जीवन-ज्योति (कविता)

March 1940

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(रचयिता श्री. जिज्ञासु)

(1)
वह जीवन ज्योति जगायेंगे।
करदे प्रदीप्त दिग् मण्डल को,
जिसकी उज्ज्वल प्रकाश रेखा
भूले भटकों को मार्ग मिले,
वे ढूंढ़ सकें पथ का लेखा॥
अज्ञान विनाश हुआ मेरा,
अँधियारी सारी दूर हुई
सहसा यह बोल उठे जिसने,
उस ज्योतित रेखा को देखा॥
तम तोम न रहने पायेंगे
वह जीवन ज्योति जगायेंगे

(2)
जिसका प्रकाश पाकर विकसें,
रोती मुरझाती सी कलियाँ।
जिस खण्डहर में उल्लू बोले,
उसमें विहँसे दीपावलियाँ॥
युग युग के बन्द कपाट खुलें,
पथ के कण्टक सब हटजायें।
सड़कें निर्धूलि निरापद हों,
आवाहन करती हों गलियाँ॥
शत शत रवि शीश झुकायेंगे।
वह जीवन ज्योति जगायेंगे॥

(3)
दुख जिनकी वाणी से झरता,
चिल्लाती है जिनकी पीड़ा॥
मरघट जिनका मन मानस है,
बन रही चिता जिनकी क्रीड़ा॥
करुणा से कंठ रुँधा जिनका,
आँखों के प्याले छलक रहे-
वे खिल खिल हँसते फिरें,
लगें करने आनंदमयी क्रीड़ा॥
ऐसा अमृत बरसायेंगे
वह जीवन ज्योति जगायेंगे

(4)
पल पल पर जो मरते जीते,
क्षण क्षण में जो रोते गाते।
छट पटा रहा जिनका कण कण,
पर गरल पान करते जाते॥
ये मद्यप पीछे को लौटें,
ऐसी एक दिव्य प्रभा देखें-
नर में नारायण देख सकें,
आँखें जिसको पाते पाते॥
इस भू को स्वर्ग बनायेंगे।
वह जीवन ज्योति जगायेंगे॥


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