सन् 40 अपनी बुरी भली प्रिय अप्रिय घटनाओं को उदरस्थ करता हुआ भूत के गर्त में सदा के लिए चला गया। अब उसका दर्शन हो सकना संभव नहीं है। उजड़े हुये राष्ट्र बसेंगे, बरबाद हुई बस्तियाँ सरसब्ज होंगी, आज का दुर्धर द्वेष कल शान्त हो जायगा। जिन वस्तुओं का अभाव हुआ है समय पाकर उनकी पूर्ति हो जायगी परन्तु यह सन् 40 किसी भी प्रकार देखने को न मिल सकेगा। चाहे कितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाय।
महारानी एलिजाबेथ का मृत्युकाल जब उपस्थित हुआ तब उन्होंने आर्तवाणी में गिड़गिड़ा कर समर्थ लोगों से याचना की कि यदि उनका जीवनकाल कोई थोड़ा और बढ़ा दे तो वे उसे विपुल सम्पत्ति दे देंगी। उस स्थान पर बड़े-बड़े डॉक्टर, प्रसिद्ध वैज्ञानिक, ख्याति नामा मनस्वी उपस्थित थे पर सब लाचार थे कोई एक क्षण के लिए भी उनका जीवन काल न बढ़ा सका। सारी फौज, तोपखाने, नौकर चाकर, खजाने, राज्य जहाँ के तहाँ पड़े, रहे एक तिनके की बराबर भी किसी से उनकी मदद न हो सकी। उस वक्त के दर्शन अनुभव कर रहे थे कि वास्तव में समय क्या वस्तु है और उसका कितना मूल्य है।
इन पंक्तियों के पाठक अवश्य ही वयस्क, युवा, अधेड़ या वृद्ध होंगे। आप लोग जब अपने जीवन की भूतकालीन स्मृतियों पर दृष्टि डालते होंगे तो हृदय में एक टीस उठती होगी, कलेजे में एक हूक पैदा होती होगी। जरा अपने बचपन की याद तो कीजिए , पुराने छोटे-छोटे साथी, खेलकूद का मजा, माता का लाड़प्यार, सब प्रकार की निश्चिन्तता, कितना सुन्दर समय था वह ! क्या वह दिन अब फिर नहीं मिल सकते? इच्छा होती है कि किसी प्रकार उन दिनों की एक झाँकी फिर कर सकें। किसी तरह आधी घड़ी के लिए वह बचपन फिर मिल जावे तो उसकी गोद में मचल मचल कर लोट लें। विरही जिस प्रकार अपने अज्ञान स्थान पर चले गये प्रेमी के लिए तड़फड़ाता है, हममें से हरएक भावुक व्यक्ति अपने भूतकाल की स्मृतियाँ में वैसी ही एक टीस का अनुभव करता है।
एक मजदूर बड़े परिश्रम से कुछ चावल कमाकर लाया था उन्हें खुशी-खुशी सिर पर रखकर घर लिये जा रहा था। अचानक उस बोरी में छेद हो गया और धीरे-धीरे उसकी गैर जानकारी में वे चावल पीछे की ओर गिरते गये, यहाँ तक कि कुछ आगे जाने पर उसकी बोरी ही खाली हो गई। जब देखा तो उसे होश हुआ। पीछे मुड़कर देखा तो फर्लांगों से धीरे-धीरे वह चावल फैल रहे थे और धूल में मिलकर दृष्टि से ओझल हो गए थे। उसने एक हसरत भरी निगाह उन दानों पर डाली और कहा-काश, मैं इन दानों को फिर से पा सकता। पर वे तो पूरी तरह धूल में गढ़ चुके थे वे मिल नहीं सकते थे। बेचारा खाली हाथ घर लौटा, दिन भर का परिश्रम, चावलों का बिखर जाना, पेट की जलती हुई ज्वाला इन तीनों की स्मृति उसे बेचैन बनाये दे रही थी।
हमारे जीवन का अमूल्य हार कितना सुन्दर है, हम इसे कितना प्यार करते हैं। माता खुद भूखी रहकर अपने नन्हें से बालक को मिठाई खरीदकर खिलाती है, बालक के मल-मूत्रों में खुद पड़ी उसे सूखे बिछौने पर सुलाती है। वह बड़े से बड़ा नुकसान कर दे एक कडुआ शब्द तक नहीं कहती। हमारा आत्मा हमारे जीवन से इतना ही नहीं बल्कि इससे भी अधिक प्यार करता है। जीवन सुखी बीते, उसे आनन्द और प्रसन्नता प्राप्त हो इसके लिए आत्मा पाप भी करता है, खुद भूखा रहकर उसे मिठाई खिलाता है। नरकों की यातना सहता है-खुद मलमूत्रों में पड़ा रहकर उसे सूखे बिछौने पर सुलाता है। यह प्यार माता के प्यार से किसी प्रकार कम नहीं है। जीवन को हम जितना प्यार करते हैं उतना क्या कोई किसी को कर सकता है। इस अमूल्य हार को हम प्राणप्रिय बनाए हैं। एक राजा कैद में पड़ा रहा था अपनी आंखें निकलवा दीं थीं पर हीरे को नहीं दिया था, इतना प्यारा हमें यह जीवन होता है।
पर हाय ! इसकी एक-एक मणि चुपके- चुपके मजदूर के चावलों की तरह बिखरती जा रही है। और हम मदहोश होकर मस्ती के गीत गाते हुए झूम झूमकर आगे बढ़ते जा रहे हैं। जीवन लड़ी के अनमोल मोती घड़ी,घंटे, दिन सप्ताह, पक्ष मास और वर्षों के रूप में धीरे- धीरे व्यतीत होते जा रहे हैं। एक ओर माता कहती है मेरा पूत बड़ा हो रहा है, दूसरी ओर मौत कहती है मेरा ग्राम निकट आ रहा है। बूँद-बूँद करके जीवन रस टपक रहा है और घड़ा खाली होता जा रहा है। कौन जानता है कि हमारी थैली में थोड़ा बहुत बचा भी है कि सब फल चुका। जो लोग इन पंक्तियों को पढ़ रहे है उनमें से कितने ही ऐसे होंगे जिन्हें सन् 41 की जनवरी देखने को न मिलेगी। फिर भी क्या हम इस समस्या पर विचार करते हैं? कभी सोचते हैं कि समय क्या वस्तु है, उसका क्या मूल्य है ? यदि हम नहीं सोचते और अपनी पिनक को ही स्वाँग सुख मानते है तो सचमुच गत वर्ष को गंवाना और नवीन वर्ष का आना कोई विशेष महत्व नहीं रखता ।
जब व्यापार में एक रुपए का घाटा पड़ जाता है तो बड़ी गंभीरता के साथ उस विषय पर विचार करते हैं परन्तु प्यारे पाठक क्या आप कभी इस पर भी विचार करते हैं कि आपके जीवन का इतना बड़ा भाग, सर्वोत्तम अंश किस प्रकार बर्बाद हो गया। क्या इसे इसी प्रकार नष्ट करना चाहिए था? क्या आपको इन्हीं कर्मों की पूर्ति के लिये ईश्वर ने भेजा था जिनको अब तक तुमने पूरा किया है? मालिक के दरबार में अपने काम का ब्यौरा देने के लिए क्या तुम तैयार हो? संभव है आज तुम्हें पंक्तियां व्यर्थ जंचती हों और इनका कुछ महत्व न मालूम होता हो परन्तु याद रखो वह दिन दूर नहीं है जब तुम्हें यही प्रश्न शूल की तरह दुख देंगे। जब जीवन-रस की अन्तिम बूँद टपक जाएगी और तुम मरे हुये खरगोश की तरह मृत्यु के कंधे पर लटक रहे होगे, तब तुम्हारी तेज निगाह, बुढ़ापा, अधेड़-अवस्था, यौवन, किशोरावस्था, बचपन और गर्भावस्था तक दौड़ेगी। अपने अमूल्य हार की एक- एक मणि धूलि में लोटती हुई दिखाई देगी तब अपनी मदहोशी पर तिलमिला उठोगे। भावुकों के हृदय में बचपन के दर्शनों के लिए जैसी टीस उठती है विधवा के हृदय में अपने स्वर्गस्थ प्राणप्रिय पति के दर्शनों की जैसी हूक होती है उससे करोड़ों गुनी तड़पन उन एक एक मोतियों को देखने की होगी जिन्हें आज व्यर्थ की वस्तु समझ कर लातों से ठुकरा रहे हो। आज तो ‘समय काटने’ की जरूरत पड़ती है। फालतू समय को निकालने के लिये ताश या फलैश खेलने की तरकीब सोचनी पड़ती है पर अभागे आदमी परसों पछताएगा इन अमूल्य क्षणों के लिए ! और शिर धुन धुनकर रोयेगा अपने इस आजीवन पर।
सन 40 को गये हुये अभी बहुत देर नहीं हुई। देखो वह अभी दिखाई देता है बेचारा गरदन मोड़ मोड़कर हमारी ओर देखता जाता है। आँखों में से आँसू बहाता जाता है। भरे हुये गले से कहता जाता है ‘प्रभु की परम प्रिय संतानों ! मैं जा रहा हूँ। इस निर्मल विश्व का यही रिवाज है जो आता है वह चला जाता है। मैं हंसता हुआ बड़े स्वागत सत्कार के साथ आया था और आँसू बहाता हुआ जा रहा हूँ। अब मेरी छाया भी किसी को देखने के लिये न मिलेगी । मैं जा रहा हूँ पर ओह! मेरे एक वर्ष के संगियों ! इतना कहे जाता हूँ कि जाना तुम्हें भी है। मेरी तरह तुम भी लौह बंधनों में बंधे हुये घसीटते चले जाओगे। इसलिये भूलना मत। मदहोशी में मत झूमना । सोचना कि मैं क्या हूं? और क्या से क्या बना हुआ हूँ।”
इधर नया वर्ष मुस्काते बालक की तरह झुककर हमें अभिवादन करता है और कहता है- ‘ये पछताने वालों घबराओ मत। जो बीत गया उसे जाने दो रंज मत करो । मैं तुम्हारा वफादार नौकर हाजिर हूँ। मेरे लिये हुक्म करो। जो बनना चाहते हो बना दूँगा जो पाना चाहते हो ला दूँगा।’
क्या यह संक्राँति हमें कुछ संदेश नहीं देती?