दुखों को मोल मत लो

January 1941

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले॰ श्री गुणबिहारी जी)

जीवन में प्रवेश करने के पूर्व एक युवक बड़ा वैज्ञानिक बनने की आकाँक्षा रखता है, पर जीवन के कठोर सत्य की चट्टानों पर उसकी वह आकाँक्षा टूक-टूक हो जाती है और वह छोटी सी नौकरी पर किसी आफिस में आठ घंटे कलम घसीटता नजर आता है। एक युवक बड़ा व्यवसायी होने की उमंग रखता है, परन्तु जीवन में अपने गुजर के लिए अच्छा सहारा भी प्राप्त करने में असमर्थ रहता है। कोई बड़ा कुशल वक्ता बनना चाहता है परंतु उसका भाषण सुनने के लिए चार मित्रों की अपेक्षा पाँचवा श्रोता नहीं मिलता ! कोई बड़ा राजनीतिज्ञ बनना चाहता है, जो देश का भविष्य गढ़ने के स्वप्न देखता हो, परंतु व्यावहारिक रूप में वह केवल अपनी बीबी और बच्चों पर ही शासन चलता नजर पड़ता है! पोषित आकाँक्षा और व्यावहारिक सत्य के बीच का यह कटु अंतर, जहाँ दूर होने लायक है, वहाँ दूर किया जाना आवश्यक है।

परंतु ख्याल रखने की बात यह है कि अपनी आकाँक्षा निर्धारित करने के पूर्व हमें स्वयं को ऊंचे टीलों पर दौड़ने का स्वप्न न देख, समतल भूमि पर विचरना चाहिये।

हमें जीवन में दो प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है-शारीरिक और मानसिक, जिनमें कुछ अपरिहार्य और कुछ निवारण करने योग्य होते हैं। इनमें से प्रथम कठिनाइयों की बात मैं वैद्य शास्त्रियों और ड्रिल मास्टरों पर छोड़ देता हूँ तथापि यह तो सत्य है ही कि हममें से प्रत्येक जीवन में एक बंदी है। हम लोग अपनी शारीरिक और सामाजिक स्थिति से बंधे हैं। बीमार, वृद्धावस्था, मृत्यु, गरीबी, आवश्यकताओं की आपूर्ति और निराशाओं के धक्के खाते-खाते हम यह सबक जरूर सीख लेते हैं कि यह संसार हमारे लिये नहीं बना, आशायें और उनकी पूर्ति यहाँ समानान्तर चीजें नहीं है। इससे हमें भविष्य में जरा अधिक यथार्थवादी और व्यावहारिक बनने की शिक्षा मिलती है, जो संतोष की ओर ले जाने वाली है। त्याग का यह अनुशासन, कुछ कटु अवश्य है, परंतु एक बार इसके अधीन हो जाने से जीवन की कठिनाइयाँ अवश्य कम हो जाती हैं। त्याग से यहाँ मेरा तात्पर्य वह नहीं है, जो सामान्यतः लिया जाता है, बल्कि मानसिक अव्यवहार्य इच्छाओं का परित्याग है। मैं इस में इस सिद्धाँत का व्यावहारिक कर्मयोग कहूँगा।

इस व्यावहारिक कर्मयोग का आचरण जरा कठिन अवश्य है, कारण मनुष्य स्वभावतः ही लोभ संवरण नहीं कर सकता, परंतु इस लोभ पर विजय प्राप्त करने से ही सुख प्राप्त किया जा सकता है। एक क्षण के विचार से ही यह समझ में आ सकता है कि हमारी अधिकाँश चिन्तायें, जिनसे हम प्रतिदिन घुलते रहते हैं, जरा अधिक विवेक से काम लेने से विनष्ट हो सकती हैं। ये चिन्तायें प्रायः अनुचित आदतें, दूसरों की ओर बुरे रुख, कल्पित आत्म-महत्व और अविवेक पूर्ण नफरतों से उत्पन्न होती हैं।

ऐसे भी लोग होते हैं जो अनेक बड़े आदमियों की भाँति, सदा अपने अस्वास्थ्य का जिक्र किया करते है, अपने दुख का दुःखड़ा रोया करते हैं। इसी भाव के सदृश अभी ‘पंच’ में एक व्यंग्य चित्र निकला था जिसमें दर्शाया गया था कि एक स्त्री यह कह रही है कि ‘मेरा पति बिना दुख के प्रसंग के कभी सुखी नहीं दीखता और उस प्रसंग में भी वह संतुष्ट नहीं दीखता। यह आजकल की एक प्रकार की मनोवृत्ति ही बन गई है। ऐसे आदमियों को स्वास्थ्यप्रद स्थान की सैर या लम्बी छुट्टियाँ भी कुछ फायदा नहीं करतीं, उन्हें तो तभी लाभ प्रतीत हो, जब इनकी यह मनोवृत्ति निर्मल कर दी जाय। उन्हें समझने की जरूरत है कि दुखी बनना श्रेष्ठता का कोई निशाना नहीं है। जीवन में स्वयं ही इतने अनिवार्य कष्ट और दुख हैं। कि उनमें कुछ और जोड़ देने की जरूरत नहीं।

परंतु इन असाधारण लोगों के अलावा, जो दुःखी बने रहने में ही बड़प्पन समझते हैं, हम सब लोग छोटी-मोटी, जरा जरा सी बातों की भी बड़ी फिक्र कर अपनी शक्ति का व्यर्थ अपव्यय किया करते हैं। कुछ लोग तो इतनी अधीर प्रकृति के होते है कि दैनिक चिंताओं की चिंता से भी अपने आपको मुक्त नहीं कर सकते। साधारण सी घटनाओं पर भी खीज अत्यधिक उत्तेजित हो उठते हैं, जिन्हें कि समझदार लोग कतई महत्व नहीं देते। उदाहरणार्थ कोई मनुष्य जरा रेल चूकते ही यह समझने लगता है कि प्रलय काल आ गया, तो कोई किसी दिन भोजन जरा अनुकूल न हुआ तो सारे घर को सिर ले लेता है। कोई मनुष्य नौकर द्वारा जरा कोई गलती हो जावे तो अपने आपको वश में नहीं रख सकता, हालाँकि यदि उस पर के अधिकारी उसको एक अष्टमाँश बात कह दें तो वह इसमें अपना घोर अपमान और अपने साथ परले सिरे का दुर्व्यवहार समझेगा। कुछ ऐसे शक्की होते हैं कि जरा कोई चीज नहीं मिलते ही यह समझ कर चिंता समुद्र में गोते लगाने लगते हैं कि कोई उनकी चीजों का अपहरण करने का षडयंत्र रच रहा है, हालाँकि वह चीज वह स्वयं ही कहीं रखकर भूल जाते हैं। इस सम्बन्ध में बस्ट्रैंड रसेल का यह वाक्य ध्यान रखने योग्य है कि ‘यदि मनुष्य अपनी जो शक्ति साधारण और सड़ी-सी बातों में खर्च किया करते हैं, वही यदि अधिक उपयुक्त तरीके से खर्च करें तो साम्राज्यों का निर्माण और विनाश कर सकते हैं।’ आगे वह कहता है कि समझदार आदमियों को यह ख्याल भी नहीं होता कि ‘उनके नौकर ने फर्श साफ किया है या नहीं, रसोइया ने आलू पकाये हैं या नहीं या भंगी ने नाली साफ की है या नहीं।’

उपर्युक्त बातों का यह तात्पर्य नहीं कि हमें गलतियों का परिहार करने का यत्न न करना चाहिये, या किसी बात की ओर ध्यान ही न देना चाहिये। कहने का तात्पर्य यही है कि ये बातें ऐसी नहीं है, जिनसे आप मानसिक मूर्छा ले आवें या अपने मस्तिष्क पर अनावश्यक बोझ लाद लें । चिढ़ जाने पर भी अपना मिज़ाज न खोना संस्कृति की निशानी है। मिज़ाज की गर्मी एक प्रकार का पागलपन है। घर-गृहस्थी की चिंतायें, जो दस में से नौ निवार्य होती हैं और अनावश्यक दुराकाँक्षा, दुर्भाव या जलन, व निराशा एवं असफलता ऐसी चीजें नहीं है जिनसे स्वयं पर चिंताओं का पहाड़ तोड़ लिया जाए। हम इस बात पर बड़ा संताप करते हैं कि हमारी योग्यता की कोई कद्र ही नहीं करता, फलतः हम दूसरे लोगों को मूर्ख, गंवार या कृतघ्न समझ मन में खार खाने लगते हैं । फिर भी कैसा विरोधाभास है कि हम अपने ऊंचे उठने के लिये उन्हीं से सहयोग और समर्थन की आशा रखते हैं। इस प्रकार निष्प्रयोजन उधेड़बुनों से बचने के लिये आवश्यक है कि हम जीवन में अधिक विवेक और संयम से काम लें। इसी को हम दूसरे शब्दों में जीवन में सरसता कह सकते हैं।

जीवन की सरसता के यह माने नहीं कि आप जिसकी भद्द या मजाक उड़ावे, प्रत्युत इसका अर्थ है जीवन में सदा प्रफुल्लित रहने की भावना पैदा करना ऐसा जो कुछ करेगा उसमें अनावश्यक आत्म-महत्व, दूसरों के द्वारा कद्र या प्रशंसा आदि का भाव न रखेगा। वह संसार के साथ हंसेगा- उसकी तरफ नहीं । वह अपनी दुख कहानियों को बिना पश्चाताप, खेद या ढंका पीटने के चुपचाप अपने उर में रखेगा। वह किसी विषय में असफल होने स्थिति और हाथ-रुमाल या कालर-बटन खोने की स्थिति दोनों में एक-सा संयत और गंभीर रहेगा। वह रेल में छाता खो जाने का दुख और अपने प्रतिस्पर्द्धी का व्यंग दोनों समान रूप से शाँति से सहेगा। वह जीवन का केन्द्र यही दृष्टिकोण रखेगा कि यदि कोई चिंता अपरिहार्य है, तो उसकी चिंता न करनी चाहिये और यदि वह निवारण करने योग्य है, तो निवारण करने का प्रयत्न करना चाहिए।

इस प्रकार चिड़चिड़ेपन और खीझ से मुक्त मनु अपनी दैनिक तकलीफों को संयम के साथ-बल्कि प्रसन्नता के साथ सहन कर सकेगा। उसके सामने यदि कोई धर्म मित्र अपने किसी काम की डींग मारता है, तो वह नहीं, यदि कोई पुराना चुटकुला कहता है, तो भी वह खीझेगा, उसका धोबी कोई कपड़ा फाड़ लावे तो भी वैसा ही शाँत रहेगा। कोई काम बिगड़ने पर वह केवल यही सोचेगा कि ऊंह, यह परम्परा तो संसार के आरम्भ से चली आई है, जब देवताओं ने भी दुख सहे हैं तो हमारी बिसात ही क्या? कोई काम वादे बिगड़ने से बचाना है, तो पहिले ही उसकी यथेष्ट सावधानी लेनी चाहिये,-कि पछताना या दुखित होना गैर वाजिब हैं।

विघ्न-बाधाओं,-कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने का यही तरीका है। मनुष्य को यह सोचना चाहिये कि आज जो हमें कष्ट मालूम होता है वह कल बहुत साधारण दीखेगा और हमारे जो घोर दुख है, उनका भी संसार की दृष्टि से मापने से कोई मूल्य नहीं है। इस प्रवृत्ति का अर्थ आपको ऊँचा उठाना है, और किसी बात का अवैयक्तिक दृष्टिकोण से भाव ग्रहण करना है। यह मानसिक शिक्षण का एक विषय है जिसके द्वारा मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ शाँति, संतोष और सुख प्राप्त कर सकता है।

कथा-


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118