(ले0-डॉ0 पूनमचंद्र खत्री, बीकानेर)
गत अंक में बता चुका हूँ कि क्रोध भयंकर विषधर है। जिसने अपनी आस्तीन में इस साँप को पाल रखा है उसका सर्वनाश होना ही है। जो पेट के ऊपर तेज छुरे की धार बाँधे फिरता हो उसका ईश्वर ही रक्षक है एक प्राचीन नीतिकार का कहना है “जिसने क्रोध की अग्नि हृदय में प्रज्वलित कर रखी है उसे चिता से क्या प्रयोजन?” अर्थात् वह तो बिना चिता के ही जल जाता था। ऐसी महाव्याधि से दूर रहना ही कल्याणकारी है। जिन्हें क्रोध करने की बीमारी नहीं है उन्हें पहले से ही सावधान होकर इससे दूर रहना चाहिए और जो इसके चंगुल में फंस चुके हैं उन्हें पीछा छुड़ाने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
क्रोध की जड़ अज्ञान है। आदमी जब अपनी और दूसरों की स्थिति के बारे में गलत धारणा कर लेता है तब उसे कुछ को कुछ दिखलाई पड़ने लगता है। बेटे ने आज्ञा नहीं मानी पिता को क्रोध आ गया। क्योंकि पिता समझता है कि बेटा मेरी संपत्ति है, मेरी जायदाद है, मेरा दास है, उसे मेरी आज्ञा माननी ही चाहिये। लेकिन क्रिया जब इसके उलटी होती है तो गुस्सा आता है, स्त्री ने आज बैंगन का साग न बना कर दाल बना ली आपको गुस्सा आ रहा है कि उसने ऐसा क्यों किया, मानो आप समझते हैं कि हर एक काम उसे आपकी आज्ञा से ही करना चाहिये। जिसे आप कुल का छोटा समझते हैं वह ऊँची कुर्सी पर बैठ जाता है तो आप आग बबूला हो जाते हैं। छोटा भाई आपसे बिना पूछे कोई दावत दे डालता है आप कुढ़ जाते हैं। कोई अजनबी ग्राहक आपकी दुकान पर आता है और किसी चीज के निश्चित भाव की अपेक्षा आधे दाम लगाता है आप उसे दस गालियाँ सुनाते हैं। आप वैष्णव हैं, कोई शैव होने की श्रेष्ठता बताता है आप उस पर बरस पड़ते हैं। किसी के विचार आपसे नहीं मिलते, वह मतभेद रखता है, बस आप उसे दुश्मन समझने लगे। जब यह भावना गुप्त रूप से मन में घर बना लेती है कि लोगों को मेरी इच्छानुसार चलना चाहिये तब क्रोध का बीजारोपण होता है। पिल्लों की लड़ालड़ा कर जैसे कटखने स्वभाव का बना दिया जाता है और चिढ़ाने से बच्चा जैसे जिद्दी बन जाता है उसी प्रकार ‘सब मेरे इच्छानुवर्ती हों’ की गुप्त भावना प्रतिकूल घटनाओं से टकरा कर बड़ी विकृत बन जाती है और मौके बे मौके उग्र रूप धारण कर के क्रोध की शकल में प्रकट होती है।
इस मूल को काटे बिना क्रोध को नष्ट करना असंभव है। हमें प्रतिदिन एकान्त में बैठ कर कुछ देर शान्तिपूर्वक अपनी वास्तविक स्थिति के बारे में सोचना चाहिये। हमें इतना अधिकार किसने दिया है कि अपने बिरानों को सब बात में अपनी इच्छानुसार चलावें? हम स्वयं भी उतना ही अधिकार रखते हैं जितना दूसरे, फिर जब आप दूसरों से प्रतिकूल विचार रखते हैं, तो दूसरों को वैसा अधिकार क्यों नहीं है? समझना चाहिये कि मैं स्वयं किसी से बढ़ा या किसी का स्वामी न होकर बराबर की स्थिति का हूँ। समाज का संचालन समझौते के आधार पर होता है। इसलिये जहाँ मतभेद होता है वहाँ काम चलाऊ समझौता कर लिया जाता है। यह कहना भूल होगी कि कुटुम्ब की जिम्मेदारी मुझ पर है इसलिये मैं अपनी इच्छानुसार सारे परिवार को न चलाऊं तो व्यवस्था न रहेगी। यदि मैं कुलपति हूँ तो मेरा उत्तरदायित्व इतना ही है कि आर्थिक नीति सदाचार, व्यवस्था और वर्तमान तथा भावी उन्नति के मार्ग से सब लोगों का परिचय रखूँ। हर बात में नियंत्रण नहीं हो सकता। आपके पोते को कबड्डी खेलने का शौक है आप उस पर दबाव डालते हैं कि नहीं फुटबाल ही खेलनी पड़ेगी यह तो साम्राज्यवाद हुआ, फिर तो आप तानाशाह ठहरे। सबको विचार स्वातंत्र्य का अधिकार है और हमारा कर्तव्य इतना ही है कि प्रेमपूर्वक उनको औचित्य से परिचित रखें और सद्भावनापूर्ण प्रयत्न करके दूसरों को मार्ग पर लावें। मन से जहाँ साम्राज्यवादी भावना मिटी कि क्रोध रूपी महायुद्ध अपने आप बंद हो जायेगा।
इसी तरह की एक और भी बात है। जब हम यह मानने लगते हैं कि जो कुछ हम जानते हैं वही ठीक है तब भी संघर्ष और क्रोध के अवसर आते हैं। पश्चिमीय वैज्ञानिक, जीवन भर किसी बात का अनुसंधान करते हैं। किसी मत को निश्चित करते हैं। किन्तु यदि उन्हें अपने मत में संदेह हुआ तो बिना बीस वर्ष के परिश्रम का खयाल किये तुरंत अपना मत बदल लेते हैं। ज्ञान का समुद्र अथाह और अलक्ष है जो यह कहता है कि मैं जो जान गया वही पूर्ण सत्य है वह अँधेरे में भटक रहा है। अपने में डेढ़ और सारी दुनिया में आधी अकल मानने वाले ऐसी मूर्खता में जकड़े हुए हैं जिसको उपहासास्पद न समझ कर दया का पात्र गिनना चाहिये। मूर्खता भी क्रोध का कारण बनती है। हम मानते हैं कि शरीर पाँच तत्वों का बना हुआ है कोई साबित करता है कि, पाँच तत्वों के अलावा अमुक अन्य तत्व भी इसमें शामिल हैं तो नाराज होने की कोई बात नहीं। उसकी बात ध्यानपूर्वक सुननी चाहिये और मनन करना चाहिये कि यह बात कहाँ तक ठीक है। गले न उतरे तो छोड़ देना चाहिये। पर यह न समझ लेना चाहिये कि जो हम जानते हैं उसके अलावा सब बातें झूठ हैं। अपने को ज्ञान पथ का पथिक जिज्ञासु समझते रहना भी क्रोध के एक बड़े द्वार को बन्द कर देना है।
अपने को अधिकारी और पूर्ण ज्ञानी न मानने के अतिरिक्त क्रोध की शान्ति के कुछ और भी उपाय हैं। प्रतिज्ञा कर लीजिये “अपने दुश्मन क्रोध को पास न फटकने दूँगा जब आवेगा तभी उसका प्रतिकार करूंगा।” हो सके तो इन शब्दों को लिखकर किसी ऐसे स्थान पर टाँग दीजिये जहाँ दिन भर निगाह पड़ती रहे। ऐसा करने से यह विचार दृढ़ हो जावेंगे कि क्रोध दुश्मन है और उसका प्रतिकार करना है। जब क्रोध आवे तो तुरंत अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण करना चाहिये और अपने गालों पर जोर-जोर से चपतें लगाना चाहिये कि प्रतिज्ञा क्यों तोड़ रहे हो। जो लोग चपतें न लगाना चाहें वे मौन धारण कर सकते हैं। गुस्सा आया कि चुप्पी साध ली। क्रोध का चुप्पी बढ़िया इलाज है। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। क्रोध में सने हुए कटु वाक्य मुँह से न निकलेंगे तो किसी से झगड़ा न होगा। और तृष्णा रहित स्थान पर पड़ी हुई अग्नि की तरह कुछ देर में अपने आप शान्त हो जायेगा।
क्रोध के समय ठंडे पानी का एक गिलास पीना-आयुर्वेदीय चिकित्सा है। इससे मस्तिष्क और शरीर में बढ़ी हुई गर्मी शान्त हो जाती है। उस स्थान पर से उठ कर कहीं चले जाना या और काम में लग जाना भी अच्छा इलाज है। इससे मन की दशा बदल जाती है और चित्त का झुकाव दूसरी ओर हो जाता है। क्रोध आते ही गायत्री का जप करने लगना यह भी अनुभूत और परिक्षित प्रयोग है।