पूजा या नित्य नेम

September 1941

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(श्री रामदयाल जी गुप्त, नौ गढ़)

पूजा वास्तव में वही कही जा सकती है, जिसके करने से मन में सिवा भगवत् चिन्तन के और ख्याल पैदा न होते हों। मन में ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ प्रेम हो और उस प्रेम में समय का कुछ ख्याल न हो अलावा इसके पूजा करते समय किसी बात का संकोच पैदा न हो अर्थात् यह ख्याल न हो कि मुझे कोई देख ही नहीं रहा है। ऐसा ख्याल आने से पूजा में त्रुटि अवश्य पड़ जाती है। मतलब यह कि भगवत्-उपासना करते समय मन में सिवाय भगवत् चिन्तन के और कुछ ख्याल ही न पैदा हो अथवा पैदा हो भी तो वह चिन्तन के समक्ष तुच्छ प्रतीत हो।

नित्य नेम इसे कहा जा सकता है कि मनुष्य प्रथम मन की प्रेरणा से उपासना करना शुरू करता है। कुछ दिन ठीक तौर पर करने के उपरान्त मन में इसके प्रति फिर आलस्य आ जाता है, तथा उपासना छोड़ने की भी इच्छा हो जाती है, परन्तु फिर किसी कारण उसको न छोड़ किसी रूप में निभाते चलना मन में स्थिर करता है ऐसी हालत में मन में वास्तविक श्रद्धा नहीं रहती और वह उपासना किसी बात का नियम कर लेने के बतौर एक नियम बन जाती है। ऐसी हालत में मन से श्रद्धा हटती जाती है और फिर उपासना जल्दी से जल्दी खत्म करने का ख्याल बना रहता है। ऐसी पूजा को मैं ‘नित्य नेम’ समझता हूँ।

श्रद्धा सहित पूजा दो घंटे की बजाए आधे घंटे ही अति उत्तम होती है। परन्तु गौ-श्रद्धा इतनी उत्तम नहीं होती। वैसे नाम लेते तो हर हालत में उत्तम है, परन्तु श्रद्धा सहित नाम लेने से मन में जो आनन्द प्रतीत होता है वह श्रद्धा के बिना नहीं।


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