(ले. श्री लक्ष्मीनारायण गुप्त ‘कमलेश’)
जिसका विस्तार युगों से है, परिमित है, वही एक-क्षण में।
वह सर्व भूतमय एक ज्योति है, व्याप्त विश्व के कण-कण में॥
है राम, श्याम में शक्ति वही-राधा में है, सोता में है।
वह एक विलक्षण अटल-तेज-मानस में है, गीता में है॥
वह गिरि में है, सरिता में है, तरुओं में है, निर्जन-बन में।
है वही योगियों के उर में, मन्दिर में, मूरति में, मन में॥
उसका प्रतिबिम्ब विमल-विधु में, उसकी ज्वाला अंगारों में।
उसकी प्रतिभा दिनकर में है, उसका प्रकाश है-तारों में॥
उसकी उपमा-उपमान वही वह अविचल चेतन है, सत है।
वह स्थित है सब में समान, सब कुछ उसके अर्न्तगत है॥