मरने के बाद हमारा क्या होता है?

March 1940

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(ले.-श्री. प्रबोधचन्द्र गौतम, साहित्य रत्न, कुर्ग)

अपघात, आत्म-हत्या, दुर्घटना या किसी के द्वारा वध किये जाने पर जीव और शरीर का अकस्मात सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। यह आघात जीव को उद्विग्न कर देता है। स्वाभाविक मृत्यु छोटी मोटी बीमारी के कारण होती है। बीमारी के कारण धीरे-धीरे सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर का सम्बन्ध विच्छेद होने की क्रिया आरम्भ हो जाती है और कुछ दिनों में यह विच्छेद क्रिया पक जाती है। पक जाने पर कार्य सुगम हो जाता है। पक जाने पर फूल या फल स्वयमेव बिना किसी कठिनाई के टूट पड़ते हैं लेकिन यदि उन्हें कच्ची दशा में ही तोड़ा जाय तो टूटने की क्रिया कष्टप्रद होती है। दीमक ने जिस पौधे की जड़ खोखली कर दी है वह आसानी से एक ही झटके में उखड़ जाता है किन्तु हरा-भरा पौधा उखाड़ने में काफी बल प्रयोग होता है और उखड़ते समय जड़ें बड़े कष्ट के साथ टूटती हैं और वे खिंचते खिंचते जमीन में से मिट्टी आदि चीजों को साथ खींच ले जाती हैं। दुर्घटनापूर्ण आकस्मिक मृत्यु से भरा हुआ जीव शरीर में से उन भौतिक चीजों को भी साथ ले जाता हैं जिनकी स्वाभाविक मृत्यु में आवश्यकता नहीं होती।

साधारण मृत्यु से पूर्व जो रोग आरम्भ होता है वह शरीर और मन को पीड़ित करके एक प्रकार की मूर्च्छा में ले जाता है। कई लोग मरने से पूर्व तक सावधानी के साथ बातचीत करते रहते हैं पर इससे यह न समझना चाहिए कि उनकी संज्ञा स्वस्थ अवस्था जैसी ही है। पीड़ा की कमी और मनोबल बढ़ा होने के कारण ही उनकी बातें अधिक विक्षिप्त नहीं होतीं। थोड़ा सा फर्क तो तब भी आ जाता है। किन्तु बीमारी की दशा में या मृत्यु से पूर्व जितनी असावधानी होने की आशा की जाती है उससे कम होने पर लोग आश्चर्य करते है। और मृत्यु के उपरान्त तो उस साधारण सावधानी का धुँधला चित्र लोगों की आँखों में रह जाता है एवं थोड़ी असावधानी याद न रह कर यही स्मरण रह जाता है कि अमुक सज्जन मृत्यु से पूर्व सावधानीपूर्वक बातचीत करते रहे थे या बोलते चालते मरे थे। परन्तु असल में ऐसी बात नहीं होती। मृतक की अपनी स्थिति बदल जाती है। इसका थोड़ा सा अनुभव आपको कई बार हुआ होगा। आप को कभी न कभी तेज बुखार जरूर आया होगा उस समय की अपनी मनोदशा का स्मरण कीजिए। बुखार की तेजी होते हुए भी आपने कुटुम्बियों से बातचीत की होगी, उनके प्रश्नों का उत्तर दिया होगा। नौकरों को जरूरी काम काज बताया होगा किसी को सलाह मशवरा भी दिया होगा। बाहरी दृष्टि से देखा जाए तो आप स्वस्थ मालूम होते हैं क्योंकि सभी बात चीत ठीक तौर से और बुद्धिपूर्वक कर रहे हैं परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से ऐसा प्रतीत नहीं होगा। बुखार की दशा में अपना मन भारी और उथल पुथल सा हो जाता है। अपनी स्थिति ऐसी मालूम पड़ती है मानो हमारा शरीर जड़ पदार्थ के समान और कुछ हल्का होकर ऊपर उड़ सा जाता है। दूसरे लोगों से जैसा राग द्वेष स्वस्थ अवस्था में होता है वैसा बीमारी की दशा में नहीं होता। यदि ज्वर का ही तीव्र प्रवाह होता है तो प्रेमिका को गले लगाने की इच्छा नहीं होती दुश्मन सामने आ जाय तो उतना क्रोध नहीं आता। नौकरों पर हुकूमत जताने को मन नहीं होता। यह साधारण ज्वर की मनोदशा के चित्र हैं। जिस बीमारी ने सूक्ष्म और स्थूल शरीरों के बंधनों को तोड़ डाला है उस बीमारी की दशा में तो मन और भी बदल जाता है। यही मन परिवर्तन एक प्रकार की मूर्छा है जिसमें मृत्यु कष्ट की भयं करता कम हो जाती है। यह एक तरह का प्राकृतिक क्लोरोफार्म है जिसके द्वारा आपरेशन का कष्ट पूरी तरह अनुभव नहीं हो पाता। मृत्यु के समय की बेहोशी ईश्वर ने इसलिए बनाई है कि जीव को मृत्यु कष्ट की भयंकर यातना ना भोगनी पड़े।

अपमृत्यु में उस क्लोरोफार्म का अभाव ही नहीं होता वरन् चीरने का चाकू कुँद और डॉक्टर अनाड़ी भी होता है। मोटर की टक्कर लगी आधी खोपड़ी टूट कर अलग गिर पड़ी, अस्पताल पहुँचाये गये। एक घंटे के अंदर-अंदर मर गये। निमोनिया की बेहोशी के बाद की मृत्यु और इस मृत्यु के कष्ट में क्या कुछ अंतर नहीं होगा? इस एक घंटे में शरीर का अणु-अणु तड़फड़ाता रहेगा और उस बेहोशी में अंग प्रत्यंग मूर्छित पड़े रहेंगे। ऐसा आकस्मिक आघात लगते ही असह्य पीड़ा होती है और जीव एकदम छटपटा जाता है। इस दुर्घटना पीड़ित मनुष्य की जब मृत्यु घोषित कर दी जाती है वास्तव में वह तब भी मरता नहीं। एक कत्ल किये हुए पशु और एक स्वयमेव मरे हुए पशु का माँस लीजिए, परीक्षा कीजिये तो दोनों में बड़ा अन्तर मिलेगा। एक का प्राण बिल्कुल निकल गया है। इसलिए माँस खराब हो गया, इसके विपरीत कत्ल किये हुए पशु का माँस खाने योग्य बना हुआ है गोश्तखोर, पशु-पक्षियों को मार-मार कर खाते हैं पर यदि मरे हुए का माँस दिया जाय तो घृणा प्रकट करेंगे। कारण यही है कि कत्ल किए हुए प्राणी का जीव अधिकाँश में स्थूल शरीर से चिपका रहता हैं। इस प्रकार दुर्घटना क्षारित जीव बहुत समय तक अधमरा पड़ा रहता है। कई डाक्टरों की शोध है कि आघात से मारा गया शरीर प्रायः पाँच रोज से लेकर ग्यारहवें दिन तक पूरी तरह से मर पाता है।

दुर्घटना पीड़ित की जब वे स्थूल क्रियायें बन्द हो गईं जिन्हें मोटे तौर से देखा जा सकता है तो उसे मृत करार दे दिया जाता है। मृत्यु की मोटी परिभाषा उन अवयवों की क्रिया बन्द हो जाना है जिनके बिना क्रिया शीलता नष्ट हो जाती है। जैसे हृदय की धड़कन बन्द हो जाना। इस मृत घोषित किये हुए व्यक्ति का कुछ प्राण तो शरीर में जकड़ा रहता है और कुछ बाहर मंडराता रहता है। बाहर वाला प्राण मृत्यु का कारण तलाश करता है। जिससे मृत्यु हुई थी उस चीज का बारीकी से परीक्षण करता है, अपने पूर्व इरादों और आरंभ किए हुए कार्यों को अधूरा देखता है। अपने को संबंधियों से अलग देखता है, अचानक मृत्यु का आभास पाता है और आधे प्राणों को अर्ध मृत शरीर में वेदना में डूबा अनुभव करता हैं तो अचानक आघात की भयभीत अवस्था में सब प्रकार का संयुक्त पीड़ाओं के भार से दवा हुआ और अत्यन्त उग्र रूप से छटपटाता है। इस समय की पीड़ा और उद्विग्नता बड़ी करुणाजनक होती है।

जब उसका खंडित शरीर नष्ट कर दिया जाता है तब एक ओर से फुरसत पाकर इस बात की पूरी जाँच करता है कि मेरी मृत्यु किस प्रकार हुई। यदि किसी जीवित प्राणी द्वारा वध किया गया है तब तो उसके क्रोध का पारावार नहीं रहता और सर्प की तरह फुसकारता हुआ उसकी ओर दौड़ता है। चूँकि उसकी भौतिक सामर्थ्य उस समय इतनी नहीं होती कि विरोधी से तुरन्त ही इच्छित बदला ले सके इसलिए अपनी अशक्तता का अनुभव करते हुए भी अपने इरादे को नहीं छोड़ता।

चूँकि एक निश्चित नियम के अनुसार उसे इस लोक को छोड़ कर दूसरे लोक में जाना पड़ता है। वह अनिच्छापूर्वक एक प्रकार की रस्सियों से बंधकर खिंचता घिसटता हुआ जाता तो है पर मनोभावनाएं तीव्र रूप से दूसरी ही ओर लगी रहती है। मृत्यु के उपरान्त विश्राम और क्रमिक विकास के लिए जो अर्ध चेतनावस्था मिलती है उसे छोड़ कर वह बारबार जागता है और आरम्भ के दिनों में अपने पूर्व कष्ट की अनुभूति ले लेकर पूर्ववत् छटपटाता है। उस अर्धनिद्रित लोक के लोगों को यह कुहराम बड़ा खेलता हैं। उसके निवासी अपने इस दुःखी नवागत भाई की सहायता के लिए आस-पास जमा होते हैं और अपनी मौन भाषा में संतोष धारण करने एवं शान्ति से रहने का उपदेश देते हैं। उनमें जो अधिक भले ओर उदार हैं वे अन्य प्रकार की सहायता भी देकर उसका दुःख घटाते हैं। उदारचेता पूर्व मित्र भी इस समय मद्द देते हैं। समय पाकर कुछ जीव तो शान्ति और संतोष धारण कर लेते हैं और अदृश्य नियमानुसार अपनी विश्राम निद्रा में जा पड़ते हैं।

परन्तु ऐसे उग्र स्वभाव वाले जिनके मन में प्रतिशोध की भयंकर ज्वाला जलती है आगे को नहीं बढ़ते वरन् पीछे को ही लौटते हैं। वध स्थल पर अपने निवास स्थान या घातक की भूमि के आस-पास मंडरा कर अपने रहने के लिए वे कोई स्थान चुनते हैं और वहीं बैठे रहते हैं। जैसे-जैसे यह अपने पूर्व स्वरूप, स्थूल शरीर की धारणा दृढ़ करते जाते हैं वैसे ही वैसे उनका सूक्ष्म शरीर दृढ़ होता जाता है। वे अपने शत्रुओं से बदला लेने और उन्हें ह्रास पहुँचाने का ही चिन्तन करते रहते हैं। अशक्ति हानि की दशा में अपने विरोधियों को मानसिक कष्ट पहुँचाते हैं। क्योंकि सूक्ष्म शरीर की गति सूक्ष्म शरीर तक ही है। अक्सर देखा गया है कि हत्यारों के मन सदा उद्विग्न बने रहे हैं उन्हें दुःस्वप्न आते हैं और सोते सोते चौंक पड़ते हैं। क्रोध और आशंका हर क्षण चित्त पर चढ़ी रहती है। इस बेचैनी में मृतात्माओं का बहुत कुछ हाथ होता है। जो मृतात्मा अधिक बलवान और प्रबुद्ध है वह अपनी शक्ति का बढ़ाने का अभ्यास भी करती रहती हैं। ऐसे प्रेत अपने प्रयत्न और स्वभाव के कारण पिशाच या वेताल हो जाते है। अपनी सशक्त और क्राधोन्मत्त दशा में यह बड़े- बड़े अनर्थ करते हैं यहाँ तक कि किसी का प्राण भी ले लेते हैं। प्रसन्न होकर किसी को लाभ पहुँचा देने की भी इनमें सामर्थ्य होती है।

-क्रमशः

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