(ले.-श्री. तुलसीराम शर्मा, हाथरस)
येपापानि शकुर्वन्ति मनोवाक् कर्म बुद्धिनिः।
तेतपन्ति महात्मानोन शरीरस्य शोषणम्॥ 99॥
(म॰ भा0 वन॰ अ॰ 207)
मन, वाणी और शरीर से जो पाप कर्म नहीं करते हैं वे महात्मा मानों तपस्या करते हैं शरीर का सुखाना तप नहीं मन वाणी शरीर के पाप कर्म मनुस्मृति में इस प्रकार लिखे हैं-
परद्रव्ये ध्वभिधानं मनसा बिष्ट चिन्तनम् ।
वितयामि विदेशच त्रिविधं कर्म मानसम॥ 5॥
दूसरे के द्रव्य को अन्याय से लेने की इच्छा करना, मन से किसी का अनिष्ट (वध आदि) चिन्तन करना, लोक परलोक कुछ नहीं सब डकोसिला है, ऐसा मन में निश्चय करना, ये तीन प्रकार के मानसिक पाप हैं॥ 5॥
पारुण्य मनृतं चैव पैशुन्य चापि सर्वशः।
अम्सबन्ध प्रलापश्चवाड् मयं स्याच्चतुंिवविधि॥ 6॥
रूखे वचन, मिथ्या भाषण, चुगलखोरी, और निध्प्रयो-जन की बातें, ये वाणी के पाप हैं।
अदत्ताना मुपादामं हिंसा चैवाविधानतः।
पर दारोपसेवा च शाररंत्रिविधं स्मृतम्॥ 7॥
(मनु0 अ॰ 12)
अन्याय से दूसरे का दृव्य लेना, अविधि की हिंसा, स्त्री गमन ये तीन प्रकार के शरीर के पाप हैं॥ 7॥
साराँश यह है कि मन वाणी शरीर के 10 प्रकार के पाप कर्म से जो बचा है वह तपस्वी है।