हमारी होली

March 1940

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ऐसी होली जले ज्ञान की ज्योति जगत में भर दे।

कलुषित कल्मष जलें, नाश पापों तापों का कर दे॥

अखण्ड ज्योति का यह अंक जिस दिन पाठकों के हाथ में पहुँचेगा, प्रायः उसके दूसरे दिन होलिका दहन का त्योहार होगा। गरीब अमीर सभी अपनी स्थिति के अनुसार होली मनाने की तैयारी कर रहे होंगे। पकवान, मिष्ठान, बनाने की तैयारियाँ हो रही होंगी, नये कपड़े बन रहे होंगे, बच्चे होलिका दहन का तमाशा देखने और धूलि उड़ाने के लिए उस समय की घड़ियां गिन रहे होंगे। रंग खेलने के लिए, मुँह से गुलाल मलने के लिए मित्रगण, प्रेमी प्रेमिकाएं व्याकुल हो रहे होंगे। व्यापारी इस अवसर पर अधिक बिक्री होने की आशा से दुकानें सजा रहे होंगे, मजदूर लोग, उस दिन काम न करना पड़ेगा यह सोच कर प्रसन्न हो रहे होंगे, हंसते खेलते बालकों को देखकर माता पिता उत्फुल्ल हो रहे होंगे। जगह-जगह गाने बजाने का ठाठ जमा होगा। लोगों की इस प्रसन्नता को देखकर प्रकृति चुप न बैठेगी। बसंत महाराज अपना वैभव इस पीड़ित दुनिया के ऊपर बखेर रहे होंगे। नन्हे-नन्हे पौधों से लेकर विशाल वृक्षों तक सब हरियाली से भरपूर होंगे। अपने फूलों की सुरभी दशों दिशाओं में उड़ाकर आनन्द का झरना बहा रहे होंगे। अखंड ज्योति के पाठक क्या इस उत्सव से अलग होंगे? नहीं। वे भी इस हंसी खुशी में भाग ले रहे होंगे उसकी प्रसन्नता में भाग लेता हुआ मैं भी आनन्दित हो रहा हूँ और अपनी शुभकामना की लहरें उन तक भेजने का प्रयत्न कर रहा हूँ।

होलिकोत्सव का यह त्योहार उस प्यास की एक धुँधली तस्वीर है जिसकी इच्छा आदमी को हर समय बनी रहती है। मौज! आनंद! खुशी! प्रसन्नता! हर्ष! सुख! सौभाग्य! कितने सुन्दर शब्द हैं इनका चिन्तन करते ही नसों एक बिजली सी दौड़ जाती है। आदमी युगों से आनन्द की खोज कर रहा है उसका अन्तिम लक्ष्य ही अखण्ड आनन्द है। यह राजहंस मोतियों की तलाश में जगह-जगह भटकता फिरता है। विभिन्न प्रकार के पत्तों पर पड़ी हुई ओस की बूँदें उसे मोती दीखती हैं, उन्हें लेने के लिए बड़े प्रयत्न के साथ वहाँ तक पहुँचता है, पर चोंच खोलते ही यह गिर पड़ती हैं और राजहंस अतृप्त का अतृप्त ही बना रहता है। एक पौधे को छोड़ कर दूसरे पर दूसरे को छोड़ कर तीसरे पर और तीसरे को छोड़ कर चौथे पर जाता है पर संतोष कहीं नहीं मिलता। वह भ्रमपूर्ण स्थिति में पड़ा हुआ है। जिन्हें वह मोती समझता है असल में ओस की वे बूँदें मोती हैं नहीं। वह तो मोतियों की एक झूठी तस्वीर मात्र हैं। तस्वीरों से आदमी टकरा रहा है। दर्पण की छाया को अपनी कार्य संचालक बनाना चाहता है। इस प्रयत्न में उसने असंख्य युगों का समय लगाया है। परन्तु तृप्ति अब तक नहीं मिल पाई है। मनोवाँछा अब तक पूरी नहीं हो सकी है।

आनंद की खोज में भटकता हुआ इंसान,दरवाजे दरवाजे पर टकराता फिरता है। बहुत सा रुपया जमा करें, उत्तम स्वास्थ्य रहे, रमणियों से भोग करें, सुस्वादु भोजन करें, सुन्दर वस्त्र पहनें, बढ़िया मकान और सवारियाँ हों, नौकर चाकर हों, पुत्र, पुत्रियों, वधुओं से घर भरा हो, उच्च अधिकार प्राप्त हो, समाज में प्रतिष्ठा हो, कीर्ति हो, यह चीजें आदमी प्राप्त करता है। जिन्हें यह चीजें उपलब्ध नहीं होतीं वे प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। जिनके पास हैं वे उससे भी अधिक लेने का प्रयत्न करते हैं। कितनी ही मात्रा में यह चीजें मिल जाएं पर पर्याप्त नहीं समझी जातीं जिससे पूछिये यही कहेगा ‘मुझे अभी और चाहिये।’ इसका एक कारण है, स्थूल बुद्धि तो समझ भी लेती है कि काम चलाने के लिये इतना काफी है, पर सूक्ष्म बुद्धि भीतर ही भीतर सोचती है यह चीजें अस्थिर हैं किसी भी क्षण इनमें से कोई भी चीज कितनी ही मात्रा में बिना पूर्व सूचना के नष्ट हो सकती है। इसलिये ज्यादा संचय करो ताकि नष्ट होने पर भी कुछ बचा रहे। यही नष्ट होने की आशंका अधिक संचय के लिए प्रेरित करती रहती है। फिर भी नाशवान चीजों का नाश होता ही है। यौवन ठहर नहीं सकता, लक्ष्मी किसी की दासी नहीं है, मकान, सवारी,घोड़े ,कपड़े भी स्थायी नहीं, भोजन और मैथुन का आनन्द कुछ क्षण ही मिल सकता है। हर घड़ी उसकी प्राप्ति होती रहना असंभव है। जिनकी आज कीर्ति छाई हुई है कल ही उनके माथे पर ऐसा काला टीका लग सकता है कि कहीं मुँह दिखाने को भी जगह न मिले। सारे आनंदों को भोगने के मूल साधन शरीर का भी तो कुछ ठिकाना नहीं। आज ही बीमार पड़ सकते हैं, कल अपाहिज होकर इस बात के मुहताज बन सकते हैं कि कोई मुँह में ग्रास रख दे तो खालें और कंधे पर उठा कर ले जाय तो टट्टी हो आवें।

इन सब तस्वीरों में आनन्द की खोज करते करते चिरकाल बीत गया पर राजहंस को ओस ही मिली। मोती? उसकी तो खोज ही नहीं की। मानसरोवर की ओर तो मुँह ही नहीं किया। लम्बी उड़ान भरने की तो हिम्मत ही नहीं बाँधी। परों को फड़-फड़ाया, परन्तु फिर मटर के खेत में मोतियों का खजाना दिखाई पड़ गया। मन ने कहा, “जरा इसे और देख लें। आँखों से न दीख पड़ने वाली मानसरोवर में मोती मिल ही जायेंगे इसी की क्या गारंटी है।” फिर ओस चाटी और फिर फड़-फड़ाया। फिर वही, यहीं पहिया चलता रहता है।

आप अपने जीवन में कितनी होलियाँ मना चुके, कितने दिवालियाँ बिता चुके, सावन, सनुने, दौज, दशहरे अबतक कितने बिता दिये, जरा उँगलियों पर गिन कर बताइये तो कितनी बार आपने धूम-धाम से तैयारियाँ की और कितनी बार आनन्द सामग्री को विसर्जित किया। आपने उनमें खोजा, कुछ क्षण पाया भी, परन्तु ओस की बूँदें ठहरीं कब? वे दूसरे ही क्षण जमीन पर गिर पड़ीं और धूलि में समा गईं। इस बार की होली भी ऐसी ही होनी है। चैत बदी प्रतिपदा, दौज, तीज के बाद त्योहार की एक धुँधली सी स्मृति रह जायगी। और चौथ, पाँचें को ही कोई कष्ट आ गया तो भूल जायेंगे कि इसी सप्ताह हमने किसी त्योहार का आनंद भी उठाया था। ऐसे अस्थिर आनंद पर मेरी बधाई कुछ ज्यादा उपयुक्त न होती पर यह छाया दर्शन भी कोई दुख की बात नहीं है।

मैं चाहता हूँ कि आप इस होली पर खूब आनंद मनायें और साथ ही यह भी चिन्तन करें कि जिसकी यह छाया है उस अखण्ड आनन्द को मैं कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मेरी युग-युग की प्यास कैसे बुझ सकती है? इस अँधेरे में कहाँ से प्रकाश पा सकता हूँ जिससे अपना स्वरूप और लक्ष्य की ओर बढ़ने का मार्ग भली प्रकार देख सकूँ ? सच्चे अमृत को मैं कैसे और कहाँ से प्राप्त कर सकता हूँ ?

आइये, उस अखण्ड आनन्द को प्राप्त करने के लिए हृदयों में होली जलावें। सच्चे ज्ञान की ऐसी उज्ज्वल ज्वाला हमारे अन्तरों में जल उठे जिसकी लपटें आकाश तक पहुँच। अन्तर के कपट खुल जावें और उस दीप्त प्रकाश में अपना स्वरूप परख सकें। दूसरे पड़ोसी भी उस प्रकाश का लाभ प्राप्त करें। चिरकाल के जमा हुए झाड़ झंखाड़ इस होलिका की ज्वाला में जल जावें। विकारों के राक्षस जो अँधेरी कोठरी में छिपे बैठे हैं और हमें भीतर ही भीतर खोंट खोंप कर खा रहे हैं इसी होलिका में भस्म हो जावें। अपने सब पाप तापों को जला कर हम लोग शुद्ध स्वर्ण की तरह चमकने लगें। उसी निर्मल शरीर से वास्तविक आनन्द प्राप्त किया जा सकेगा।

अखण्ड-ज्योति परिवार के हृदयों में ईश्वर ऐसी ही होली जला दें। यही आज मेरी प्रार्थना है।

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आध्यात्म विद्या प्रेमियों से प्रार्थना

ऐसा निश्चय किया गया है कि ‘अखण्डज्योति’ में आध्यात्म विद्या प्रेमियों के चित्र भी हर अंक में दिये जाया करें। इसलिये आध्यात्म विद्या प्रेमी, सदाचारी, ईश्वर भक्त और लोक-सेवी भाई बहिनों से प्रार्थना है कि वे आप के संक्षिप्त परिचय भेजने की कृपा करें। परिचय पाकर अपनी आवश्यकतानुसार उन सज्जनों से हम चित्र मंगवा लेंगे और पत्र में संक्षिप्त परिचय के साथ प्रकाशित करेंगे।

‘अखंडज्योति’ के पाठकों से भी प्रार्थना है कि उक्त प्रकार के किन्हीं आध्यात्म विद्या प्रेमी भाई बहिनों को जानते हों तो उनका पता और परिचय हमारे पास लिख भेजें, जिससे हम स्वयं उनसे फोटो की याचना कर लें। आशा है कि इस विषय में पाठक हमारी सहायता करेंगे।

-संपादक

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