एकाँगी उपासना का क्षेत्र विकसित कर अपना अहंकार बढ़ाने वाले व्यक्ति , ईश्वर के सच्चे भक्त नहीं कहे जा सकते। परमात्मा सर्व न्यायकारी है। वह, ऐसे भक्त को जो अपना सुख, अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहता हो, कभी प्यार नहीं कर सकता। संसार के और भी जितने प्राणी हैं वह सब भी उसी परमात्मा के प्यारे बच्चे हैं। किसी के पास शक्ति कम है, किसी के पास गुण कम हैं, तो इससे क्या? अपने सभी बच्चे पिता को समान रूप से प्यारे होते हैं। जो उसके सभी बच्चों को प्यार कर सकता हो परमात्मा का वास्तविक प्यार उसे ही मिल सकता है। केवल अपनी ही बात, अपने ही साधन सिद्ध करने वाले व्यक्ति लाख प्रयत्न करके भी उसे प्राप्त नहीं कर सकते।
प्रेमी भक्तों के लक्षण बताते हुये गीता में भगवान् कृष्ण ने लिखा है—
अद्वेष्टा सर्वभूतानाँ मैत्रः करुणा एवच। निर्ममो निरहंकार, सम दुःख सुखः क्षमी॥ सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़ निश्चय;। मय्यर्पित मनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स में प्रियः॥
(गीता 12। 13-14)
“हे अर्जुन! मैं उन भक्तों को प्यार करता हूँ जो कभी किसी से द्वेष-भाव नहीं रखते, सब जीवों के साथ मित्रता और दयालुता का व्यवहार करते हैं। ममता रहित, अहंकार-शून्य दुःख और सुख में एक-सा रहने वाला, सब जीवों के अपराधों को क्षमा करने वाला, सदैव सन्तुष्ट, मेरा ध्यान करने वाला, विरागी, दृढ़ निश्चयी और जिसने अपना मन तथा बुद्धि मुझे समर्पित कर दी है, ऐसे भक्त मुझे अतिशय प्रिय हैं।”
यहाँ हमें एक बात समझ लेनी चाहिये कि यह सारा संसार भगवान के एक अंश में ही स्थित है। छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे सब उसी के बनाये हुये हैं। उनके हित और कल्याण का भी उसे ध्यान होना चाहिये। केवल अपनी-अपनी इच्छाओं की तृप्ति ढूंढ़ने में यह कहाँ संभव है कि मनुष्य औरों के साथ द्वेष न करे। सुख की इच्छा में प्रतिस्पर्धा आवश्यक है। कामनाग्रस्त मनुष्य किसी की भलाई भी क्या कर सकेगा और ऐसा व्यक्ति परमात्मा की दया का अधिकारी भी क्यों बन सकेगा।
चराचर जगत में एक ईश्वर की सत्ता ही अनेक रूपों में कार्य कर रही है। ईश्वर के एक अंग की उपासना की जाय और अन्यों की बिलकुल उपेक्षा की जाय तो परमात्मा उस भक्त से कैसे सन्तुष्ट हो सकता है। भक्ति का स्वरूप सर्वांगीण होना चाहिये। मुँह से भोजन कराया जाय और पाँवों को बाँधकर एक ओर पटक दिया जाय तो वह परमात्मा अपने उपासक की भावनाओं से कैसे सन्तुष्ट हो सकेगा। ईश्वर के पारलौकिक और अदृश्य जगत को यदि प्राण माना जाय और सम्पूर्ण संसार को उसकी देह, तो देह से भी उतना प्यार होना चाहिये जितना प्राण से। देह की उपेक्षा से प्राणों का अस्तित्व भी भला कहीं सम्भव हो सका है?
ईश्वर के उपासक में श्रद्धा, भक्ति , एकाग्रता, बुद्धि की तीक्ष्णता के साथ-साथ जीव दया और प्रेम का भी समन्वय होना चाहिये क्योंकि प्रेम ही विश्व का आधार है, विश्व की आत्मा है। ईश्वर प्रेम भी विश्व प्रेम के अंतर्गत है। प्राणिमात्र के साथ सद्व्यवहार, आत्मीयता और मैत्री की भावना रखने वाले लोग उसे बिना प्रयास, बिना साधन प्राप्त कर लेते हैं।
चतुर जनों की यह रीति है कि वे किन्हीं महापुरुषों की कृपा प्राप्त करने के लिये उनकी प्रिय सन्तान की सेवा और प्यार करते हैं। अपने आत्मीय जनों को प्यार करता हुआ देखकर बड़े कठोर हृदय के व्यक्तियों को भी पिघलते देखा गया है, फिर परमात्मा जो इतना सहृदय और दयालु है वह अपने बालकों के प्रति कर्त्तव्य-भावना को पूरा हुआ देखकर भला क्यों न प्रसन्न होगा। इससे तो वे भक्त की अन्य कामनायें भी सहर्ष पूरी कर देते हैं।
वेद में कहा गया है कि “जो लोग सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न रहते हैं परमात्मा उनका भार स्वयं वहन करता है।” पर समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का समुचित रीति से पालन न करने वाले ईश्वर-भक्त आत्म-कल्याण में समर्थ नहीं होते। समाज भी तो मनुष्य का अपना ही स्वरूप है। अपने स्वार्थ की पूर्ति में तो उद्यत रहा जाय पर अपने ही समान अपने समाज के प्रति परमार्थ का ध्यान न रखा जाय तो उस ईश्वर-उपासना से आत्म-सन्तोष होना असम्भव है।
निर्ममता और अहंकार से मुक्ति मिल गई इसका प्रमाण एकात्मवादी होकर नहीं दिया जा सकता। मनुष्य सबके प्रति उदारतापूर्ण व्यवहार करेगा तभी उसकी ममता का भाव नष्ट होगा। अहंकार भी, जब तक अपने आप में औरों के लिये त्यागपूर्वक न घुलाया जायगा तब तक, इससे मुक्त होना सम्भव नहीं। ईश्वर कभी किसी के सामने प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हुआ। इसलिये वह प्रत्यक्ष सेवायें भी कभी नहीं ले सकता। उपासना और प्रार्थना से प्रभावित होकर मनुष्य रूप धारण कर कदाचित वह ईश्वर अपनी अनुभूतियों सहित भक्त के समक्ष उपस्थित हो जाता और वह अपना सर्वस्व अर्पण कर देता तो संभव था उस स्थिति से आत्म-सन्तोष हो जाता। पर परमात्मा के संसार में ऐसी व्यवस्था नहीं है। वह यदि अपने आराधक की मनोवृत्ति को देखना चाहेगा तो अपने किसी बालक को ही परीक्षा के लिये भेजेगा। हम अपने बच्चे, धर्म, परिवार, गाँव-मुहल्ले वाले, समाज और राष्ट्र तथा सम्पूर्ण विश्व के लिये आत्म-त्याग की भावना का परिष्कार करके ही तो सर्वात्मा की कृपा का पुण्य फल प्राप्त कर सकते हैं और यह तभी सम्भव है जब हम सबके साथ प्यार से रहें। सबके साथ आत्मीयता रखें, सबके साथ सहानुभूति बरतें, सबकी उन्नति में सहयोग दें। किसी के साथ ईर्ष्या-द्वेष, छल, पाखण्ड, अन्याय, अत्याचार करके परमात्मा की कृपा का अधिकार प्राप्त करने की बात सोचना मिथ्या है।
तब यह आवश्यक है कि उपासना का स्वरूप बहुमुखी हो। आत्मोद्धार के लिये एकान्त में बैठकर करुण-भाव से ईश्वर की उपासना की जाय पर अपने अन्य भाइयों को भी असहाय अवस्था से ऊपर उठाया जाय। भगवान के स्वरूप को याद करते हुये प्रेमपूर्वक उनके नाम का जप और कीर्तन, ध्यान और भजन तो किया जाय, पर उनके समाज शरीर की भी उपेक्षा न की जाय। सम्पूर्ण जीवों में भगवान का अंश विराजमान है, सब लोग उसी की विविध मूर्तियाँ हैं। सब उनके अंग हैं। सब उसके साधन हैं। एक साधन के लिये अन्य साधन क्यों भुलाये जायँ? ईश्वर की एकाँगी उपासना क्यों की जाय?
“परमात्मा केवल एकान्तवासी को मिलते हैं और निर्ममता का अर्थ घर-बार छोड़कर योगी हो जाना है”-यदि ऐसा अर्थ लगाया जाय तो फिर हमारे ऋषियों की सारी व्यवस्था एवं भारतीय दर्शन की सारी मान्यता ही गलत हो जायेगी। जप, ध्यान या साधना की एक निश्चित सीमा होती है उसके बाद की साधना समाज और विश्व के हित साधन तथा लोक-मंगल में जुटने की होती है। ऋषि गृहस्थ थे, गृहस्थ में रहकर उन्होंने साधनायें कीं पर उन्हें कोई स्वार्थवादी नहीं कह सकता। वे समाज के हित के लिये अन्त तक लगे रहे। निर्ममता का अर्थ भी दरअसल “मैं और मेरे” का त्याग है। यह जो कुछ है परमात्मा का अंश है। परमात्मा के प्रत्येक अंश को पूजकर ही उसकी पूर्ण कृपा प्राप्त की जा सकती है।
ईसा, मंसूर, शंकराचार्य, रामकृष्ण तथा दयानन्द आदि अनेकों ईश्वर-परायण देवदूत हुये हैं। ईश्वर की कृपा के फलस्वरूप उन्होंने सामान्य व्यक्तियों से उच्चतर सिद्धियाँ प्राप्त कीं। यदि ईश्वर उपासना का अर्थ एकाँगी लाभ उठाना रहा होता तो इन महापुरुषों ने भी या तो किसी एक स्थान में बैठकर समाधि ले ली होती या भौतिक सुखों के लिये बड़े से बड़े साधन एकत्र कर शेष जीवन सुखोपभोग में बिताते। पर उनमें से किसी ने भी ऐसा नहीं किया। उन्होंने अन्त में महामानव की ही उपासना की। सिद्धि से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ तो लौटकर वे फिर समाज में आये और प्राणियों की सेवा को अपनी उपासना का आधार बनाया।
मुक्ति के अधिकारी मनुष्यों को परलोक की ही चिन्ता नहीं करनी चाहिये। यह लोक भी परलोक ही है, यदि हम यहाँ भी उस परमात्मा के स्वरूप का दर्शन करें। जीवमात्र में उसकी आभा देखने वाले के लिए परलोक की कामना क्यों होने लगी? परमात्मा से हम प्यार, स्नेह, दया, ज्ञान, शक्ति , भावनाओं के ऊर्ध्वगामी सुखों की अपेक्षा करते हैं यह सुख हमें मनुष्यों और जीवों की सेवा से भी उपलब्ध हो सकते हैं। इस विश्व में पशु, पक्षी आदि जीवों को जिनको आत्म-ज्ञान की प्राप्ति विधेय नहीं है उनकी रक्षा वृद्धि और उनके हित के लिए भी तो कुछ करना चाहिये अन्यथा परमात्मा के इस सुन्दर बाग की रखवाली और उसको सुसज्जित रखने के अपने उत्तरदायित्व का पालन कैसे हो सकता है?
जिस प्रकार परमात्मा की उपासना में उनके रूप गुण और ऐश्वर्य का कीर्तन करते हैं वैसे ही हमें उसके पुत्रों का भी कीर्तन-भजन करना चाहिये। जो पदार्थ जीवों के लिए उपयोगी हैं और सद्गुणों तथा सत्कर्मों की वृद्धि में सहायक हैं उन पदार्थों की उन्नति, वृद्धि और रक्षा करने की चेष्टा करना भी आवश्यक है। परमात्मा अपनी प्रत्येक सुन्दर वस्तु की साज-सँवार देखकर उतना प्रसन्न होगा जितना शायद वह अपने गुणों की प्रशंसा-मात्र से न होगा।
उपयोगी पदार्थों की रक्षा द्वारा सत्संम्पत्तियों को बढ़ाने की चेष्टा के साथ बुराइयों को रोकना भी ईश्वर की ही उपासना है। इसमें भी परमात्मा के सौंदर्य गुण की ही उपासना का भाव छिपा है। जो पदार्थ जीवों के दुर्गुण और दुष्कर्मों को बढ़ाने वाले हैं उनके घटाने और नष्ट करने के लिए भी हमारे प्रयत्न बिना किसी कामना या द्वेष भावना से चलते रहने चाहिए। हानिकारक पदार्थों के न रहने में जीवों का हित है और विश्व के हित व कल्याण की निष्काम कामना रखना ही विश्व-प्रेम है।
इस प्रकार जो विशुद्ध प्रेम और सेवा भावना से प्राणियों के कल्याण के कार्यों में रत रहते हैं वे बाहर से देखने पर लोगों को कैसे ही दिखाई दें पर ईश्वर की दृष्टि में वही सच्चे प्रेमी भक्त होंगे। समाज की उपेक्षा कर की जाने वाली ईश-आराधना का उतना महत्व नहीं, विश्व-प्रेम ही ईश्वर का सच्चा प्रेम है।