पहले दो तब मिलेगा

March 1940

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(ले. -श्री. एवजसिंह वर्मा, आगरा)

मनुष्य जीवन के लिए त्याग अनिवार्य है बिना कुछ दिये दूसरी चीज नहीं मिल सकती। जो लेना चाहता है उसे देना अवश्य पड़ेगा। संसार के सभी तत्वों का निर्माण ‘पहले दो तब मिलेगा’ के सिद्धान्त पर टिका हुआ है।

शौच जाकर जब पेट खाली कर देते हैं तब भूख लगती है और सुन्दर भोजन मिलता है। कोई आदमी मल का त्याग न करना चाहे तो भोजन मिलना तो दूर उल्टे पेट में बीमारियाँ हो जावेंगी। पीछे की जमीन को त्याग कर उस पर से पैर उठा कर ही तो आगे कदम बढ़ाया जाता है। अपने पाँव के नीचे की भूमि पर कोई अपना अधिकार जमाकर बैठ जाय और उसे छोड़ना न चाहे तो वह उस स्थान पर बैठा तो रहेगा पर आगे नहीं बढ़ सकेगा और नई भूमि उसे नहीं मिलेगी। फेफड़ों में भरी हुई हवा को जो नहीं छोड़ना चाहता वह नई हवा प्राप्त नहीं कर सकेगा और मर जायगा।

आपके पास पानी से भरा हुआ एक प्याला है। कोई आपको दूध देना चाहता है पर उस प्याले में जरा भी जगह नहीं है जब तक आप उस प्याले के पानी का त्याग न करें तब तक दूध प्राप्त नहीं कर सकते। बाजार में कोई चीज लेने जाइये दुकानदार पहले पैसे माँगेगा तब कोई चीज मिलेगी। दुनिया के बाजार का यह अटूट नियम है कि पहले दो तब मिलेगा। जो मुफ्त में कोई चीज प्राप्त करने की इच्छा करता है वह प्रकृति के नियमों की उपेक्षा करता है। संयोगवश किसी को मुफ्त की कोई चीज़ मिल भी गई तो वह ठहर नहीं सकती। जैसी आई थी वैसी ही चली जायगी।

यह दो चाकू देखिये इसमें से एक बहुत तेज और चमकता हुआ है। दूसरे की धार कुन्द है। पहला वजन में कम है लेकिन दूसरा भारी है। जो चाकू तेज है उसे लोग प्यार करते हैं उसकी उपयोगिता अधिक है वह सफल है,शूर है, प्रस्तुत है। जिस चीज पर लगाया जाए झाटकाट डालता है। इतना गुण उसने किस प्रकार प्राप्त किया है। उसने त्याग का महत्व जाना है, अपनेपन की ममता न कर के शाल के पत्थर के पास हंसता हुआ गया है और अपने अंग का कुछ भाग उस पर घिस डाला है। इसीलिए तो चमक रहा है, इसीलिये उसकी कार्य शक्ति में तीक्ष्णता है और इसीलिए वह उपयोगी समझा जा रहा है। अब दूसरे चाकू को देखिये वह अपना कुछ भी छोड़ना नहीं चाहता है। पत्थर पर अपने शरीर का कुछ भाग नष्ट करना व्यर्थ समझता है। वह कुछ देने की अपेक्षा लेना पसंद करता है। मोटा भी है और भारी भी हो गया है। यह ठीक है,पर उसने अपनी सारी कार्य शक्ति खो दी है। न तो वह चमकता ही है और न कुछ काट ही सकता है। किसी के काम न आने कारण घृणास्पद बना हुआ है। इतना ही नहीं, उसका संचय किया हुआ धन-जंग उसके लिये घातक सिद्ध हो रहा है और धीरे-धीरे चाकू के जीवन को नष्ट करने में लगा हुआ है।

चिकित्सक लोग रोगी की चिकित्सा करने में जुलाब, वमन, उपवास, फस्व, मस्य, स्वेदन आदि क्रियायें कराते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि शरीर में अनावश्यक संचय हो जाने के कारण बीमारी हुई है, इसका समाधान त्याग किये बिना नहीं हो सकता।

किन्तु आज हम इस त्याग का महत्व भूल गये हैं। रोज देखते हैं कि जीवन का प्रत्येक क्षण त्याग की महत्ता को स्वीकार करता है। बिना इसके कार्य चलना असंभव समझता है फिर भी हम उसे जीवन व्यवहार में नहीं उतारते। आदमी पर संचय का ऐसा भूत सवार हुआ है कि उसे और कुछ सूझ ही नहीं पड़ता। ‘लाओ जमा करो’ ‘लाओ जमा करो’ की पुकार सर्वत्र सुनाई देती है। दस के बाद पचास, पचास के बाद पाँच सौ, पाँच सौ के बाद चार हजार अन्ततः यह अतृप्त प्यास अत्यंत उग्र हो जाती है। शराब के नशे में चूर पागल की तरह आदमी “एक प्याला और” की रट लगाये रहता है। जितना वह अधिक पीता जाता है उतना ही और भी वह अधोगति को प्राप्त होता जाता है।

लोग यह भूल जाते हैं कि कुदरत आदमी के पास उतना ही रहने दे सकती है जितने की उसे जरूरत है। बाकी चीजें वह राजी से नहीं छोड़ता तो जबरदस्ती छीन ली जाती हैं। जबरदस्ती छीनने की तैयारी और धक्का मुक्की में जितना वक्त लगता है उतने ही देर कोई आदमी धनी दिखाई दे सकता है बाद को उसे स्वाभाविक स्थिति पर उतरना जरूरी है। हम सारे दिन भर पेट पानी पीते रहते हैं। पर प्रकृति अपनी तराजू पर तौलती है कि इसे कितना पानी चाहिये, जितना उसने जरूरत से ज्यादा पी लिया है उतना ही पेशाब और पसीने द्वारा वह निकाल लेती है। अमुक लालाजी करोड़ पति थे, सट्टे के व्यापार में भारी घाटा हुआ दिवाला निकल गया अब एक मामूली सी दुकान करते हैं। अमुक मालगुजार के पास दस गाँव की जमींदारी थी उनके लड़के ने ऐयाशी में सारी जायदाद फूँक दी। अमुक साहूकार देन-लेन का भारी कारोबार करते थे, घर में डाका पड़ा सब कुछ चला गया। अमुक बाबूजी ने नौकरी में दस हजार रुपया जमा किया था। लड़की के विवाह, पत्नी की बीमारी में सब खर्च हो गया। अमुक रायसाहब के पास पैसे की इफरात थी, तीन चार मुकदमे ऐसे लगे कि बेचारे बर्बाद हो गये। आप अपने पास-पड़ोस में ऐसी घटनाएं ढेरों पा सकेंगे। ऐसे उदाहरणों की एक मोटी मिसाल आपके आस पास ही तैयार हो सकती है। जिससे सिद्ध होता हो कि जरूरत से ज्यादा इकट्ठी हुई चीजें कुदरत द्वारा जबरदस्ती छीन ली गईं। अब तो साम्यवाद, समाजवाद, बोल्शविज्म आदि संगठित और जोरदार आन्दोलन दुनिया में चल रहे हैं जिनका उद्देश्य है कि जरूरत से ज्यादा इकट्ठी की हुई चीजों को जबरदस्ती और सरेआम छीन लिया जाय। कई देशों में तो यह आन्दोलन सफल भी हो चुके हैं।

दुनिया की शान्ति त्याग के ऊपर कायम है। दूसरों को देकर खाओगे तो तुम्हारी रोटी सुरक्षित रहेगी।

हिन्दू धर्म का प्रत्येक अंग इसी आदर्श से ओत-प्रोत है। पंच महायज्ञों का तात्पर्य यही है पहले अतिथि, अपने से कुछ आशा करने वाले, पशु पक्षियों को पहले खिलाओ तब खुद खाओ। गीता कहती है “ओ भुजेते तेर्त्वध पाप थे पचन्त्यात्म कारणात्” अर्थात् केवल खुद ही खाने वाला पाप खाता है। महापुरुषों का उपदेश सदैव त्याग करने का होता है। एक सज्जन को पिछले वर्ष तीन बार महात्मा गाँधी के पास जाने का सौभाग्य मिला। जब भी वे उनके पास गये तभी हरिजन सेवा के लिए कुछ देने को महात्मा जी ने हाथ पसारा। चिरकाल तक मैं इस बात पर विचार करता रहा कि यह महापुरुष अपने पास आने वालों से सदैव याचना ही क्यों करता है? मनन के बाद मेरी निश्चित धारणा हो गई है कि। त्याग से बढ़कर प्रत्यक्ष और तुरन्त फलदायी और कोई धर्म नहीं है त्याग की कसौटी आदमी के खोटे खरे रूप से दुनिया के सामने उपस्थित करती है। मन में जमे हुए कुसंस्कार और विकारों के बोझ को हलका करने के लिए त्याग से बढ़कर अन्य साधन हो नहीं सकता।

आप दुनिया से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं अपने को महान बनाना चाहते हैं। विद्या बुद्धि संपादित करना चाहते हैं। कीर्ति चाहते हैं, और अक्षय आनन्द की तलाश में हैं। तो त्याग कीजिए। गाँठ में से कुछ खोलिए। यह चीजें बड़ी महंगी हैं। कोई नियामत लूट के माल की तरह मुफ्त नहीं मिलती। दीजिए आपके पास पैसा, रोटी, विद्या श्रद्धा, सदाचार, भक्ति, प्रेम, समय, शरीर जो कुछ हो मुक्त हस्त होकर दुनिया को दीजिए, बदले में आपको बहुत मिलेगा। गौतम बुद्ध ने राज सिंहासन का त्याग किया, गाँधी ने अपनी बैरिस्टरी छोड़ी उन्होंने जो छोड़ा था उससे अधिक पाया। विश्व कवि रवीन्द्र टैगोर अपनी एक कविता में कहते हैं।” उसने हाथ पसार कर मुझ से कुछ माँगा। मैंने अपनी झोली में से अन्न का एक छोटा दाना उसे दे दिया। शाम को मैंने देखा कि झोली में उतना ही छोटा एक सोने का दाना मौजूद था। मैं फूट-फूट कर रोया कि क्यों न मैंने अपना सर्वस्व दे डाला? जिससे मैं भिखारी से राजा बन जाता।”


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