स्वर्ग नरक क्या है?

January 1941

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(वेदान्त का दृष्टिकोण)

जिस प्रकार निद्रा और उसके अंतर्गत स्वप्न की स्थिति है और वह स्वप्न जागृतावस्था ही के विचारों पर अवलम्बित है, उसी प्रकार मृत्यु की भी स्थिति होती है और वह स्थिति जीवन समय की भावनाओं पर अवलंबित है। यहाँ प्रश्न होता है कि वेदान्त इस प्रश्न का उत्तर इस भाँति देता है कि यह समय स्वर्गों के सुख उपभोग में अथवा नरकों के घोर दुख में, इन्द्र के नन्दन वन का ऐश्वर्य अनुभव करने में अथवा अन्धकारतम दुख में पड़े रहने आदि की स्थिति में व्यतीत होता है। अब प्रश्न उठता है कि स्वर्ग और नरक की कल्पना क्या है? इस प्रश्न का समाधान यह है कि यह केवल कल्पना से उत्पन्न किये हुये मनोभार है। मान लो कि एक क्रिश्चियन अत्यन्त श्रद्धालु है वह क्रिश्चियन धर्म के शास्त्रानुसार चलने वाला है। प्रति रविवार को वह प्रार्थना मंदिर, गिरजा में जाने से नहीं चूकता, प्रतिदिन सुबह और शाम अन्तःकरण पूर्वक भावयुक्त होकर ईश्वर से प्रार्थना करता है । भोजन से पहले ईश्वर से उसकी कृपा माँगा करता है। चिन्तक और उसके चरित्र से तादात्म्य होने में व्यतीत किया। अस्सी-नब्बे वर्ष का समय इसी प्रकार व्यतीत करते हुये उसने अपने धर्ममय जीवन के फल में जो-जो भावनायें की है कि मृत्यु के बाद मुझे सम्मान देने को देवों का झुण्ड आवेगा, ईशु के दायें हाथ की ओर बैठने का मुझे सम्मान मिलेगा। तो उसकी ये भावनायें अवश्य सफल होंगी ।

पुनर्जन्म से पहले उसे यह स्थिति अवश्य प्राप्त होगी। यह मानने में कोई कारण नहीं है कि उसे यह स्थिति प्राप्त न हो। वेदान्त कहता है कि क्रिश्चियनों! यदि तुम्हारे हृदय में दृढ़ श्रद्धा भावना और भक्ति होगी तो तुम्हारी धर्म पुस्तकों में जो आश्वासन दिये हैं, धर्म पालन के जो फल दिखलाये हैं अवश्य फलित होंगे यह निश्चित है परन्तु ध्यान रक्खो कि तुम्हारा मुसलमान और हिन्दुओं की निन्दा करना अयोग्य है। मानलो कि एक मुसलमान मुहम्मद का सच्चा अनुयायी है, कुरान की आज्ञानुसार प्रतिदिन बिना चूक चार-पाँच बार नमाज पढ़ता है, वह मुहम्मद के लिये ही अपना जीवन समझता है और प्रीति के लिये जीवन उत्सर्ग करने को सदा तैयार रहता है तो ऐसे मनुष्य का संकल्प बिना पूर्ण हुए नहीं रह सकता। वेदान्त कहता है कि सृष्टि में ऐसा कोई भी नियम नहीं है, ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है, कि उक्त प्रकार के मुसलमान के संकल्प को फलित होने में बाधा डाल सके। यह निश्चित है कि यदि ऐसे मुसलमान ने मृत्यु के बाद स्वर्ग के सुन्दर-सुन्दर उपवनों में, भव्य विशाल राज मन्दिरों में खूबसूरत परियों के साथ-साथ रासविलास के भोगने की और मद्यपान का आनन्द प्राप्त होने की कल्पना की है और उस कल्पना के झूले पर झूलते हुए अपनी आयु पूर्ण की है तो मृत्यु के बाद और पुनर्जन्म के पहले बीच की स्थिति में उसे अवश्य वे भोगोपभोग प्राप्त होंगे। परन्तु वेदान्त यह भी कहता है कि हे मुहम्मदानुयायियो ! तुम यह कहने का साहस न करो कि मृत्यु के बाद केवल मुहम्मद पैगम्बर ही एक ऐसा है जो न्याय करेगा, प्राणियों को ठिकाने लगावेगा। क्रिश्चियनों को उनके विचारानुसार चलने दो। यूरोप, अमेरिका, एशिया, चीन, आदि में मरने वाले मनुष्यों को मुहम्मद की संरक्षता में न देकर स्वतंत्र रहने दो। यह हठ छोड़ो कि हमारे पैगम्बर पर विश्वास रखो तो ही तरोगे अन्यथा नहीं। इस प्रकार का विधान करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है, यह निष्ठुरता है। तुम्हारे धर्म द्वारा निश्चित मार्ग से यदि तुम जाओगे तो उसका फल तुम्हें मिलेगा। जीवनावस्था में तुमने जो आकांक्षायें की होंगी उनके अनुसार तुम्हारे लिये स्वर्ग का दरवाजा खुला हुआ है उसी प्रकार अन्य धर्मानुयायियों के लिये भी खुला रहने दो।

वास्तव में देखा जाए तो स्वर्ग और नरक अपने पर ही अवलम्बित हैं, हम स्वयं ही अपने लिए स्वर्ग और नरक बनाते हैं क्योंकि स्वर्ग और नरक कल्पना है। स्वप्नों की कल्पना की अपेक्षा इस कल्पना में सत्य का भाग कुछ अधिक नहीं है। तुम जानते ही हो कि स्वप्न की स्थिति कभी असत्य मालूम नहीं होती उसी प्रकार मृत्यु के बाद स्वर्ग नरक की कल्पना उस काल के लिये मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच के समय के लिये अक्षरशः सत्य है परन्तु तत्व दृष्टि से यदि देखा जाय तो उस कल्पना में स्वप्न की अपेक्षा कुछ अधिक सत्य नहीं है। यहाँ इस पर भी विचार कर लेना आवश्यक है कि लोग कहते हैं कि जब तुम मानते हो कि हमारे धर्मों में दिये हुये आश्वासन सच्चे हैं तो मृत्यु के बाद जो गति हमें प्राप्त होने वाली है वह आत्यन्तिक सुखमय और शाश्वत होनी चाहिये क्योंकि हमारे धर्मों में कहा गया है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद उसे प्राप्त होने वाले स्वर्ग नरकादि चिरकाल तक रहने वाले हैं। इस पर वेदाँत का कहना है कि शाश्वत काल का अर्थ दीर्घ काल है, प्रायः अनन्तकाल है। परंतु यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि स्वभाव और जागृत अवस्था में काल के माप करने की पद्धतियाँ भिन्न- भिन्न प्रकार की हैं। कितनी बार अपनी आँखों के सामने स्वप्न में ऐसी स्थिति दीखती है कि हजारों वर्ष पुरानी बात है जैसा कि स्वप्न में किसी ने एक पर्वत देखा जागृतावस्था की अपेक्षा वह पर्वत नवीन ही उत्पन्न किया गया है परंतु स्वप्न दृष्टि की अपेक्षा उसे उत्पन्न हुए हजारों वर्ष हो गए हैं। इसी प्रकार मृत्यु के बाद इन्द्र के नन्दन वन में स्वर्ग सुख में अथवा नरक में चिरकाल तक रहने का जो भाव होता है वह स्वप्न स्थिति की अपेक्षा होता है। जागृतावस्था के दर्शक की दृष्टि से नहीं। बाइबिल में कहे हुये आश्वासनों पर ही विचार करें इसमें कुछ संशय नहीं है कि आश्वासन सफल अवश्य होते हैं क्योंकि मृत्यु के बाद की स्थिति में अनन्तकाल का शाश्वत स्थिति का भान अवश्य होता है परंतु जागृत अवस्था की दृष्टि में वह भान मृत्यु के बाद की चिरकाल की स्थिति क्षणभंगुर और मृग तृष्णा के जलवत् है । यह विवेक जगत् के भिन्न-भिन्न धर्मों के मृत्यु के बाद की स्थिति के सम्बन्ध में जो मत है उसका मिलान किस दृष्टि से करता है यह मालूम हो जाता है।

अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि पुनर्जन्म क्या है? और मुक्त पुरुष जो कहलाते हैं वह कौन हैं? इसका उत्तर वेदाँत इस प्रकार देता है कि मृत्यु के बाद सबको स्वर्ग नरक में जाना ही चाहिये और पुनर्जन्म लेना ही चाहिये ऐसा कोई निश्चित नियम नहीं है। जो मुक्त पुरुष होते हैं उन्हें जन्म मरण के फेर में नहीं पड़ना पड़ता। स्वर्ग नरक के बंदीगृह में रहने की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं। वे सम्पूर्ण चराचर को अपने में देखते हैं, ऐसे पुरुषों का विवेचन करने की यहाँ आवश्यकता है। स्वप्न के दो भाग होते हैं एक दृष्टा दूसरा दृश्य। नदी, पर्वत, वन, वृक्ष आदि दृश्य वस्तुओं से घिरा हुआ यह आत्मा प्रवासी दृष्टा है। स्वप्न में अनेक बातें देखी जाती हैं उनमें ‘मैं’ कहने वाली एक भिन्न वस्तु है और उससे जो भिन्न दिखाई देता है, वे दृश्य वस्तु हैं, वे स्वप्न की दृश्य वस्तु हैं, वे स्वप्न का दृश्य भाग है। वेदाँत कहता है कि स्वप्न की दृश्य और दृश्यरूप दो भाग वाली स्थिति जागृत अवस्था के आत्मा ने ही निर्माण की है। हम ही नदी पर्वत बाग वृक्ष उनमें विचरने वाले पशु पक्षी बनते हैं और हम ही देखने वाले दृश्य बनते हैं दोनों ही हम हैं। वेदाँत कहता है, कि मृत्युरूपी निद्रा की भी स्थिति इसी प्रकार है। इस निद्रा के स्वर्ग नरक व उनके सुख-दुख आदि स्वप्न कल्पना हैं, जिसके कि उत्पन्न करने वाले हमीं हैं। इस विषय का प्रत्यक्ष अनुभव करने वाला ही मुक्त पुरुष है।

एक स्त्री जिसे वेदाँत का ज्ञान था एक हाथ में अग्नि और दूसरे हाथ में पानी लेकर रास्ते में फिर रही थी। लोगों ने उसका यह विचित्र वेष देखकर पूछा कि बाई ! यह क्या है? उसने उत्तर दिया कि इस अग्नि से मैं तुम्हारे स्वर्ग नरक, इंद्र, चंद्र को जला दूँगी और पानी से जलते हुये नरकों को शीतल करूंगी। मुक्त पुरुष स्वर्ग नरक की इन कल्पनाओं को पार कर जाता है और वह इनका कुछ भी हर्ष विषाद नहीं करता।


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