खोज में

September 1941

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(श्री आनन्दकुमार चतुर्वेदी ‘कुमार’ छिबरामऊ)

पथिक! तुम्हें क्या हो गया है? देखो पश्चिम दिशा से काले मेघों के झुँड चले आ रहे हैं, छोटी-छोटी बूंदें भी पड़ रही हैं, चिड़िया वनों को छोड़ कर अपने घोंसलों में आ रही हैं, छोटे-छोटे बच्चे अपने झूलों को उतार कर अपने घर की ओर भाग रहे हैं और तुम प्रस्थान कर रहे हो!

बूँदें जोरों से बरसने लगी हैं, चारों ओर रिमझिम-रिमझिम का शब्द सुनाई देता है, वृक्षों का हिलना बंद हो गया है। प्रकृति में आज एक अनोखी छटा छाई हुई है। पपीहा की पी-पी और कोयल की कू कू किसके मन को आज नहीं लुभा रही है। पथिक चलो थोड़ा विश्राम कर लो।

बालाओं ने अपना गान प्रारंभ कर दिया है, वीणा की ध्वनि से घर गूँज उठा है, घुँघरुओं का स्वर बूँदों के स्वर से मिल कर एक अनोखी लहर का संचार कर रहा है। पथिक! क्या यह तुम्हारे हृदय पर कुछ भी प्रभाव नहीं डालती। आओ, इस समय कहाँ जाओगे।

आह! तुम हँस रहे हो, तुम किस ओर अपनी दृष्टि लगाये हो, तुम्हारी इस मुस्कान में क्या रहस्य छिपा है, क्या यहाँ तुम्हें शान्ति न मिलेगी? तुम मौन क्यों हो?

पथिक जाओ, मगर यह न भूलना कि तुम्हारा मार्ग अत्यंत संकीर्ण है, वह सरिता पानी के कारण वेग से बह रही मार्ग में अनेक सुवासित पुष्प तथा कंटक मिलेंगे, सावधान रहना, क्या ही अच्छा होता, कि तुम कुछ देर विश्राम करते, परन्तु नहीं, तुम तो किसी और ही की खोज में हो।


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