प्रभु की माया

January 1941

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(ले॰ मूलशंकर नरभेराम, ओझा)

गताँक से आगे

जो जानता है कि मैं नहीं जानता, पर कहता कि मैं जानता हूँ, वह झूठा है। जो जानता है कि मैं अंशरूप में जानता हूँ और कहता है मैं जानता हूँ वह वास्तव में नहीं जानता है। कारण कि पूर्णरूपेण जानना असम्भव ही है। जो जानता है कि मैं नहीं जानता और कहता है कि मैं नहीं जानता हूँ वह सत्य कहता है और कहता है कि मैं ही जानता हूँ, वह कुछ जानता है पर वह भी अधूरा ही।

यह भी प्रभु की माया है।

जो जानता है कि मैं जानता भी हूँ और नहीं भी जानता और यही कहता भी है, वह औरों से अधिक जानता है। परन्तु जो जानता है मैं जानता भी हूँ और नहीं भी जानता, इसी कारण चुप रहता है, किसी से कुछ नहीं कहता, वह वास्तव में बहुत जानता है। इतना जानकर भी, जो प्रभु के प्रेम में सब कुछ भूल जाता हैं, वह प्रभु में लय हो जाता है, वह धन्य है। वही पूर्णतया जानता है, जो जानकर भी भूल गया है, जो भक्त है, अनन्य प्रेमी है। वह अब क्या बताये? उसके पास बताने की कोई बात ही नहीं है, उसके द्वन्द्व मिट चुके हैं, अब कौन बताये और किसे बताये, बताने को धरा ही क्या है।

यही प्रभु की माया है।


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