(ले. मास्टर उमादत्त सारस्वत, कविरत्न, विसवाँ)
गिना न महि-आकाश जिन्होंने, तृणावत सागर जाना।
अखिल विश्व पाताल सभी को, हस्त आमलक माना।
जल थल नभ में कहीं किसी से कभी न थे जो हारे।
वह आज मरघट में कैसे सोते पाँव पसारे॥
वसुधा भर का वैभव जिसने दोनों हाथ समेटा।
सिवा दुग्ध सी मृदु-शैया पर, कभी न था जो लेटा॥
जिसका सुन्दर भवन देख कर सुरपुर था ललचाता।
आज वही देखो तो मरघट में है सोने जाता॥
बल विक्रम के आगे जिनके ठहर न सकती संस्कृति।
जिनकी सिंह गरज सुनते ही आई मुर्दों में जागृति॥
भृकुटि देख कर टेढ़ी जिनकी दिकपति थे गर्वा।
वही आज चढ़ कर कन्धों पर हैं मरघट का जाते॥
अमित रूप राशि लिये जो रूपवान थे नामी।
मरते जिन पर गर्व युक्त थे देश-देश के स्वामी॥
जिनके चारों तरफ लगे रहते थे हरदम मेले।
आज वही मरघट में कैसे सोते हाय! अकेले॥