एक-ज्योति

September 1941

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(ले. श्री लक्ष्मीनारायण गुप्त ‘कमलेश’)

जिसका विस्तार युगों से है, परिमित है, वही एक-क्षण में।

वह सर्व भूतमय एक ज्योति है, व्याप्त विश्व के कण-कण में॥

है राम, श्याम में शक्ति वही-राधा में है, सोता में है।

वह एक विलक्षण अटल-तेज-मानस में है, गीता में है॥

वह गिरि में है, सरिता में है, तरुओं में है, निर्जन-बन में।

है वही योगियों के उर में, मन्दिर में, मूरति में, मन में॥

उसका प्रतिबिम्ब विमल-विधु में, उसकी ज्वाला अंगारों में।

उसकी प्रतिभा दिनकर में है, उसका प्रकाश है-तारों में॥

उसकी उपमा-उपमान वही वह अविचल चेतन है, सत है।

वह स्थित है सब में समान, सब कुछ उसके अर्न्तगत है॥


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