होगा। बच्चे ने और बड़े ने आचरण एक सा ही किया, पर उनके मानसिक विकास में अन्तर होने के कारण बुराई की गिनती कम ज्यादा की गई। इसी प्रकार अशिक्षित, अज्ञानी, असभ्य व्यक्तियों को कम पाप लगता है। ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ भला बुरा समझने की योग्यता बढ़ती जाती है। सत् असत् का, कर्तव्य अकर्तव्य का, विवेक प्रबल होता जाता है, अन्तः करण की पुकार जोरदार बनती जाती है। इस प्रकार आत्मोन्नति के साथ साथ सदाचरण की जिम्मेदारी भी बढ़ती जाती है। हुक्मअदूली करने पर मामूली चपरासी को दो रुपया जुर्माना हो जाता है परन्तु फौजी अफसर हुक्मअदूली करे तो कोई मार्शल द्वारा गोली से शूट करा दिया जाएगा। ज्ञानवान, विचारवान और भावनाशील हृदय वाले व्यक्ति जब दुष्कर्म करते हैं तो उनका चित्रगुप्त उस करतूत को बहुत भारी पाप की श्रेणी में दर्ज कर देता है। गौदान से लोग वैतरणी पार कर जाते हैं, पर राजा नृग जैसा विवेकवान थोड़ी गलती करने पर ही नरक में पहुँचा। अज्ञानी व्यक्ति अपराध करे तो वह उतना महत्व नहीं रखता। किन्तु कर्तव्ययुक्त ब्राह्मण तो घोर दंड का भागी बनता है। राजा बनना सब दृष्टियों में अच्छा है, पर राजा की जिम्मेदारी भी सबसे ऊँची है। ज्ञानवानों का यह कठोर उत्तरदायित्व है कि सदाचार पर दृढ़ रहें, अन्यथा सात मंजिल ऊँची छत पर से गिरने वालों को जो कष्ट होता है उन्हें भी वही दुख होगा।
कर्मों का फल किस प्रकार मिलता है। इन्हीं पंक्तियों में पाठकों को अगले अंकों में यह रहस्य भी समझाया जाएगा।
हरि-चर्चा लेखमाला-2