नायमात्माबलहीने न लभ्यः

September 1941

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उपनिषद् का वचन है कि- ‘यह आत्मा निर्बलों को प्राप्त नहीं होती।’ आइए, जरा इस विषय पर गंभीरता पूर्वक विचार करें। अखण्ड ज्योति के पाठक बहुत दिनों से यह सुनते आ रहे हैं, कि मनुष्य में जो कुछ भी चेतना शक्ति है, वह आत्मा के द्वारा ही प्राप्त होती है। यह समस्त सत्ताओं का केन्द्र है। हमारी भौतिक योग्यताएं भी उस आध्यात्मिक केन्द्र से आविर्भूत होती हैं। कोई व्यक्ति जो धनवान, बलवान, विद्वान, बुद्धिमान, गुणवान, ऐश्वर्यवान, या तेजवान दिखाई पड़ता है, उससे यह प्रसाद जड़ शरीर से नहीं वरन् आत्मा की कृपा से प्राप्त हुए हैं। बहुमुखी आन्तरिक सत्ता का जिसने जितना और जिस प्रकार विकास कर लिया है, उसमें इसी से ही महत्व प्रदर्शित होता है। सच्चिदानंद आत्मा की अपरिमित शक्ति में से जो जितना ग्रहण कर लेता है, वह वैसा ही सुयोग्य दिखाई देता है। केवल सतोगुण ही नहीं रजोगुण और तमोगुण की जागृति भी आत्मशक्ति का उपयोग लाये बिना होना असंभव है। निदान यह मानना पड़ता है, कि जिसके पास जो कुछ है वह आत्मा का ही प्रसाद है। इसी सत्य को ध्यान में रखते हुए मुँडकोपनिपद आदेश करती है किः-

तमेवैकं जानथ आत्मा नमन्या

वाचो विमुञच्थ अमृतस्यैष सेतु॥

अर्थात्-’एकमात्र आत्मा को जानो, इसके अतिरिक्त और कोई वार्ता कदापि मत करो, सुनो! यही अमृत का सेतु-पुल है।’ सचमुच आत्मशक्ति को प्राप्त करने से बढ़ कर और कोई ऐश्वर्य नहीं है। इसे यों भी कहा जा सकता है, कि आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। आत्मशक्ति के अभाव में विश्व का अस्तित्व ही मिट जाता है जिसमें यह सत्ता जितनी प्रसुप्त है वह उतना ही दीन मलीन और दुःखी है।

इस दिव्य तत्व को प्राप्त करना मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य है, परन्तु कितने दुःख की बात है कि हम मूल को छोड़ कर पत्ते-पत्ते पर भटकते हैं, फलस्वरूप जीवन यों ही व्यर्थ चला जाता है और एक भी तृष्णा को पूरा नहीं कर पाते क्योंकि मनोवाँच्छाओं को पूर्ण करने के स्थल-आत्मा की ओर ध्यान न देकर बारहसिंगा की भाँति कस्तूरी की तलाश में इधर-उधर दौड़ते फिरते हैं। आत्मिक सुख को छोड़ दें तो भी कोई साँसारिक सुख आत्म प्रसाद के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। जिस प्रकार तेल के अभाव में दीपक बुझ जाता है, और उसके न्यून होने पर वनबी जरा-जरा टिमटिमाती रहती है, वैसे ही आत्म शक्ति से रहित मनुष्य सब प्रकार असहाय, अभावों से ग्रस्त, चिन्ताओं से व्याकुल और दास वृत्ति के साथ जैसे-तैसे जीवन यापन करते हैं।

हम चाहते हैं कि क्षुद्र न रह कर महान बनें, दास नहीं स्वतंत्र बनें और इच्छित ऐश्वर्यों का उपभोग करें। यह बातें आत्मशक्ति से सम्बंध रखती हैं, निश्चय ही कोई निर्बल आत्मा सुखी स्वतंत्र और महान नहीं हो सकती। इसलिये सबसे अधिक आवश्यकता हमें इस बात की है कि आत्मा को जानें, आत्म शक्ति को प्राप्त करें। अब विचार करना चाहिये कि आत्मा किस प्रकार और किन लोगों को प्राप्त हो सकती है? उपरोक्त पद में स्पष्ट कर दिया है कि- नायमात्मा बलहीने न लभ्यः। अर्थात् निर्बलों को यह आत्मा प्राप्त नहीं होती। जो आत्मा को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें बलवान बनना चाहिए।

निर्बलता, दासता, दीनता, अकर्मण्यता, कायरता यथार्थ में सब से बड़ा पाप है। पत्थर जैसी जड़ता धारण करने वाला और अपनी क्रिया शक्ति स्फूर्ति एवं आशा का तिरस्कार करने वाला एक प्रकार का आत्म-हत्यारा है। और ऐसे आत्म-हत्यारों को निश्चय ही घोर नरक प्राप्त होता है। यह नरक मृत्यु के बाद नहीं वरन् उसी क्षण से उतने ही परिणाम में प्राप्त होना आरम्भ हो जाता है, जब से कि वह इन जघन्य दोषों को अपनाना शुरू करता है। ईश्वर ने हमें सम्पूर्ण शारीरिक और मानसिक साधन इस प्रकार के दिये हैं, कि उनका भरपूर उपयोग करके, अपने को अधिक से अधिक बलशाली बनावें। वह राजा को अपने घर में नहीं ठहरा सकता है, जिसके यहाँ थोड़ी बहुत जगह है। सड़क पर सोकर गुजर करने वाला भिखमंगा भला किस प्रकार एक राजा को अपने घर में ठहरा कर उसका स्वागत-सत्कार करने का आनन्द लाभ कर सकेगा? ईश्वर को वही प्राप्त कर सकता है, जो बलवान है, आत्मशक्ति उसे प्राप्त हो सकती है जो सशक्त है। भौतिक विज्ञानी कहते हैं कि- “प्रकृति श्रेष्ठतम का चुनाव करती है और कमजोरों को नष्ट कर डालती है।” आध्यात्मिक विज्ञानी कहते हैं कि- निर्बलता आत्महत्या है, ऐसे पापियों को नरक की ज्वाला में जलना पड़ता है।” बात दोनों की एक है। असंख्य जातियाँ और सभ्यताएं निर्बलता के पाप के कारण अपना, अस्तित्व खो चुकीं और भविष्य में भी जो व्यष्टि या समष्टि निर्बल होगी, वह अपने पाप का पूरा-पूरा फल भोगेगी। इसलिये जो जीवित रहना चाहते हैं, जो उन्नति करना चाहते हैं, जो ऐश्वर्य प्राप्त करने के इच्छुक हैं उन्हें चाहिये कि बलवान बनें और आत्मशक्ति को प्राप्त करके सौभाग्यशाली कहलावें।

भौतिक विज्ञान ने तामसी बल का संपादन करने की सलाह दी है। पश्चिमी देशों ने पाशविक बल संग्रह किया है। हिंसा और छल में निपुणता प्राप्त करना बहुत निकृष्ट कोटि की बल साधना है इसका परिणाम कुछ क्षण के लिए सुखद भले ही प्रतीत हो, अन्ततः वह समूल नाश का कारण बन जाता है। उत्तम बल सात्विक बल है। हमें चाहिए कि सात्विक बल की आराधना करें। सत्य और अहिंसा के आधार पर जो आध्यात्मिक बल संपादन किया जाएगा वह आसुरी बल की अपेक्षा अधिक दृढ़ और स्थायी होगा एवं उसी के द्वारा सुख शान्ति का साम्राज्य स्थापित किया जा सकेगा।

आवश्यक है कि हम न केवल शरीर से वरन् मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी बलवान बनें। कायरता और अकर्मण्यता को छोड़कर कर्त्तव्य क्षेत्र में अवतीर्ण हों। हीनता, दीनता और दासता के विचारों का परित्याग करके अपने वास्तविक ‘सोऽहम्’ स्वरूप को जानें। जिन योग्यताओं को जीवन यावन के लिये आवश्यक समझें उनका विकास करें और एक दिन पूर्ण परमात्म पदवी को प्राप्त करने में समर्थ हो जावें। ऐसा पौरुष करने पर ही हम बलवान बने सकेंगे और पर आत्मा को प्राप्त करने में समर्थ होंगे।

पाठकों! निश्चय समझो कि बिना आत्मा प्राप्त किए कल्याण नहीं किन्तु ‘नायमात्मा बलहीने लभ्यः।’ इसलिए उठो, बलवान बनो- अपने बल सशक्त बनाओ।


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