हिमालय के महापुरुष

September 1941

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हिमालय प्रदेश सच्चे योगी महात्माओं का चिरकाल से खास केन्द्र है। इस पुण्य प्रान्त में जैसे महान् योगी हो चुके हैं वैसे अन्य प्रान्तों में बहुत ही कम हुए हैं। अब भी वहाँ बड़े-बड़े महात्माओं के वर्तमान होने की बात सुनी जाती है। सुना जाता है कि तिब्बत का ज्ञान गंज योगाश्रम योगियों का एक महान शिक्षालय है, जिसमें सैकड़ों महान योगी अब भी वर्तमान हैं। हिमालय में कई योगियों के दर्शन भाग्यवान पुरुषों को हो जाते हैं। स्वामी माधव तीर्थ जी दण्डी गत वर्ष वहाँ गये थे। उन्हें एक महात्मा मिले। आपने उस घटना को काशी के ‘पन्था’ नामक बंगला-पत्र में लिखा है, उसका मर्म इस प्रकार है-

“इस शरीर ने गौरी गिरी की परिक्रमा करने के लिए अक्षय तृतीया के दिन काठगोदाम से यात्रा की। शैल पुत्री तीर्थ का दर्शन करते समय वहाँ भी कतिपय महापुरुषों के दर्शन हुए।

यह शरीर गौरी तीर्थ में जिस पर्वत पर गया, वह हिमाचल प्रदेश का एक उत्कृष्ट स्थान है। स्वयं गौरी ने इस पर्वत पर शिव की आराधना की थी। जगत् में ऐसा कोई कवि या कलाविद पैदा नहीं हुआ, जो हिमाचल के सौंदर्य को व्यक्त कर सके। केवल यह सौंदर्य ही तीर्थ यात्रियों की पथ की सारी क्रान्ति दूर कर देता है।

और भी दो एक पहाड़ी गौरी के दर्शन के लिए जा रहे थे। उनसे मुलाकात होने पर इस शरीर ने पूछा कि यहाँ कोई साधु-महात्मा हैं कि नहीं? अगर हैं तो कहाँ पर? उन लोगों ने उंगली का इशारा करके तीन-चार स्थान दिखा दिये। वे सब प्रायः 3-4 कोस की दूरी पर थे। फिर दिखाकर उन्होंने कहा उस पहाड़ पर कभी-कभी एक महापुरुष आकर रहते हैं। जो स्थान समीप में दिखाया, वह भी बहुत ऊँचा था, परन्तु महापुरुष के दर्शन की आकाँक्षा अत्यन्त बलवती होने के कारण इस शरीर ने उस पहाड़ पर चढ़ना शुरू कर दिया। वहाँ पहुँचने पर महात्मा के दर्शन मात्र से ऐसा मालूम हुआ कि आप कोई महापुरुष हैं, दिव्य दर्शन हैं।

एक छोटी सी गुफा में वे महात्मा पद्मासन लगा कर बैठे थे। नेत्र बंद थे, श्वास भी शायद बंद था। सामने पाँच-छः हाथ की दूरी पर एक सूखा हुआ वृक्ष पृथ्वी पर पड़ा था, उसमें आग लगा दी गई थी। इस शरीर की उपस्थिति की बात शायद महात्मा जी को मालूम नहीं हुई। परन्तु झोला कम्बल रख कर नमो नारायण का उच्चारण करते ही उन्होंने नेत्र खोल कर इस शरीर को देखा और उसी क्षण पुनः नेत्र बन्द कर लिये।

उस समय मध्याह्न का समय प्रायः बीत चुका था। सूर्य देव पश्चिम आकाश में ढल चुके थे। प्रातः काल से पर्वत पर चढ़ते-चढ़ते शरीर भूख, प्यास से क्लाँत हो रहा था। पर्वत पर पहाड़ियों के घर हैं, परन्तु शरीर वहाँ जाने में अशक्त था। झोला, कम्बल वहीं रख कर, झरने में हाथ मुँह धोकर, अंजुली पानी पीते ही शरीर बहुत कुछ स्वस्थ हो गया। कम्बल बिछा कर गुफा के बाहर आसन लगा कर यह शरीर आराम करने लगा। महात्मा जी के यहाँ भोजनादि का कोई बखेड़ा किसी समय नहीं होता, यह बात उनके सामान को, जो वहाँ था देखने से ही मालूम होती थी। अतएव सहज ही धारण हो गई थी कि वे भोजन नहीं करते। दर्शन तो हुए, परन्तु दर्शन का आनन्द नहीं मिला, क्योंकि वे मौन थे।

अन्य दिनों इस शरीर के झोले में चने का सत्तू और गुड़ रहता था। देव संयोग से यह भी आज नहीं था, अतएव यह निश्चित था कि आज भोजनादि की कोई व्यवस्था न हो सकेगी। सोचा सन्ध्या के पहले बस्ती में जाने पर जो होगा सो होगा नारायण का स्मरण करते हुए समीप बैठकर महात्मा के दर्शन करने में समय बिताने लगा उस समय शरीर भूख के मारे व्याकुल था।

जहाँ पर यह शरीर था वहाँ से बहुत दूरी तक दिखाई देता था। घास चरती हुई गाय जिस तरह स्वाभाविक ढंग से घूमती है, उसी तरह घूमती फिरती एक सफेद गाय महात्मा की गुफा के द्वार पर आकर पीछे के दोनों पैरों को थोड़ा फैला कर खड़ी हो गई। उस समय महात्मा ने नेत्र खोल कर मुस्कराते हुए गाय की ओर देखा। गाय के एक थन से खूब बारीक धार से दूध झरने लगा। यह शरीर जैसे मंत्र द्वारा चालित हो, इस तरह अपने आसन से उठ खड़ा हुआ। महात्मा के आसन के पास काठ का एक बड़ा सा पात्र उलट कर रक्खा था। उसे उठा कर उस शरीर ने गाय के थन के नीचे रख दिया, उस समय गाय के चारों थनों से दूध अबाध गति से उस पात्र में झरने लगा। देखते-देखते वह भर गया। प्रायः 4-5 सेर दूध होगा, महात्मा के सामने वह रक्खा गया, इस शरीर के साथ जो जल पात्र था वह भी थन के नीचे रक्खा गया। तब महापुरुष ने ‘माई! माई!’ कह कर दो बार उच्च - स्वर से पुकारा। उसके क्षण भर बाद हवा का शब्द सुनाई पड़ा, मानों दूर से आँधी आती हो। यह शब्द कहाँ से आ रहा है, कुछ समझ में नहीं आया। क्षण भर बाद मालूम हुआ कि महापुरुष की नासिका से श्वास बाहर निकल रहा है। देखते-देखते उनका स्थूल शरीर अत्यन्त कृश हो गया। इसके बाद उन्होंने दूध का पात्र मुँह में लगाया और सारा दूध चढ़ा गये। इस बीच दूसरा पात्र भी भर गया और वे उसे भी खाली कर गये। पुनः उनका पात्र स्तन की नीचे रक्खा गया और दूध से भर जाने पर वे उसे भी पी गये। इस प्रकार दूध के तीन पात्र वे पी गये। अब दोनों पात्रों का दूध पीने के लिये महात्माजी ने इस देह को इशारा किया। आदेश होते ही कमंडल का दूध पी लिया गया महापुरुष के पात्र का भी कुछ दूध पिया गया। पेट में और स्थान न रहा। अपूर्व स्वाद था। दूध के ऐसे माधुर्य रस का अनुभव और कभी नहीं हुआ था। असीम तृप्ति हुई। महात्मा के दर्शन से जो तृप्ति आज हुई, उस से शरीर धारण करना पूर्ण सार्थक हो गया। उनके मुख से निकली हुई कोई बात सुनने को नहीं मिली। बहुत देर तक इस आशा में शरीर बैठा रहा संध्या से पहले वे आसन से उठ कर झरने की ओर गये जहाँ पर यह शरीर था वहाँ से झरने तक अच्छी तरह दिखाई पड़ता था। वहाँ से वे अदृश्य हो गये। किसी ओर दिखाई न पड़े। बहुत खोजने पर भी फिर दर्शन नहीं हुए। संध्या समय बस्ती में जाकर इस शरीर ने आश्रय लिया। दो-तीन दिन और दर्शन की चेष्टा की गई। पर्वतीय लोगों ने कहा बीच-बीच में वे महापुरुष वहाँ आते हैं। कभी-कभी दूसरे पहाड़ पर उनका आसन पड़ता है। जो दर्शन करता है, उसका जीवन धन्य है। नारायण का स्मरण करते हुए बहुत खोज की गई, परन्तु फिर दर्शन नहीं हुए।

-कल्याण


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