एक रोटी पर तसल्ली करो

January 1941

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एक रोटी पर तसल्ली करो

(महात्मा शेख सादी के गुलिस्तां से अनुवादित)

किसी नगर में दो भाई रहते थे। उनमें से एक राज-दरबार में नौकर था। दूसरा अपने हाथ से स्वतन्त्र मेहनत करके रोटी कमाता और पेट भरता था।

जो राज-दरबार में नौकर था वह अमीर हो गया। उसके घर में सोने की अशर्फियाँ और चाँदी के बर्तन जमा थे। कीमती जेवर और जवाहरातों से कोठरियाँ भरी हुई थीं। ऐशोआराम के सभी सामान उसके यहाँ मौजूद थे।

एक दिन उसने अपने छोटे भाई को देखा जो कड़ी मेहनत करके किसी प्रकार अपना पेट भरता था। उसने उससे कहा-भाई, तुम भी नौकरी क्यों नहीं कर लेते? जिससे इस मेहनत से छुटकारा मिले और आराम की जिन्दगी बसर करो।

लेकिन छोटा भाई दूसरी ही मिट्टी का बना हुआ था। उसने सिर ऊंचा उठाया और उससे कहा- तुम मेरी तरह मेहनत क्यों नहीं करते? ताकि गुलामी की हतक से बच जाओ । बुजुर्गों का कहना है कि पीठ पर सोने की चपरास बाँधकर नौकरी करने के बजाय जौ की रूखी रोटी खाना और जमीन पर पड़े रहना बेहतर है। अमीरों का झुक-झुक कर अदब बजाने की बनिस्बत अपने हाथ से गारा सानना अच्छा है।

हमारी बेशकीमती जिन्दगी यह सोचते-सोचते व्यतीत हो जाती है कि गर्मी में क्या खाएंगे और जाड़े में क्या पहनेंगे। हे हमारे बहादुर पेट। एक रोटी पर तसल्ली करो ताकि किसी की गुलामी में पीठ को न झुकाना पड़े।

कथा-


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