तंत्र विद्या का अधिकारी कौन

March 1940

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(ले0-आचार्य आशुतोष मुखोपाध्यय, सिंहभूमि)

तंत्र विद्या और वाममार्ग आज मोटेतौर से समाज में बदनाम हो गये हैं। लोग समझते हैं कि वाम मार्ग मद्य, माँस और मैथुन प्रधान आसुर साधन है। तंत्र विद्या के बारे में मोटी कल्पना है कि इस के जानकार मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण द्वारा अपना स्वार्थ साधन और दूसरों का नुकसान करते है। पर यह धारणा सर्वथा अज्ञानमूलक है। भगवान शंकर कहते है-”वैदिक स्तान्त्रिको मिश्र इति में त्रिविधो मखः।” अर्थात् वैदिक, तान्त्रिक और दोनों से मिला हुआ तीन प्रकार का मेरा यज्ञ है। वैदिक साहित्य का सूक्ष्म अध्ययन करने पर यही विदित होता है कि वैदिक और तान्त्रिक सिद्धान्तों में कोई मतभेद नहीं वरन् दोनों ही एक दूसरे से मिले हुए हैं। वेदोक्त योग शास्त्र और तन्त्र योग में बाह्य उपकरणों का ही भेद है, सैद्धान्तिक भेद नहीं। इसलिए तन्त्र विद्या को भयंकर समझना निरर्थक है।

कामी, लम्पट और स्वार्थी तन्त्र विद्या के अधिकारी नहीं है। उन्हें इसमें प्रवेश करने की आज्ञा नहीं हैं। जब ऐसे लोगों को वह विद्या प्राप्त ही न हो सकेगी तो उसका दुरुपयोग ही भयंकर है। सदुपयोग से तो लोक परलोक का लाभ ही हो सकता है। सुई कपड़े सीने के लिए है यदि कोई अनधिकारी उससे आँखें फोड़ने का काम लेने लगे तो इसमें सुई को दोष देना ठीक न होगा। बन्दूक डाकुओं के हाथ में पड़कर घातक बनती है सिपाही तो उसके द्वारा रक्षा ही करेगा। शास्त्रों ने तन्त्र विद्या को सीखने और सिखाने का अधिकारी केवल सदाचारी और लोक सेवी पुरुषों को ही बताया है।

तन्त्र शास्त्र के दो मार्ग हैं एक वाम मार्ग दूसरा दक्षिण मार्ग। आजकल आम तौर से वाम मार्ग को ही तंत्र माना जाता है। इस वाम मार्ग के अधिकार के बारे में स्पष्ट कर दिया गया हैं कि।

परद्रव्पेषु योऽधश्च-परस्त्रीषु नपुँसकः ।

तस्यैव ब्राह्मणास्यात्र वामे स्यादधि कारिता॥

-मेरु तंत्र

अर्थात्-पराया धन, पराई स्त्री और पराये अपवाद से दूर रहने वाला जितेन्द्रिय ब्राह्मण ही वाम मार्ग का अधिकारी होता है।

अयं सर्वोतमो धर्मः शिवोक्तः सर्व सिद्धिदः।

जितेन्द्रिय स्य सुलभो नान्यस्यानन्त जन्मलिः॥

-पुरश्चर्यार्णाव

अर्थात्- इस शिवजी के कहे हुए सर्वोत्तम और सब सिद्धियाँ देने वाले धर्म (वाम मार्ग) तो इन्द्रिय जीतने वाले योगी के लिए ही सुलभ हैं। अनेक जन्मों में भी लोलुप लोगों के लिए यह सुलभ नहीं होता।

तन्त्राणामतिगूढत्वाचद्भावोऽत्रति गोपितः।

ब्राह्मणो वेद शास्त्रार्थतत्ज्ञो बुद्धिमान् वशौ॥

गूढ़ सन्त्रार्थ भावस्य निर्मथ्योद्धरणे क्षमः।

वाम मार्गेऽधिकारीस्यादितरो दुःख भाग् भवेत्॥

-भावचूडामणि

अर्थात्-तन्त्रों के अतिगूढ़ होने के कारण उनका भाव भी अत्यन्त गुप्त है। इसलिए वेद शास्त्रों के अर्थ तत्व को जानने वाला जो बुद्धिमान और जितेन्द्रिय पुरुष गूढ़ तन्त्रार्थ के भाव का मंथन करके उद्धार करने में समर्थ हो वही वाम मार्ग का अधिकारी हो सकता है। उसके सिवा दूसरा दुःख का ही भागी होता है।

कुछ लोग वाम मार्ग का गलत अर्थ करते हैं। आम अर्थात् टेढ़ा उल्टा। वाम मार्ग अर्थात् टेढ़ा उल्टा मार्ग। यह ठीक नहीं। निरुक्त में वाम का अर्थ-सूचक शब्द प्रशस्य है। प्रशस्य का भावार्थ प्रज्ञावान् होता है। दुर्गाचार्य कहते हैं “य एव हि प्रसावास्य एव हि प्रशस्या भवन्ति।” इससे विदित है कि प्रज्ञावान योगी हुआ ‘वाम’ और उस योगी का जो मार्ग वह ‘वाम मार्ग।’

भगवान् शंकर ने स्पष्ट कर दिया है कि “वामो मार्गः परम गहनोः योगिनामप्यगम्यः।” अर्थात् वाम मार्ग अति कठिन है और योगियों के लिए भी अगम्य है। फिर क्या ऐसी गुह्य विद्या का दुराचारी और लम्पट प्राप्त कर सकते हैं? यदि कोई अनधिकारी इसे प्राप्त करके पाप कर्म करता है तो उसके लिए भगवान् शिव का शाप है कि “लोलुपो नरकं ब्रजेत्” अर्थात् लोलुप वाममार्गी नरक में गिरता है।।


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