संतोषी सदा सुखी

September 1941

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(श्री प्रेम नारायण शर्मा गिरदावर कानून गो, अम्वाह)

एक राजा को इस बात से बड़ा दुःख था कि उसके अपार सम्पत्ति और पुत्रादि होते हुए भी उसको सुख नहीं मिलता था। अतएव उसने अपने प्रधान मंत्री से पूछा कि क्या अपने राज्य में कोई ऐसा भी मनुष्य है जो सुखी हो? अगर हो तो उसे दरबार में उपस्थित किया जाय।

मंत्री जी यह आज्ञा पाकर सुखी मनुष्य ढूँढ़ने को निकले। एक स्थान पर देखते हैं, कि एक मनुष्य हाथी पर सवार है, अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण पहिने हुए है, उसके चारों तरफ बाजे बज रहे हैं और अनेकों पुरुष उसके साथ हाथी घोड़ों पर सवार आनन्द से जा रहे हैं, प्रधान जी यह सब देखकर बड़े प्रसन्न हुए और सोचा कि यह मनुष्य सुखी मालूम होता है इसको कल महाराज के पास ले चलेंगे। ऐसा विचार कर पीछे हो लिये और उसके घर पहुँचे जहाँ पर अनेकों दीप प्रकाश कर रहे थे, स्त्रियाँ मंगल गीत गा रहीं थी, रात को वहीं ठहरे। सुबह क्या देखते हैं, कि जो मनुष्य एक हाथी पर सवार बड़ा प्रसन्न चित्त बैठा था, आज बहुत उदास है और अपने पास बैठे हुए मनुष्यों से कह रहा है कि इस विवाह में मैं बहुत ऋणी हो गया। अब कैसे होगा। प्रधान जी यह देखकर वहाँ से चल दिये।

एक स्थान पर क्या देखते हैं, कि एक बड़े हृष्ट-पुष्ट महात्मा जटा रखाए बैठे हुए माला जप रहे हैं, प्रधान जी ने इनको देख कर सोचा कि यह सुखी मालूम होते हैं, इनको महाराज के पास ले चलेंगे वहाँ खड़े विचार करने लगे। इतने में दो साधु आए जो महात्माजी के चेले प्रतीत होते थे। दोनों आकर महात्माजी के पास लड़ने लगे कि महाराज इसने आपकी बिना आज्ञा बाजार में मिठाई खाई, दूसरा कहने लगा महाराज यह आटा कम लाया, और पैसे बचा लिये, महात्मा जी यह बातें सुन के बड़े दुखित हुए। प्रधान जी वहाँ से भी चल दिये।

एक स्थान पर क्या देखते हैं कि एक बहुत छोटा सा घर है और घर के सामने एक सुन्दर गाय बंधी हुई घास खा रही है। प्रधान जी उस गाय को देख रहे थे कि इतने में एक मनुष्य ने सिर पर रखा घास का गट्ठा घर के भीतर रखा, बैलों को बाँधा और इनके पास आकर हाथ जोड़कर बोला, महाराज आप कौन हैं? कहाँ से पधारे हैं? और क्या आज्ञा है? प्रधान जी बोले हम परदेशी हैं और आज यहाँ ठहरना चाहते हैं, उस मनुष्य ने कहा अहोभाग्य, आप ठहरिये और कह कर भीतर गया और एक छोटी सी खाट और बोरी लाकर बिछा दी। प्रधान जी बैठ गए।

प्रधान जी- तुम्हारा नाम क्या है और तुम्हारा जीवन किस प्रकार व्यतीत होता है?

किसान- महाराज, मेरा नाम संतोषी है, यह मेरा छोटा सा घर है, मेरी स्त्री है और एक पुत्र है, 12 बीघा खेती है। यह एक गाय है, यही मेरी गृहस्थी है। इसी से भगवान जीविका चलाते हैं, दोनों समय आनन्द से भोजन करते हैं, समय पर जमींदार का पोता दे देते हैं। महाराज हमारे पास द्रव्य तो है नहीं, परन्तु हम को किसी का कुछ देना भी नहीं है, और न हमें कुछ चाहिए भी, जो कुछ भगवान ने दिया है, हमारे लिये सब कुछ है।

प्रधान जी रात को वहाँ ठहरे प्रातःकाल उस मनुष्य को लेकर दरबार में उपस्थित हुए।

महाराज- क्या सुखी मनुष्य मिला?

प्रधान जी- हाँ महाराज उपस्थित है। महाराज एक किसान को देख कर बोले क्या यह सुखी है? प्रधान जी ने उत्तर दिया हाँ महाराज! इसी से पूछिये, यह स्वयं सब बता देगा।

महाराज से संतोषी ने वही अपना हाल जो उसने प्रधान जी से कहा था, कह दिया। प्रधान मंत्री ने भी अपनी खोज का सारा हाल कहा। महाराज उनकी बातें सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और कहा वास्तव में संतोषी ही सदा सुखी है।


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