क्या मूर्ति पूजा अवैज्ञानिक है?

March 1940

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(ले.-प्रो. प्रोफेसर डबल्यू. रेले, न्यूयार्क)

(खास अखण्ड ज्योति के लिए भेजे हुए अंग्रेजी लेख का अनुवाद)

इस लेख में मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि मूर्ति पूजा करनी चाहिए या नहीं। मूर्ति पूजा को जो पुण्य या पाप जैसा कुछ समझते हैं, समझने में स्वतन्त्र हैं। जिनका मूर्ति में विश्वास हो वे उसका पूजन करें, जिनको विश्वास न हो वे न करें। दोनों में क्या ठीक है यह विवेचना करने का इस समय अवकाश नहीं है आज तो मुझे यही बताना है कि मूर्ति पूजा की विधि वैज्ञानिक है या अवैज्ञानिक?

इस प्रश्न पर एक वैज्ञानिक की भाँति परीक्षात्मक दृष्टि से विचार करने पर मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि किसी चतुर पदार्थ विज्ञानवेत्ता ने स्वास्थ्य, प्रकृति, पदार्थ शब्द और विद्युत शास्त्र की पूरी जानकारी के साथ मूर्ति पूजा का सारा विधान ऐसे उपयुक्त ढंग से निर्माण किया है जो आदमी की शारीरिक और मानसिक उन्नति के लिए लाभप्रद हो सके।

मैं स्वयं ईसाई धर्मानुयायी होने के कारण मूर्ति पूजा के सारे विधान को अच्छी तरह नहीं जानता। सुना है कि हिन्दुस्तान में असंख्य देवी देवता हैं और एक एक की कई-कई आकृति की मूर्तियाँ हैं इस प्रकार हिन्दू धर्म के अंतर्गत अनेक संप्रदाय, उप संप्रदाय हैं और उन सब की मत विभिन्नता का असर मूर्ति पूजा के विधान पर भी पड़ा है, इसलिए कई लोग कई तरह से पूजा करते हैं। मैं उन बारीकियों और मतभेदों से भली प्रकार परिचित नहीं हूँ इसलिए गहराई में न जाकर उन मोटी बातों पर प्रकाश डालूँगा जो प्रायः सब प्रकार की पूजा में काम आती हैं।

शंख ध्वनि और घंटा घड़ियाल पूजा का प्रधान अंग हैं। शंकर, विष्णु गणेश, देवी, गुड़च (Gurhecl) से प्रोफेसर साहब का मतलब किस देवता से है यह हम नहीं समझ सके। संपा0) आदि किसी देवता की पूजा शंख और घड़ियाल बजाये बिना नहीं होती। सन् 1928 में वर्लिन यूनीवर्सिटी ने शंख ध्वनि का अनुसंधान कर के यह सिद्ध किया था कि शंख ध्वनि की शब्द लहरें बैक्टीरिया नामक संक्रामक रोग कीटों को मारने में उत्तम और सस्ती औषधि हैं। प्रति सैकिण्ड 27 घन फीट वायु शक्ति के जोर से बजाया हुआ शंख 1200 फीट दूरी तक के बैक्टेरिया जन्तुओं को मार डालता है और 2600 फीट तक के जन्तु इस ध्वनि के कारण मूर्छित हो जाते हैं। बैक्टीरिया के अतिरिक्त हैजा, गर्दन तोड़ बुखार, कंपजुरीं के कीड़े भी कुछ दूरी तक मरते हैं, ध्वनि विस्तारक स्थान के आस-पास का स्थान तो निःसंदेह निर्जन्तु हो जाता है। मृगी, मूर्च्छा, कंठमाया और कोढ़ के रोगियों के अन्दर शंख ध्वनि की जो प्रति किया होती है वह रोग नाशक कही जा सकती है। शिकागो मेयो अस्पताल के ख्यातिनामा डॉक्टर डी0 ब्राइ में तेरह बहरे लोगों की श्रवण शक्ति को शंख ध्वनि की मदद से सचेत किया था।

घड़ियाल का घंटा भी शंख से कुछ ही नीची श्रेणी का है। किन्हीं-किन्हीं स्थानों पर तो उसकी उपयोगिता शंख से भी अधिक है। घड़ियाल अकसर पीतल और काँसे के मिश्रण से बनी हुई होती है। इस पर चोट लगाने से एक प्रकार के कम्पन लिये हुए लहरें पैदा होती हैं। यह लहरें अद्भुत शक्ति सम्पन्न होती हैं। विद्युत मापक यंत्र का परीक्षण अब यह साबित कर चुका है कि उनमें तेरह से लेकर सैंतीस घोड़े तक की ताकत होती है। जिसमें ध्वनि प्रवाह लहर न निकल सके किसी ऐसे बन्द मकान के अन्दर यदि नौ मिनट तक घड़ियाल बजाई जाय तो निस्संदेह कोई दीवार फट जायगी। यह शब्द प्रवाह स्नायु रोगों के लिये बड़ा लाभप्रद होता है। काँसे के बर्तन के ध्वनि कम्पन विष नाशक और उत्तेजनादायक होते हैं। अफ्रीका निवासी और हिन्दू लोग काँसे का बर्तन बजा कर जहरीले साँप के काटे हुए रोगी को अच्छा करने की क्रिया प्राचीन काल से जानते चले आ रहे हैं। मास्को के सेनेटोरियम में काँसे की शब्द ध्वनि से तपैदिक रोग के बीमारों को स्वस्थ करने के सफल प्रयोग हो रहे हैं। निद्रित और अवसादित ज्ञान तन्तुओं को घड़ियाल एक स्फूर्ति प्रदान करती है। आप में सके अनेक बर्मिंघम के सन् 1916 वाले उस मुकदमें से परिचित होंगे जिसमें एक नास्तिक ने पड़ोस के गिरजाघर में बजने वाले घंटे से स्वास्थ्य- हानि होने का दावा अदालत में किया था। मुद्दई का कहना था कि घंटा ध्वनि से हमें शारीरिक क्षति पहुँचती है। अदालत ने तीन प्रमुख वैज्ञानिकों का एक बोर्ड कायम किया जो घंटा शब्द को द्वारा होने वाले असर की जाँच करे। बहुमूल्य यंत्रों द्वारा यह परीक्षण सात महीने होता रहा अन्त में वैज्ञानिक बोर्ड ने यही घोषित किया कि घंटा नाद से हानि तो दूर उल्टा लाभ होता है। कई शारीरिक कष्ट कटते हैं और मानसिक उत्कर्ष होता है। घंटा नाद के कम्पन मानसिक गतिविधि की दिशा एक ही ओर करके एक प्रकार की तन्द्रा और शान्ति प्रदान करते हैं। इस दृष्टि से पूजा की घंटा ध्वनि अनुपयोगी नहीं ठहराई जा सकती।

घृत और कपूर के दीपक, अगर या धूप की बत्ती जलाना एवं हवन आदि की क्रिया वायु शोधन के लिए बहुत ही उपयोगी है, गंदे घरों की सफाई के लिए कपूर गंधक आदि का तीक्ष्ण धुँआ भरना एक वैज्ञानिक प्रणाली है। पौष्टिक और सुगंधित वस्तुओं को जलाना तो दुहरा काम करता है। वायु की गरमी और विषैलेपन को जलाने के साथ-साथ ऑक्सीजन वायु में रहने वाले सूक्ष्म तत्व ओजोन का भी संमिश्रण करता है जो रक्त शुद्धि के लिये बहुत हो फायदे मन्द हैं और मस्तिष्क को ठंडक प्रदान करती है।

एक बात और भी मैंने सुनी है, वह यह कि पूजा में सब बर्तन ताँबे के होते हैं और हिन्दू उन्हें इतना पवित्र मानते हैं कि कोई उनसे मुँह लगा कर पानी नहीं पीता। शुरू में जब मुझे यह मालूम हुआ था कि ताँबे के बर्तन का प्रयोग इतनी अधिकता से होता है तब मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था क्योंकि यह मानी हुई बात है कि ताँबे का मिश्रण पानी को विषैला बनाता है। उसकी सूक्ष्म मात्रा तो लाभप्रद है परन्तु कुछ भी अधिकता होना बुरा है। खटाई नमक या मुँह का थूक ताँबे से मिलकर फौरन उसका अधिक भाग खुरच लेते हैं। यही कारण है कि ताँबे के बर्तन में कोई मनुष्य साग, दाल, चटनी या शोरबा रखकर न खायेगा। जिन गिलासों से मुँह की लार लगती है उनकी धातु स्वतः ही अधिक मात्रा में छूट जाती है जब मेरे एक मित्र ने यह बताया कि हिन्दू लोग अपनी धार्मिक भावना के अनुसार ताँबे के बर्तनों में रख कर कुछ भी नहीं खाते पीती मुँह लगा कर उसे झूठा नहीं करते। ताँबे के बर्तनों की पूजा में इतना ही प्रयोग होता है कि उनमें भरा हुआ जल रखा रहे और उसे अलग से इस प्रकार चरणोदक आदि के रूप में पिया जाय जिससे मुँह उस पात्र से न लगे। तब मुझे सन्तोष हुआ और समझा कि प्राचीन भारतीय तत्व वेत्ता जो विष में से अम्त निकालने के लिये प्रसिद्ध थे इस मौके पर भी चूके नहीं हैं। उन्होंने ताँबे के पात्र का पूजा में इस चतुराई के साथ समन्वय करके निश्चय ही अपनी सुदृढ़ वैज्ञानिकता का परिचय दिया है।


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