बहुत गई थोड़ी रही?

September 1941

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(ले. मंगलचंद भण्डरी ‘मंगल’ अजमेर)

राजा यहाँ बुद्धिमान था, वहाँ वह विचारवान और न्याय वान भी था! प्रजा को अपने प्राणों से अधिक प्यार करता था। उसे अपनी प्रजा के सुख-दुःख का बड़ा ध्यान रहता था। अतः यदा-कदा रात को भी भेष बदल प्रजा की दशा जानने निकल जाता था।

एक दिन कोतवाल को साथ लेकर वह सारे पहर का चक्कर लगा रहा था, कि रास्ते में राजा ने एक मकान में रोशनी जगमगाती हुई देखी। राजा ने सोचा दो बजने आये हैं और अभी तक इसमें से इतनी तेज रोशनी कैसे आ रही है। उसे सन्देह हुआ वह मकान के पास जा आहट लेने लगा। राजा ने एक छेद में से झाँका तो दिखाई दिया कि एक सुन्दर लड़की कह रही है नींद नहीं लेती हूँ, सब कुछ मैं करती हूँ। इतने पर भी मेरी माँ मुझे डाँटती और सारी कमाई भी अपने पास रखती है। इसलिये मैं तो कल ही माँ को जहर दे मार डालूँगी।” इतना कह कर वह लड़की बैठ गई।

राजा को अधिक जानकारी प्राप्त करने का कौतुहल बढ़ा, वह छेद में आँखें लगा कर दीवार के सहारे अधिक सावधानी से खड़ा हो गया। उसने देखा कि एक साधु वेश धारी युवक वहाँ उपस्थित है और कह रहा है कि बाई! मैं भी तुम्हारी ही तरह फंसा हूँ। गुरु जी रात दिन चैन नहीं लेने देते। यहाँ तक आने का अवकाश बड़ी मुश्किल से कभी-कभी निकाल पाता हूँ। कल रात को मैं भी उनका गला घोट दूँगा जिससे मार्ग की सारी बाधा उठ जाय। इसी प्रकार एक तीसरे उपस्थित सज्जन जो देखने में कोई सेठ से प्रतीत होते थे कह रहे थे कि- मेरा लड़का जवान हो चला है। और मेरे मार्ग में रोड़ा अटकाता है, अब उसे जल्लादों के सुपुर्द कर दूँगा, ताकि मेरी राह साफ हो जावे।

तीनों के कथन जब राजा सुन चुका तो उसे बड़ा दुःख हुआ और अपने साथी कोतवाल से पूछने लगा कि- प्रियवर! कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे कल तीन व्यक्तियों की हत्या होने से रुक जावे और भविष्य में इनका जीवन सुधर जावे। कोतवाल ने बताया कि- श्रीमन्, यह लोग अपनी मृत्यु को भूल गये हैं, और समझते हैं कि शायद हम सदैव ही जीवित रहेंगे, इसीलिए यह ऐसे कुकर्म करने पर उतारू हैं। इसमें यह सेठ जी तो अपनी पुत्र वधू तक पर पाप दृष्टि रखते हैं, पुत्र के समझाने पर अपना आचरण सुधार कर परलोक साधना में प्रवृत्त होना तो दूर रहा, वरन् अपने इन्द्रिय स्वार्थ पर आत्मज-पुत्र तक का बलिदान करने को तैयार हो गये। इन लोगों को शरीर की नश्वरता का बोध हुए बिना सद्गति प्राप्त नहीं हो सकती।

दूसरे दिन राजा ने एकान्त कमरे में साधु सेठ और वैश्या को बुलाया। राज्य कार्य तो प्रधान मंत्री को सौंप दिया और स्वयं उन तीनों के साथ एकान्त दरबार में जा बैठे। राजा ने वैश्या को आज्ञा की कि गाना गाओ, वैश्या ने गाना गाया पर राजा को वह पसन्द न आया। दूसरा गाना गाने की आज्ञा हुई वह भी पसंद न आया। शाम तक इसी प्रकार गाने होते रहे पर राजा की एक भी पसंद न आया। सब लोग भूखे प्यासे बैठे हुए थे, वैश्या भी थक गई थी, उसने कहा-महाराज! मुझे जितने गाने याद थे वह सब समाप्त हो गये अब बस, एक ही गाना शेष रह गया है। आज्ञा हो तो उसे भी सुना दूँ। राजा ने कहा- सुनाओ। वैश्या ने एक बड़ा मर्मस्पर्शी गाना गया- ‘बहुत गई, थोड़ी रही, यह भी बीती जाय।’ यह गान इतने वेदना भरे स्वर में गाया गया था कि राजा के मुँह से वाह! वाह। निकलने लगी। साधु और सेठ के पत्थर हृदयों पर तो अद्भुत असर पड़ा वे पानी की तरह पिघल पड़े और फूट-फूट कर रोने लगे। स्वयं वैश्या की आँखों से पश्चाताप की अविरल धार बह रही थी।

राजा ने गद्-गद् स्वर से कहा- अज्ञानी मित्रों! मैं तुम्हारी आन्तरिक दशा जान चुका हूँ। रोने से कुछ न होगा। इस पद के महत्व पर ध्यान दो- तुम्हारी आयु बहुत बीत गई है, और थोड़ी सी शेष रह गई है इसके बीतने में भी अब देर नहीं है। यह मनुष्य शरीर बार-बार नहीं मिलता। तुच्छ इन्द्रिय लिप्सा को छोड़ो और धर्म का पालन करो, जिससे तुम्हारा मनुष्य जीवन सफल हो। उन तीनों ही व्यक्तियों ने अपने जीवन की क्षणभंगुरता का अनुभव किया और भविष्य में सदाचार पूर्ण जीवन बिताने की प्रतिज्ञा कर ली।

तीनों जब राज दरबार से विदा हुए तो उन का जीवन दूसरे ही प्रवाह में बह रहा था। उनकी अन्तरात्मा इसी पद को गाती जाती थी-’बहुत गई थोड़ी रही, यह भी बीती जाय।”


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