शिवोऽहम्, शिवोऽहम्

September 1941

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(श्री स्वामी रामतीर्थ का वचनामृत)

“शिवोऽहम्” तो सभी कहते हैं, क्या भेदवादी क्या अभेदवादी, क्या भक्त, क्या कर्मकाण्डी, क्या हिन्दू और क्या कोई। सब ही अपने दिल के भीतर अपने आपको बड़े से बड़ा मानते हैं और साबित करते हैं। वह भेदवादी भक्त जो अभी मन्दिर में देव के सामने अपने नई ‘नीच, पापी, अधम, मूर्ख’ कहते-कहते थकता नहीं था, जब बाहर बाजार में निकला तो उसे कोई “अरे ओ नीच” कह कर पुकारे तो सही, फिर देखो तमाशा, कचहरियों में क्या-क्या गति होती है। अन्दर का ‘शिवोऽहम्’ कभी मर ही नहीं सकता। मरे क्यों कर, साँच को आँच कहाँ? पर हाँ, अपने तईं देहादि रख कर जो शिवोऽहम् का मुलम्मा ऊपर चढ़ाना है यह तो पौंड्रक की तरह झूठा विष्णु बनना है। इस प्रकार से ‘वासुदेवोऽहम्’ अब दुनिया अहंकार की बोली द्वारा बोल रही है। यह तो मैले ताम्र के पात्र में पायस पकाना है और ज़हर से मर जाना है। वेदान्त का उपदेश यह है कि क्षीर तो पिया जाए, पर मैले ताम्र पात्र में नहीं। देहाभिमान अन्दर और शिवोऽहम् का ऊपर-ऊपर से मुलम्मा तो नहीं बल्कि शिवोऽहम् अन्दर हो और अन्दर से अग्नि की तरह भड़क-भड़क कर देहाभिमान को जला दे। यह हो गया तो देहाभिमान, कृपणता, भय, शोक की ठौर कहाँ? इस भेद को (नहीं अभेद की) जिसने जाना, निधड़क हो गया, मूर्तिमान दाता बन गया, बल, शक्ति और तेज का दरिया नद हो निकला। कोई भी बल कहाँ से आता है? उस उदारता से जिसमें शरीर और प्राण की बलि देने को हम तैयार हों, सिर को हथेली पर लिये चलें।

पर्वत के शिखर से राम पुकार कर सुनाता हैः- संसार को सत्य मान कर उसमें कूदते हो, फूस की आग में पच-पच कर मरते हो, यह उग्र तपस्या क्यों? इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होगा। देहाभिमान के कीचड़ में, अपने शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप को भूल कर, फँसते हो, दलदल में धँसते हो, गल जाओगे। ब्रह्म को बिसार कर दुःखों को बुलाते हो सिर पर गोले बरसाते हो, गुल (पुष्प)! जल जाओगे। सत्य को जवाब देकर मिथ्या नाम रूप में क्यों धक्के खाते हो? जिनको श्वेत मक्खन का पेड़ा समझे हो, यह तो चूने (कलई) के गोले हैं खाओ तो सही, फट जायगी अन्तड़ियाँ, झूठ बोलने वाले का बेड़ा गरक। मैं सच कहता हूँ, दुनिया की चीजें धोखा हैं। होश में आओ, ब्रह्म ही ब्रह्म सत्य है। ज्येष्ठ, आषाढ़ के दोपहर के वक्त भाड़ की तरह तपे हुए मरुस्थल में मंकि मुनि जब अति व्याकुल हो रहा था, और उसने पास के एक ग्राम में जाकर आराम करना चाहा, उस समय वशिष्ठ भगवान् के दर्शन हुए। वशिष्ठ जी कहते हैं- बेशक इस गर्मी में हजार बार जल मर-पर वहाँ मत जा, जहाँ तन के तनूर में पड़ेगा। यहाँ पर तो शरीर ही जलता है, वहाँ अविद्या के ताप से सारे का सारा सड़ेगा।

भाई! मुर्दे को उठा कर जो चिल्लाया करते हो ‘राम नाम सत्य है’ आज पहले ही समझ जाओ, अभी समझ लो तो मारोगे ही नहीं, मरने के वक्त गीता तुम्हारे किस काम आवेगी? अपनी जिन्दगी को ही भगवन् का गीत बना दो। मरने वक्त दीपक तुम्हें क्या उजाला करेगा? हृदय में हरि ज्ञान प्रदीप अभी जला दो।

कृष्ण त्वदीय पद पंकज पञ्जरान्ते, अद्यैव मेविशतु मानस राजहंसः। प्राण प्रयाण समये कफ़ वात पित्तैः; कण्ठावरोधन विधौ स्मरणं कुतस्ते॥

हे भगवान् कृष्ण! आपके चरणकमल के पिंजड़े में मेरा मन रूपी राजहंस आज ही बैठ जावे क्योंकि प्राण त्यागते समय कफ़ वात और पित्त से कण्ठ रुक जायेगा और हमें इस कारण आपका स्मरण कैसे हो सकेगा।

पतितः पशुरपि कूपे निःसर्तु चरण चलनं कुरुते।

धिक्त्या चित्तभवाब्धे रिच्छामपि नोविभर्षिनिःसर्तुम्॥

कुएं में गिरा हुआ पशु भी वहाँ से निकलने को पैरों को चलाते हैं, परन्तु हे मन, तू उस संसार से मिलने की इच्छा तक नहीं करता, इसलिये तुझे धिक्कार है।


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