नरमेध यज्ञ

December 1942

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सतयुग में एक बार बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ा। कई वर्ष तक लगातार वर्षा न होने के कारण अन्न बिल्कुल पैदा न हुआ। कुएँ और नदी तालाब सूख गये। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। पृथ्वी पशु पक्षियों से रहित दिखाई पड़ने लगी। भूख और प्यास से पीड़ित नर-नारी तड़प-2 कर प्राण त्यागने लगे।

राजाओं ने अपने खजाने खाली कर दिये। धनियों ने अपनी सम्पदायें लुटा दी। विभुक्षितों को बचाने के लिए सब ने अपनी शक्ति भर उद्योग किया, पर दैवी प्रकोप के आगे आखिर किस का, कब तक बस चलता। जब सब शक्ति हीन हो गये और दुर्भिक्ष का दानव विकराल रूप धारण करके, प्रजा को चबाने लगा, तो चारों दिशाओं में हाहाकार गूंजने लगा।

विपत्ति से छुटकारा पाने का उपाय ढूँढ़ने के लिए राजा ने एक बड़ी भारी सभा बुलाई, जिसमें उस समय तक जीवित सभी गणमान्य ऋषि ओर मनीषी एकत्रित हुए। बहुत सोच विचार के बाद ऋषियों ने निश्चय किया कि इन्द्र देवता कुपित हो गये है, उन्हें शान्त करने के लिए नरमेध यज्ञ होना चाहिए।

नरमेध यज्ञ क्या? प्रजा की इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए ऋषियों ने बताया कि पाप-पूर्ण कुविचारों से जब अदृश्य लोक भर जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया से सभी सृष्टि पर नाना प्रकार की आपत्तियाँ आती हैं। उन्हें शान्त करने के लिए प्रबुद्ध। आत्माओं का उच्चकोटि का स्वेच्छा-त्याग आवश्यक है। कुछ दिव्य आत्माएँ पवित्रतम विचारों के साथ लोक कल्याण के लिए अपने को बलिदान कर दें, तो विकृत वातावरण शुद्ध हो सकता है, इन्द्र देवता सन्तुष्ट हो सकते हैं।

सब लोग चिन्ता में पड़े कि नरमेध यज्ञ के ‘बलि पशु’ कौन बनेगा? लोग कुत्ते की मौत आये दिन मरते थे पर धर्म के लिए प्राण देना तो बड़ा कठिन है। ऋषि ने खड़े होकर पूछा -आप लोगों में से कोई व्यक्ति अपने को यज्ञ में बलिदान करने के लिए देता है? सभा में सन्नाटा छाया हुआ था, ऋषि की याचना प्रतिध्वनित होकर वापिस लौट आई। दर्शकों और विचारकों की सभा में से किसी का मुँह न खुला। कार्यवाही दूसरे दिन के लिए स्थगित कर दी गई।

सभा का कार्य समाप्त हो जाने के बाद एक ब्राह्मण युवक अपने विचारों में मग्न अपने घर पहुँचा। घर पर उसके वृद्ध माता-पिता भूख से तड़प रहे थे। प्यास के मारे उसके होंठ सूख रहे थे। युवक ने माता पिता के पैर छुए और कहा मैं अब जा रहा हूँ, सदा के लिए जा रहा हूँ, आप मुझे प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दीजिये। उसने सभा का सारा वृत्तान्त कह सुनाया कि किस प्रकार नरमेध यज्ञ की आवश्यकता बताई गई और उसके लिए एक यज्ञ-पशु का कार्य करने के लिये कोई उद्यत न हुआ। अब मैंने अपने प्राण देकर उस महान् कार्य की पूर्ति करने का निश्चय किया है।

माता-पिता का भूख प्यास के कारण होने वाला चीत्कार बन्द हो गया। उन्होंने अपनी धुँधली आँखों से अपने प्राणों से प्यारे पुत्र को देखा और उसे उठाकर छाती से लगा लिया। उनकी आँखों से आँसुओं का अविरल प्रवाह जारी था और गला रुँध रहा था। एकमात्र पुत्र की ममता उनका कलेजा नौंचे खा रही थी। पुत्र को चरण स्पर्श का उत्तर देते हुए पिता ने कहा-’बेटा, प्रसन्नतापूर्वक जाओ। यदि तुम्हारे बलिदान से असंख्य प्राणियों की तड़पती हुई आत्माओं को शान्ति मिलेगी,तो तुम बड़े भाग्यशाली हो, प्रसन्नतापूर्वक अपना बलिदान करो बेटा।

दूसरे दिन प्रातःकाल सभी की कार्यवाही पुनः आरम्भ हुई। ऋषि ने उठ कर पूछा-क्या यज्ञ न हो सकेगा? क्या आज भी कोई महानुभाव अपने को बलिदान करने के लिये तैयार होकर नहीं आये हैं? सभा मण्डल में भीड़ को चीरता हुआ एक दुर्बल, कृशकाय, गौर वर्ण युवक आगे बढ़ा। उसने कहा “यज्ञ होगा! अवश्य होगा। हाँ, मैं शतमन्यु शर्मा तैयार होकर आया हूँ।” सब लोग प्रसन्नता से तालियाँ बजाने लगे।

यज्ञ की तैयारियाँ होने लगीं। होता, उर्ध्वयु उद्गाता, ब्रह्मा सब अपना-2 कार्य करने लगे। एक विशाल मण्डप के बीच यज्ञ वेदिका बनाई गई। आहुतियों से अग्नि की लपटें आकाश का चुम्बन करने के लिये बढ़ने लगीं।

बलिदान की वेदी के निकट तेजस्वी शतमन्यु खड़ा हुआ था, प्रसन्नता से उसका चेहरा खिल रहा था। उसकी आहुति दी ही जाने वाली थी कि आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। एक दिव्य-ज्योति ने प्रकट होकर कहा-’पुत्र’ शतमन्यु! मैं ही इन्द्र हूँ, तुम्हारे त्याग से बहुत प्रसन्न हूँ। जिस देश में तुम्हारे जैसे आत्मत्याग करने वाले मौजूद हैं, वह अधिक दिन दुखी न रहेगा। अब नरमेध की आवश्यकता नहीं रही, शीघ्र ही वर्षा होगी और दुर्भिक्ष मिट जायगा।’

ज्योति के अन्तर्ध्यान होते ही घनघोर घटायें उमड़ी और मूसलाधार वर्षा होने लगी। मरणासन्न प्राणियों में पुनः प्राण लौट आये, सर्वत्र शतमन्यु का यशगान होने लगा।

सतयुग के आदि में ऋषि के आदेश का उत्तर देते शतमन्यु ने कहा था ‘यज्ञ होगा।’ मैं तैयार हूँ।’ आज कलयुग के अन्त में अखंड पूछती है कि असत्य और पाप के कारण दुर्भिक्ष पीड़ित संसार को शान्ति देने के लिये, सत्य प्रचार करने के लिये, क्या कोई तेजस्वी युवक तत्पर न होंगे? क्या इस सत्य-यज्ञ का अनुष्ठान न हो सकेगा? नरमेध यज्ञ का महत्व समझने वाले कोई आत्मत्यागी नहीं है?

देखें कोई शतमन्यु यह कहने का साहस करता है कि ‘हाँ मैं हूँ।’ असत्य को मिटाने के लिये सत्य की बलिवेदी पर प्राण देने के लिये मैं तैयार हूँ। अखण्ड ज्योति के प्यारे कान ऐसे उत्तर सुनने के लिये गर्दन उठा उठा कर देख रहे है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118