दुख मनुष्यत्व के विकास का साधन है। सच्चे मनुष्य का जीवन दुख में ही खिल उठता है। सोने का रंग तपाने पर ही निखरता है।
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ज्यों-ज्यों मनुष्य का अन्तःकरण निर्मल और निष्पाप होता जाता है, त्यों त्यों उसे अपने छोटे-छोटे दोष भी दिखाई देने लगते हैं। अपने दोषों की स्वीकृति से चित्त को बड़ा समाधान होता है। इससे वह अपने प्रति कठोर और दूसरे के प्रति उदार होता जाता है।
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स्वर्ग और पृथ्वी में बहुत भेद नहीं है। श्रम और प्रेम दोनों साथ हों तो स्वर्ग बन जाता है और ये दोनों पृथक हो जायं तब पृथ्वी बनती है।
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जिस मनुष्य में ज्ञान के संचय का क्रम ठीक नहीं है, वह जितना अधिक विद्वान् बनेगा उतना ही अधिक भ्रम में पड़ेगा।