सच्चा प्रेम-सुख का मूल

September 1941

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(स्वामी विवेकानन्द जी)

सच्चे प्रेम से दुःख की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सच्चा प्रेम करने वाले को, अथवा जिस वस्तु पर उसका प्रेम है उसको, प्रेम से दुःख होना सर्वथा असम्भव है। फिर प्रेम करने वाला और उसका प्रेम-विषय हर घड़ी दुःख में डूबे हुए क्यों दिखाई देते हैं? इसके उत्तर में हम एक उदाहरण उपस्थित करते हैं जो संसार में सब जगह पाया जाता है। एक पुरुष का एक स्त्री पर प्रेम होता है। यहाँ तक कि ध्यान में, मन में स्वप्न में उसे छोड़कर और कुछ दीखता ही नहीं। क्या यह स्वर्गीय प्रेम है? जरा ठहरिये और प्रेम का शास्त्रीय पृथक्करण हमें करने दीजिये, तब आपको इसका सच्चा स्वरूप मालूम होगा। उसकी इच्छा रहती है कि वह स्त्री सदैव मेरे पास ही रहे, पास ही खड़ी रहे, पास ही खावें-पीवे, मतलब यह है कि उसे करीब-करीब इसका गुलाम ही बन कर रहना चाहिये। मानव स्वतंत्र रीति से उसे और कार्य ही नहीं है। उसके मुँह से निकलने वाला प्रत्येक शब्द यह स्वीकार करता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि उसे स्वयं अपना गुलाम बना कर वह स्वयं भी उसका गुलाम बनता है। अब आप ही सोचिये, इन दो गुलामों के प्रेम का सच्चा स्वरूप चिरस्थायी कहाँ तक हो सकता है? यदि वह स्त्री कहीं क्षणभर के लिये कहीं बाहर जाती है तो यह स्वयं अपने मन में उल्टे सवाल विचार लाकर अपने को दुःखी कर लेता है। मित्रों सच्चे प्रेम का यह स्वरूप नहीं है।

इन्द्रियजन्य सुख की अभिलाषा से पागल होने वाले मनुष्य की यह एक लहर मात्र है। यदि स्वयं उसके कहने के अनुसार कोई बात करने से इन्कार करती है तो बस इसका मन बिगड़ते देर नहीं लगती। जिस जगह दुःख की उत्पत्ति होती हुई देखी जाती है वह सच्चा प्रेम ही नहीं है। वास्तव में वह और ही कुछ है।


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