योग महिमा।

March 1940

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(ले.-श्री. नारायणप्रसाद तिवारी, कान्हीवाड़ा)

योग इतना गूढ़ तथा महत्व का विषय है कि मुझ जैसे पुरुष का लेखनी उठाना ही हास्यास्पद है, किन्तु मनुष्य अपने विचारों में स्वतन्त्र है। औचित्य तथा अनौचित्य पर सम्मति प्रगट करने के लिये संसार के सामने अपने विचार रखना भी प्रत्येक सत्यासत्य-निर्णय-प्रेमी का कर्तव्य है, यही धारण हृदय में धर का साहसपूर्वक आज उस अखण्ड ज्योति पर लिखने चला हूँ जिस ज्योति के प्रकाश में मनुष्य सदा सुख मार्ग पर चल सकता है।

योग के आद्य प्रवर्त्तक अवढ़रदानी शिवजी माने गये हैं। इसी से उन्हें योगीराज अथवा योगेश्वर भी कहा जाता है। केवल योग का उपदेश शिवजी के मुँह से सुनने के कारण ही जब कि व्यास पुत्र भी शुकदेवजी पक्षि योनि से उद्धार हो दूसरे जन्म में परम योगी बन गये तो योग साधक को सर्व सिद्धि मिलने में क्या आश्चर्य है। शिवजी ने स्वयं कहा है :-

विविच्य सर्व शास्त्राणि, विचार्य च पुनःपुनः।

इदमेकं सुनिष्पन्नं योग शास्त्रं परं मतम्॥

मैंने समस्त शास्त्रों की विवेचना कर उन शास्त्रों का पुनः पुनः विचार किया और मैं इसी निश्चय पर पहुँचा हूँ कि योग शास्त्र ही सर्वश्रेष्ठ शास्त्र हैं।

बिना योग के मनुष्य को ज्ञान भी नहीं होता “योग हीनं कथं ज्ञानम् मोक्षदं।” श्री शिवजी ने योग की बड़ाई करते हुए पार्वती जी से कहा है कि :-

ज्ञान निष्ठो विरक्तोऽपि धर्मज्ञोऽपि जितेन्द्रियः।

बिना योगेनदेवोऽपि न मुक्तिं लभते प्रिये॥

हे प्रिये, ज्ञानन्वान, संसार विरक्त, धर्मज्ञ, जितेन्द्रिय, या कोई देवता भी योग के बिना मुक्ति नहीं पा सकता।

घेरंड संहिता में कहा है :-

नास्ति माया समं पापं, नास्ति योगात्परं बलम्।

नास्ति ज्ञानात्परो बन्धुर्नाहकाँरात्परो रिपुः ॥

“माया से बढ़ कर पाप नहीं, योग से बढ़ कर बल नहीं, ज्ञान से बढ़ कर बन्धु नहीं और अहंकार से बढ़ कर शत्रु नहीं।”

योग शब्द की उत्पत्ति ‘युग’ धातु से ली जाती है और “योगश्चित वृत्ति निरोधः” चित्त की वृत्तियों को रोकने का नाम योग है, यह अर्थ किया जाता है। “सर्व चिन्ता परित्यागो निश्चिन्तो योग उच्यते” जब तक मनुष्य सब चिन्ता छोड़े रहता है तब तक उसके मन की उसी लयावस्था को योग कहते हैं- यह अर्थ भी योग शास्त्र में पाया जाता है।

योग का अर्थ ध्यान व समाधि भी है योग शब्द का अर्थ, जोतने, बोने, लगाने, मेल करने आदि अर्थों में भी हुआ है, उपनिषद् में इसका अर्थ घोड़ों को वश में करने में आया है फिर इसका अर्थ इन्द्रियों को वश में करने में हुआ।

योग ही सब से बड़ा बल है, इसी योग बल द्वारा भारतवर्ष जगद्गुरु था, ज्यों-ज्यों योग बल का ह्रास हुआ त्यों-त्यों दशा दयनीय होती गई। हाँ योगमार्ग दुस्तर मार्ग अवश्य है। “युरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति।” किन्तु जहाँ काँटे हैं वहीं तो फूल होते हैं, यदि इस मार्ग में कष्ट हैं तो उतना आनन्द भी है, योग में क्या है? इसका उत्तर मैं तो यही दूँगा कि योग में क्या नहीं है?

भूत भविष्यत् ज्ञान, रोग मोचन, पूर्व जन्म का हाल जानना-दूसरे के मन की बात जानना, मैस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म, ऑकल्ट साइंस(Occult Soience) सब योग के अंतर्गत ही तो हैं, छोटे मोटे रूप में प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन किसी न किसी रूप में योगाभ्यास करता है, किन्तु वह अपने में इस छिपी हुई शक्ति का भास नहीं करता, जिस प्रकार लकड़ी में अग्नि, बीज में पौधा, गुप्त रूप से विद्यमान है उसी प्रकार हम में योग विद्युत है।

इस छोटे बच्चे को गोद में लेकर थपकियां देकर सुलाते हैं और जब तक वह गाढ़ी निद्रा में नहीं होता तब तक “अब सो गया, अब सो गया” बस इसी भाव पर लक्ष्य रहता है। झाड़-फूँक, मन्त्र, तन्त्र भी योग के सूक्ष्म रूप हैं। जिन रहस्यों को पाश्चात्य विद्वानों ने वैज्ञानिक आविष्कार के रूप में अब प्रगट किया है, भारत के योगियों के लिये यह क्षुद्र बात थी, बल्कि पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी उस तह को पहुँच भी नहीं सके हैं जो योगियों के लिये बायें हाथ का खेल था। अपने शरीर को वायु समान हलका और हाथी के समान भारी बनाना बिना यंत्र हवा में उड़ना-और कहाँ तक कहा जावे मृत्यु भी जिन्होंने वशीभूत कर लिया था क्या ये आलौकिक चमत्कार वर्तमान युग में सभ्यता की डींग मारने वालों में हैं। साधना के अभ्यास से इन शक्तियों का आविर्भाव भी किया जा सकता है-एक विद्वान का कथन है।

रुड्डठ्ठ द्बह्य द्धद्बह्य शख्ठ्ठ ड्डह्ष्द्धद्बह्लद्गष्ह्ल ढ्ढद्ध ब्शह्व श्चह्वह्ल द्धशह्ह्लद्ध श्चह्शश्चद्गह् द्गद्धद्धशह्ह्लह्य ह्लश ष्ह्वद्यह्लद्बक्ड्डह्लद्ग ड्डठ्ठस्र श्चह्वह्ल द्बठ्ठह्लश द्वशह्लद्बशठ्ठ ह्लद्धद्ग श्चशख्द्गह् ह्लद्धड्डह्ल द्बह्य द्यड्डह्लद्गठ्ठह्ल ड्डठ्ठस्र द्बठ्ठड्ढशह्ठ्ठ द्बठ्ठ ब्शह्व ह्लद्धद्ग स्रशशह् ह्लश ह्यह्वष्ष्द्गह्यह्य द्बह्य ख्द्बह्लद्धद्बठ्ठ ब्शह्वह् ह्द्गड्डष्द्ध ड्डठ्ठस्र द्बह्ल द्बह्य द्धशह् ब्शह्व ह्लश ह्वठ्ठद्यशष्द्म द्बह्ल.

तात्कालिक फल दिखलाने वाली योग विद्या से बढ़ कर और कोई विद्या नहीं, मैंने स्वयं इसी योग विद्या के आधार पर रोगियों को संखिया, कुदला आदि विष तक हजम करते देखा है, योगी को अष्टसिद्धि प्राप्त करना आसान खेल है, श्रीकृष्णचन्द्र जी ने स्वतः इस योग विद्या की बढ़ाई श्रीमद्भगवद्गीता में की है जो पंचम वेद माना जाता है। यह सार्वभौमिक विद्या है और किसी जाति विशेष इस पर सत्वाधिकार नहीं कर सकती।

योग-बढ़ाई में बहुत कुछ कहा जा सकता है। कई शास्त्र केवल इसी विषय पर ऋषि बना चुके हैं अतएव उसके महत्व में अधिक कहना सूर्य को दीपक दिखाना है।


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