(वि. रामस्वरुपजी ‘अमर’ तालबेहट)
(4 जून के अंक से आगे)
पुरुषों के क्यों बाल विशेष होते हैं, और स्त्रियों के क्यों कम होते हैं? इस विषय में पाश्चात्य विद्वानों की राय है कि- स्त्री और पुरुष के जीवन में जिस समय युवावस्था का आगमन होता है, उस समय पुरुष शक्ति का विकास मुख, छाती इत्यादि स्थानों से होता है यानी पुरुषों की छाती और मुखादि अंगों पर केश उगने लगते हैं, लेकिन स्त्रियों में इन स्थानों पर बाल का उगना नहीं देखा जाता है। स्त्रियों की शक्ति का विकास मासिक ऋतु धर्म, स्तनों में दुग्धागमन और जरायु की वृद्धि होता है। उनके नाम अंग्रेजी में क्रमशः “केटेबाँलिक” और ‘एजेबाँलिक’ हैं। इन्हीं दोनों भेदों से स्त्री पुरुषों की प्रकृति में विशेष अन्तर पाया जाता है। पुरुष स्वयं क्रियाशील और अपनी सहचरी की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाला तथा दूसरों के लिये अपनी शक्ति का ह्रास करने वाला है। लेकिन स्त्रियों में स्वयं क्रियाशीलता नहीं है। वे अपने सहचर के लिये निश्चेष्ट होकर मार्ग प्रतीक्षा करने वाली होती हैं। अपनी शक्ति को वे अन्तःस्थिर ही रखती हैं, पुरुषों में क्रियाशीलता होने से ज्ञान-विज्ञान के विषयों में अधिक प्रवेश कर सकते हैं और कर भी जाते हैं। उनके मस्तिष्क में बाह्य संसार के संस्कार बहुत जल्दी प्रविष्ट हो जाते हैं। इसी से वे विचारधारा पर चलते-चलते अपने सिद्धान्त की सिद्धि पर पहुँच जाते हैं। किन्तु स्त्रियों में स्वकतृत्व न होने से उनमें धैर्य का बाहुल्य रहता है, इसी से वे अपने विश्वासपात्र मनुष्य पर अपनी आत्मा स्वयं खुली रख देती हैं, यानि उन्हें अपने आन्तरिक विचारों को बताने में अपने प्रेमी से कोई दुराव नहीं होता है। इसी से उनमें पुरुषों के बनिस्बत प्राकृतिक प्रेरणा और मनोवेग ज्यादा पाया जाता है। इस प्रकार स्त्री और पुरुष के स्वभाव में भेद देखा और पाया जाता है। यह विषय केश निर्गमन के संबंध में है जब यौवन विकास के साथ ही साथ केश वृद्धि का सम्बंध है, तब जिस प्रकार किसी वृक्ष की शाखा के काट डालने पर उसमें नई शाखाओं के निकलने का वेग बढ़ता है, ठीक उसी तरह ही प्रतिदिन या बारम्बार बाल बनवाने से या हजामत कराने से आन्तरिक काम शक्ति का आविर्भाव स्नायुओं में प्राचुर्यता के साथ होता जाता है इसी से तो ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासी आदि पुरुषों के लिये केश धारण विधि शास्त्रों में प्रतिपादित की गई है। केश-वृद्धि से ही काम सम्बंधी नसों की शक्ति का स्वभाविक ह्रास होता है। मनुष्य इसी से सहज में ही संयमी बन सकता है। संन्यासी कुटीचक और बहूदक अवस्थाओं का अतिक्रमण करके जब ‘हंसत्त् अवस्था पर पहुँच जाता है तब ‘सोऽहम्’ भाव में उसे काम विषयक चिन्ता ही नहीं रहती है। इससे दण्डी संन्यासी केश मुण्डन करा लेते हैं। गृहस्थ दशा में सम्पूर्ण बालों का रखना असंभव सा है इसीलिये तो ‘गोखुर” के बराबर शिखा मस्तक पर रखवा कर बाकी के बालों को मुण्डन कराने की शास्त्रों में आज्ञा दी गई है। इसमें भी बहुत लाभ है। इतनी शिखा के रखाने से शिर के अग्र भाग और पीछे का थोड़ा-थोड़ा भाग क्रमशः ढका रहता है। यहाँ मस्तक के ऊपर शिखा कहलाती है। योग शास्त्र के सिद्धान्तानुसार शिर पर ब्रह्मरन्ध्र और ब्रह्मरन्ध्र के बराबर सहस्रदल कमल में परमात्मा का केन्द्र स्थान है और डा. के सिद्धान्त से शिर के उस शिखा भाग में क्चह्ड्डद्बठ्ठ ष्टद्गद्यद्य या मस्तिष्क भाग में काम का स्थान यानी केन्द्र है। इस लिये इन दोनों अंशों में शिखा रहने से पूर्व लेखानुसार आत्मिक शक्ति स्थायी बन जाती है। तथा चिन्ता शक्ति दबी रहती है, यह निश्चय है।