थियोडर पार्क

September 1941

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विद्वान थियोडर पार्कर का नाम शायद आपने सुना होगा। उसका पिता बहुत गरीब था, इसलिए उसे बचपन से ही कठिन परिश्रम में जूझना पड़ा। वह हल चलाते समय अथवा घास खोदते वक्त भी अपना पाठ याद करता रहता। जब मौका मिलता पुस्तकें पढ़ने बैठ जाता। किताबें खरीदने को भला वह पैसा कहाँ पाता? इसलिए दूसरे लड़कों की खुशामद करके उनकी फटी पुरानी किताबें माँग लाता। एक पुस्तक की उसे बहुत सख्त जरूरत थी, परन्तु बहुत कोशिश करने पर भी वह कहीं मिल न सकी। एक दिन उसे एक उपाय सूझा। रात को चुपके से उठ कर जंगल में गया और जंगली बेरों को तोड़-तोड़ इकठ्ठा किया और उन्हें बोस्टन नगर की हाट में बेच आया इन्हीं पैसों से उसने वह पुस्तक खरीद ली। एक दिन पाकर ने बड़ी विनय के साथ पिता से प्रार्थना की कि- क्या आप मुझे एक दिन की छुट्टी दे सकते हैं? गरीब पिता ने अपने छोटे बालक की ओर आश्चर्य से देखा। उन दिनों उसे खेती का बहुत काम करना था। फिर भी पिता बालक की याचना को अस्वीकृत न कर सका उसने स्वीकृत सूचक सिर हिला दिया।

बालक बहुत सवेरे उठा और पाँच कोस पैदल चल कर हाबर्ट कालेज में जा पहुँचा। उसने वहाँ अपना नाम लिखाया और खुशी-खुशी शाम को घर वापिस लौट आया। उसने घर आकर अपने कालेज में प्रवेश होने की बात बताई। पिता बालक के प्रयत्न पर प्रसन्न हुआ, पर आर्थिक चिन्ता की रेखा उसके चेहरे पर झलक आई। बालक उसे ताड़ गया। पार्कर ने कहा पिता जी आप चिन्ता न कीजिये, मैं न तो आपका काम करना छोड़ूंगा और न खर्च के लिए पैसे मांगूंगा। मैंने कालेज में इस शर्त के साथ नाम लिखाया है कि घर पर पढ़ता रहूँगा और अन्तिम परीक्षा में बैठ कर सनद ले लूँगा। पिता की आँखें छलक आई। यह बालक कठोर परिश्रम कर पिता का हाथ बंटाता और इधर-उधर से पुस्तक इकट्ठी करके पढ़ता। अन्त में यह महापुरुष अपने देश का उज्ज्वल रत्न साबित हुआ।


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