सत्य

March 1940

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(महात्मा गाँधी)

सत्य शब्द का मूल सत् है। सत् के मानी है होना, सत्य अर्थात् होने का भाव। सिवा सत्य के और किसी चीज की हस्ती ही नहीं है। इसीलिये परमेश्वर का सच्चा नाम सत् अर्थात् सत्य है। चुनाँचे, परमेश्वर सत्य है, कहने के बदले सत्य ही परमेश्वर है यह कहना ज्यादा मौजूँ है। राज चलाने वाले के बिना, सरदार के बिना, हमारा काम नहीं चलता, इसी से परमेश्वर नाम ज्यादा प्रचलित है और रहेगा। पर विचार करने से तो सत्य ही सच्चा नाम मालूम होता है और यही पूर्ण अर्थ का सूचक भी है।

जहाँ सत्य है वहाँ ज्ञान-शुद्ध ज्ञान है ही। जहाँ सत्य नहीं वहाँ शुद्ध ज्ञान हो नहीं सकता, इसीलिए ईश्वर नाम के साथ चित्-ज्ञान शब्द जोड़ा गया है। जहाँ सत्य ज्ञान है वहाँ आनन्द ही हो सकता है, शोक हो ही नहीं सकता और चूँकि सत्य शाश्वत है इसलिये आनन्द भी शाश्वत होता है। इसी कारण हम ईश्वर को सच्चिदानन्द के नाम से भी पहचानते हैं।

इस सत्य की आराधना के लिये ही हमारी हस्ती हो और इसी के लिये हमारी हर एक प्रवृत्ति हो। इसी के लिये हम हर बार श्वासोच्छ्वास लें। ऐसा करना सीख जाने पर हमें बाकी नियम सहज ही हाथ लगेंगे और उनका पालन भी आसान हो जायगा। बगैर सत्य के किसी भी नियम का शुद्ध पालन अशक्य है।

आमतौर पर सत्य के मानी हम सच बोलना ही समझते हैं। लेकिन हमने तो सत्य शब्द का विशाल अर्थ में प्रयोग किया है। विचार में, वाणी में और आचार में सत्य-ही-सत्य हो। इस सत्य को सम्पूर्णतया समझने वाले को दुनिया में दूसरा कुछ भी जानना नहीं रहता, क्योंकि सारा ज्ञान इसमें समाया है, इसे हम ऊपर देख चुके हैं। इसमें जो न समा सके वह सत्य नहीं है, ज्ञान नहीं है, तो फिर उससे सच्चा आनन्द तो मिल ही कैसे सकता है? यदि हम इस कसौटी का प्रयोग करना सीख जाएं तो तुरन्त ही हमें पता चलने लगे कि कौन सी प्रवृत्ति करने योग्य है और कौन सी त्याज्य; क्या देखने योग्य है, क्या नहीं; क्या पढ़ने योग्य है, क्या नहीं।

लेकिन यह सत्य जो पारस मणि रूप है, कामधेनु रूप है, कैसे मिले? इसका जवाब भगवान ने दिया है, अभ्यास से और वैराग्य से। सत्य की ही लगन अभ्यास है और उसके बिना दूसरी तमाम चीजों के लिये आत्यन्तिक उदासीनता वैराग्य है। यह होते हुए भी हम देखा करेंगे कि एक का सत्य दूसरे का असत्य है। इससे घबराने की कोई जरूरत नहीं। जहाँ शुद्ध प्रयत्न है वहाँ भिन्न मालूम होने वाले सब सत्य एक ही पेड़ के असंख्य भिन्न दीख पड़ने वाले पत्तों के समान हैं। परमेश्वर भी कहाँ हर आदमी को भिन्न नहीं मालूम होता? तो भी हम यह जानते हैं कि वह एक ही है। लेकिन सत्य ही परमेश्वर का नाम है इसलिये जिसे जो सत्य लगे वैसा वह बरते तो उसमें दोष नहीं, यही नहीं, बल्कि वही कर्तव्य है। यदि ऐसा करने में गलती होगी तो वह भी सुधर जायेगी। क्योंकि सत्य की शोध के पीछे तपश्चर्या होती है यानी स्वयं दुःख सहन करना होता है, उसके लिये मरना भी पड़ता है, इसलिये उसमें स्वार्थ की तो गन्ध तक नहीं होती। ऐसी निःस्वार्थ शोध करते हुए आज तक कोई ऐसा न हुआ जो आखिर तक गलत रास्ते गया हो। रास्ता भूलते ही ठोकर लगती है और फिर वह सीधे रास्ते पर चलने लगता है। इसीलिये सत्य की आराधना भक्ति है और भक्ति तो ‘सिर का सौदा है’,अथवा वह हरि का मार्ग है अतः उसमें कायरता की गुंजाइश नहीं। उसमें हार जैसा कुछ है ही नहीं। वह तो ‘मर कर जीने का मन्त्र है।’

इस सिलसिले में हरिश्चन्द्र, प्रह्लाद, रामचन्द्र, इमाम हसन, हुसेन, ईसाई सन्त वगैरा के चरित्रों का विचार कर लेना चाहिये और सब बालक, बड़े, स्त्री पुरुष को चलते बोलते, खाते-पीते, खेलते, मतलब हर काम करते हुए सत्य की रट लगाये रहनी चाहिये। ऐसा करते-करते वे निर्दोष नींद लेने लग जायँ तो क्या ही अच्छा हो ? यह सत्य रूपी परमेश्वर मेरे लिये तो रत्नचिन्तामणि साबित हुआ है। हम सब के लिये हो।

सप्त महाव्रत


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