एक विद्वान का कथन है कि जो अपने को जीव मानता है, वह जीव है और जो अपने को शिव मानता है, वह शिव है। सचमुच हम वैसे ही बन जाते हैं, जैसा कि अपने बारे में सोचते हैं। जो कहता है कि मैं अभागा हूँ, मेरे ऊपर बुरे दिनों का फेर है, दुनिया मेरे विपरीत है, कोई मेरी सहायता नहीं करता। अवश्य ही उसे उन बातों का सामना करना पड़ता है। चाहे आज इन बातों को बढ़ा-चढ़ा कर कहता हो, चाहे आज उस पर वैसी विपत्ति न हो, पर कल जरूर वह सब बात पूर्ण रूप से सत्य होने लगेंगी।
मनोविज्ञान शास्त्र कहता है कि जो बात बार-बार मन में उठती है, वह विश्वास का रूप धारण कर लेती है और विश्वास के आधार पर शरीर एवं मन के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। कहा गया है कि- “शदृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी” जिसके मन में जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि मिलती है।
जो मनुष्य अपने ऊपर अविश्वास करते हैं। जिसे अपनी योग्यता और कार्य शक्ति पर विश्वास नहीं वह न तो कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकेगा और न उसे कहीं कोई विशेष सफलता मिलेगी। मर जाने के बाद मिट्टी की तरह पड़े रहने वाले शरीर की अपनी निजी शक्ति कुछ भी नहीं है। वह तो चैतन्य सत्ता द्वारा प्रभावित होकर काम करता है। यदि तुम्हारी चैतन्य सत्ता निर्बल है, तो बेचारे मृत पिण्ड शरीर से यह आशा नहीं की जा सकती कि उसके द्वारा किन्हीं महत् कार्यों का सम्पादन होगा।
मानव प्राणियों की बनावटें और शारीरिक ढाँचे आपस में मिलते जुलते हैं, उनमें कोई खास फर्क नहीं होता। फिर क्यों एक दूसरे में जमीन आसमान का अन्तर देखने में आता है? कारण यह है कि एक की मनोभावनाएं दूसरे से भिन्न हैं। एक सी संपत्ति वाले, एक सी विद्या वाले या एक से शरीर वाले दो मनुष्यों में भी बड़ा भारी अन्तर होता है। उनके अपने विश्वास, विचार और स्वभाव जैसे होते हैं, संसार में उनका आदर उसी दृष्टि कोण से होता है। लोग उनका मूल्य उसी हिसाब से आँकते हैं शरीर विचारों का दर्पण है। दुष्ट और साधु, दुराचारी और धर्मनिष्ठ, आलसी और उत्साही, सत्यवक्ता और मिथ्यावादी इन भिन्न स्वभाव के मनुष्यों को पहचानना कुछ भी कठिन नहीं है। उनकी सम्पूर्ण चेष्टाएं और सूक्ष्म आकृतियाँ उसी ढाँचे में ढल जाती हैं। जिसे जरा भी तमीज है, वह आसानी से पहचान सकता है कि कौन मनुष्य क्या है? और उसका कितना मूल्य है। बनावट अधिक समय तक नहीं ठहर सकती। कपड़े और आभूषणों से किसी को माननीय नहीं बनाया जा सकता। गुणवान मनुष्य चाहे वह फटे हुए कपड़े ही क्यों न पहने हो पूजा जायेगा, वह जहाँ जायेगा वहीं अपनी सुगन्ध से लोगों के हृदयों को प्रफुल्लित कर देगा
वे दरिद्र हैं, जो दरिद्रता के विचार करते हैं, उसी प्रकार वे दुष्ट हैं, जो दुष्टता के विचार करते हैं। तुम क्या हो? यदि इस बात को जानना चाहते हो, तो आत्मचिन्तन करके देखो कि तुम कैसे विचार करते हो। जिस प्रकार की इच्छा और आकाँक्षाएं, तुम्हारे मन में उठती रहती हैं, अवश्य ही तुम वह हो। इस समय बाह्य परिस्थितियां दूसरी भले ही हों, पर निकट भविष्य में तुम उसी ढाँचे में ढल जाओगे। विचार साँचे हैं और जीवन गीली मिट्टी, दोनों एक साथ मिले हुए हैं। ऐसा हो नहीं सकता कि साँचे में रखी हुई मिट्टी पर वैसी ही आकृति अंकित न हो जाय। हम देर सबेर में पूर्णतः वैसे ही बन जाते हैं, जैसा कि सोचते हैं। एक विद्वान का कथन है कि यदि मुझे मालूम हो जाय कि तुम क्या सोचते हो, तो मैं बता सकता हूँ कि क्या हो और भविष्य में क्या बन जाओगे
जो जैसा सोचता है वह वैसा ही है या हो जायेगा इसलिये तुम जैसे बनना चाहते हो, वैसे ही विचारों को अपने मस्तिष्क में स्थान देना आरंभ कर दो।