सच्चा त्याग

January 1941

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(ले॰ श्री पं॰ जगन्नाथप्रसाद अध्यापक, दाँता)

वह गरीब था। गरीब माता पिता के घर में जन्म लिया और गरीबों में ही पाला पोसा गया था । रूखे सूखे अन्न से पेट भर लेने और फटे-टूटे कपड़ों में तन ढक लेने के अतिरिक्त यह नहीं जान पाया था कि ऐश-आराम तथा शान−शौकत किसे कहते हैं।

पड़ोस में धनवान रहते थे। पास के नगर में बड़ी-बड़ी कोठियाँ थीं। नाच रंग और विलासिता के फव्वारे उनमें छूटते रहते थे । लक्ष्मी के द्वारा जो मौज मजे मिलते हैं वह सभी इन कोठियों में भरे रहते थे।

वह गरीब ब्राह्मण मुर्दा नहीं था । विद्या और बुद्धि में अद्वितीय गिना जाता था। धन वह कमा सकता न हो ऐसी बात नहीं थी वह चाहता तो बुद्धिबल से चाँदी के किले खड़े कर सकता था। पर चाहता तब न? उसकी आँखों का परदा हट गया था। मनुष्य जीवन चाँदी बटोरने और तमाशा देखने के लिये नहीं है, उसका उद्देश्य कुछ ऊंचा है। उस परमलक्ष्य को प्राप्त करने के लिये दुनियादारी को नमस्कार करना पड़ता है-ब्राह्मण ने भी वही किया। वह अपनी पत्नी समेत गरीबी की तपस्या करने लगा।

एक दिन परीक्षा का अवसर आया। प्रभु ने उनको परखना चाहा। उस दिन वे दोनों पति पत्नी कहीं दूर देश को जा रहे थे। धन के अभाव में लम्बी परदेश यात्रा कितनी कठिन होती है उसे भुक्त भोगी ही जानते हैं। धनहीन यात्री पर आने वाली विपत्तियाँ पग-पग पर उन्हें सता रही थीं।

चलते चलते कहीं निर्जन वन में एक अशर्फियों की थैली रास्ते में पड़ी हुई दिखाई दी। ऐसे स्थान पर पड़े हुए धन को भी भला कोई छोड़ सकता है? पर नहीं ! वह सच्चा ब्राह्मण था। लोभ की एक लहर उसके मन में दौड़ी तो सही। पर दूसरे ही क्षण वह संभल गया। पराया धन बिना मालिक की आज्ञा के लेना पाप है। इन पापपूर्ण ठीकरियों को वह नहीं ले सका।

ब्राह्मणी कुछ पीछे रह गई थी। उसने सोचा कहीं ब्राह्मणी को लोभ न आ जाए और लेने के लिये ललचा न जाए। इसलिए इस थैली पर धूल डालकर छिपा देना चाहिये। उसने पाँव के सहारे धूल खसकाकर थैली पर डाली और उसे छिपा दिया।

ब्राह्मणी ज्यादा पीछे नहीं थी। जब एक पति सोच विचार और दाब दूव में उलझा रहा तब तक पत्नी भी आ पहुँची। उसने पाँव द्वारा धूलि खसका कर किसी पोटली पर डालने की क्रिया को देखा। बुद्धिमान स्त्रियाँ जिस प्रकार बात की बात में पति के मनोभावों को जान जाती हैं, उसी प्रकार उसे इस घटना के रहस्य को जानने में देर न लगी । वह ताड़ गई -अवश्य ही इस पोटली में कुछ धन रहा होगा और मुझसे छिपाने के लिये यह किया जा रहा है।

पत्नी खिल कर हँस पड़ी। पति के वक्ष पर हाथ रखते हुए उसने-कहा प्रभो ! सोने और धूलि में अन्तर क्या है? आप धूलि को धूल से क्यों ढक रहे हैं?

ब्राह्मण लज्जित हो गया। उसे अपने त्याग पर पूरा विश्वास न था। अयोग्यता के कारण जो अभाव रहता है उसी को कोई पाखण्डी त्याग घोषित करते हैं। यह अभाव प्रलोभन की परीक्षा में पिघल सकता है। विवेक पूर्वक किया हुआ सच्चा त्याग शुद्ध स्फटिक के समान है। विपत्ति के परीक्षा के समय वह मुरझाया नहीं दूना बिखरता है। ब्राह्मणी का त्याग अभाव का दंभ नहीं। वरन् उसी की भाँति सच्चा त्याग था।

यह दम्पत्ति आगे चलकर बड़े प्रसिद्ध भक्त हुए प्रभु का दर्शन उन्होंने पाया और मोक्षगामी हुए। इस भक्त का नाम था ‘राँका बाँका’।


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