(श्री नारायण प्रसाद तिवारी ‘उज्ज्वल’ कान्हींवाड़ा)
गताँक से आगे---
मनुष्य के पास जब रुपयों का खजाना भरा रहता है, बिना सोचे खूब खर्च कर फिर खाली तिजोरी देखकर पश्चाताप करता है। किन्तु गया वक्त हाथ फिर आता नहीं! यही हाल श्वास का है कि निकल गई सो निकल गई, उसकी पूर्ति कृत्रिम गैस भरने से नहीं होती वायु ईश्वर और प्रकृति की उच्च देन है। उच्च गगन के धूलि कण तक, अनन्त नक्षत्र से लेकर जुगनू मण्डल तक, पशु पक्षी कीट पतंगादि इसका स्वच्छन्द उपयोग करते हैं, श्वास वायु का ठीक-ठीक उपयोग करो, उसका सच्चा मूल्य आँको, श्वास-श्वास में परमानन्द का रस पान करो।
पूर्व काल में अगणित योगीश्वर हो गये हैं जिन्होंने अपने स्वर योग द्वारा ध्यानस्थ होकर देह के भीतर के स्नायविक केन्द्रों को देख और समझ लिया था । वे अपनी श्वास क्रिया द्वारा आकाश में पक्षियों के समान उड़ते, जल पर थल के समान डुबते थे। वीर हनुमान जी पवन सुत कहलाये, इसी योग द्वारा सुमेरु पर्वत को लेकर कागज की पतंग समान उड़ाया था। वर्तमान रेडियो, तार आदि इसी वायु महत्ता के क्षुद्र चमत्कार हैं, सर्प स्वर साधक होने से ही दीर्घजीवी है और कुँभक शक्ति से बलशाली होने के कारण ही दीर्घ काल तक निराहार जीवन धारण कर सकता है। जब टहलने के लिये कोई किसी से कहता है कि चलो हवा खोरी को चलें तो लोग मज़ाक में कहा करते हैं कि मैं सर्प नहीं हूँ जो हवा खाने ही चलूँ, हवा खाना आसान नहीं है, योगी लोग ही हवा खाकर रह सकते हैं। कई लोग टहलने अवश्य जाते है किन्तु हवाखोरी का सच्चा आनन्द नहीं लेते, मुँह खोले, टेढ़ी गर्दन किये, कूबड़ झुकाये, ऊटपटाँग पैर पटकते हुए घूमने निकलने से उतना लाभ नहीं होता। जैसा कि होना चाहिये। अकड़े हुए सीधे मस्तक रखे मुँह बन्द किये हाथों को हिलाते चलना चाहिये।
स्वर योग द्वारा उपचार के बारे में मेरे ‘स्वर योग‘ शीर्षक लेख जो पिछले अंकों में प्रकाशित हो चुके हैं, पाठक भी पढ़ चुके हैं। जिसका लौकिक सिद्धान्त यह है कि कोई भी रोग आक्रमण पर स्वर बदल देना चाहिये। अब मैं कुछ वह ईश्वरीय नियम लिख रहा हूँ जिनका प्रयोग करने से मनुष्य स्वस्थ और दीर्घजीवी हो सकता है तथा मनुष्य के लिए प्रातःकाल से रात्रि को सोते समय तक किन-किन का पालन करना हितकर होगा।
कहावत है श्वड्डह्द्यब् ह्लश ड्ढद्गस्र ड्डठ्ठस्र द्गड्डह्द्यब् ह्लश ह्द्बह्यद्ग, द्वड्डद्मद्गह्य द्वड्डठ्ठ द्धद्गड्डद्यह्लद्धब्, ख्द्गड्डद्यह्लद्धब् ड्डठ्ठस्र ख्द्बह्यद्ग अथवा प्रातः समय की वायु को सेवन करत सुजान’ शास्त्रोक्त है कि ब्राह्ममुहूर्त में उठना हितकर है।
योजागारतमृचकामयन्ते योजागारतभुसामानि- वन्ति। योजागार तमयं सोम आह तबाह भस्मि सख्येनव्योकाः ॥
अर्थात्- जो मनुष्य प्रातःकाल में जाग उठता है उसको ऋचायें चाहती हैं, जो जगता है उसको ही स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं। जो मनुष्य जाग जाता है उसको ईश्वर कहता है कि हे मनुष्य, मैं तेरी मित्रता स्थिर करता हूँ।
अतएव जैसा कि पूर्व अंकों में कहा जा चुका है कि तिथि दिवस के अनुसार ब्राह्म मुहूर्त में शुभ चलित स्वर में उठकर शुद्ध मनोभाव से ईश्वर प्रार्थना करनी चाहिये तथा शौचादि से निवृत्त हो दैनिक कर्म में प्रवृत्त हों।
बिस्तर छोड़ने के पहले बिस्तर पर चित्त हाथ पैर फैला कर बदन ढीला करके लेट जाओ। दोनों हाथों की कोहनियों से तिल्ली व जिगर को दबाकर पैरों को सिकोड़ो और फिर फैला दो, इस प्रकार तीन चार बार करने के पश्चात 5-7 बार इधर-उधर करवट लेकर आलस्यता दूर करो, उसके बाद एक या दो मिनट तक पेट के बल लेटो और तुरन्त उपरोक्त स्वर नियम के अनुसार बिस्तर छोड़ दो। इस क्रिया से मल ढीला होगा, तिल्ली व जिगर की ताकत बढ़ेगी। यदि किसी को रुद्बक्द्गह् या स्श्चद्यद्गद्गठ्ठ की शिकायत है तो इसका प्रयोग कर बिना औषधि के लाभ प्राप्त करें, जिन्हें स्श्चद्यद्गद्गठ्ठ या द्यद्बक्द्गह् की बीमारी नहीं है, उन्हें यह प्रयोग नित्य प्रति करने की आवश्यकता नहीं है, सप्ताह में दो या तीन बार काफी है किन्तु बिस्तर छोड़ने के पहले पेट के बल अवश्य लेटना चाहिये, सोकर उठने तथा भोजन के पश्चात् दाहिने अंगूठे से 2-3 बार अपने मस्तिष्क को रगड़ना चाहिये, शास्त्र में इस क्रिया को ‘कपालभाटी’ कहते हैं, इसमें कफ दोष का नाश होता है। इसी प्रकार सोकर उठने तथा संध्या समय तर्जनी को कानों में डालकर खुजलाना चाहिये, शास्त्र में इस क्रिया को ‘कर्णमाटी’ कहा है, इस क्रिया से कर्ण रोग अच्छे होते हैं।
शौचविधि- पाठकगण कदाचित हँसेंगे कि शौच विधि के विषय में लिखने की क्या आवश्यकता है, यह तो बालक भी जानते हैं किन्तु मेरा निवेदन है कि बालक तो क्या युवक तथा वृद्ध भी उचित प्रकार से इस क्रिया को नहीं करते तथा मल शुद्धि ठीक न होने से जन समुदाय अनेक रोगों का शिकार बन रहा है अतएव इस पर प्रकाश डालना मैं उचित समझता हूँ।
न वेगितोऽन्य कार्यः स्यात्र बेगानीरयेद् बलात्।
काम शोक भय क्रोधान मनो वेगान्तिधारयेत्॥
अर्थात् मल मूत्र का वेग हो तो तुरन्त उसका त्याग करें, इससे पहले कोई अन्य कार्य न करे तथा साथ बलात्कार से (काँख कर) मलादि वेगों को न निकाले। काम, शोक, क्रोध, भय इत्यादि मन के वेगों को रोके ।
वस्तुतः सिद्धान्त यह है कि ‘सर्वे रोगा प्रजायन्ते वेगस्योदीर्णधारणत्’ अर्थात् समस्त रोग वेगों को जबरदस्ती से बलपूर्वक निकालने से तथा बलात्कार पूर्वक उनके धारण किये रहने से ही हो जाते है। अतः बुद्धिमान मनुष्य को वेगों के त्यागने और करने के विषय में सदैव रूपेण सावधान की परम आवश्यकता है।
लघुशंका वाम स्वर में और दीर्घ शंका दक्षिण स्वर में करना चाहिये, हाँ दीर्घशंका के समय लघुशंका दक्षिण स्वर में करने में दोष नहीं है। पाठकों से प्रार्थना है कि इसे केवल कपोलकल्पित न समझ परीक्षा करें। दक्षिण स्वर चलते समय की लघुशंका एक शीशी में,वाम स्वर चलते समय लघुशंका दूसरी शीशी में, दूसरी परीक्षा यह है कि चार छः महीने के शिशु को देखिये जब वह पेशाब करता है बाम स्वर चलेगा। तथा पाखाना फिरेगा तो दक्षिण स्वर चलेगा। यह स्वभाविक है। आरम्भ में सम्भव है, कुछ कठिनता प्रतीत हो किन्तु एक एक सप्ताह के अभ्यास के बाद स्वभावतः ठीक समय पर ठीक स्वर चलेगा।