आलस्य का पाप धो डालिये।

February 1966

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आलस्य को एक मात्र हीन प्रवृत्ति ही नहीं, बल्कि असंख्यों पापों का परिणाम समझना चाहिए और यह भी विश्वास कर लेना चाहिए कि जब तक इससे पीछा न छुड़ाया जायेगा जीवन में शोक-संतापों और दुःख दारिद्रय की कमी न रहेगी। पाप तापों के इस जनक से जितनी जल्दी छूटा जा सके उतना ही कल्याणकारी है।

आलस्य का अभिशाप मानव जीवन का भयानक शत्रु है। यह जिसके पीछे लग जाता है, उसे मिटा कर ही छोड़ता है। अफीम के नशे की तरह यह अन्दर ही अन्दर सारी शक्ति का शोषण कर लिया करता है। मानव-मन और मनुष्य शरीर अनन्त शक्तियों का आगार होता है। इससे कुछ करने वालों ने इतना कुछ करके दिखा दिया है कि जिसको देख-सुनकर दंग रह जाना पड़ता है।

महापुरुषों के जीवन पढ़िये, वैज्ञानिकों के कमाल देखिये, नायकों एवं सेना-नायकों की योग्यता पर नजर डालिये, अन्वेषकों, खोजियों, यात्रियों एवं आरोहियों के वृतान्त सुनिये, शिल्प शालियों के चमत्कार देखिये, व्यापारियों, व्यवसायियों तथा उद्योगियों की उपलब्धियों का अन्दाज लगाइये और विद्वानों, कवियों तथा साहित्यकारों के कार्यों का दर्शन कीजिये। आपको पता चल जायेगा कि इन सबों ने ऐसे-ऐसे और इतने अधिक काम कर दिखाये हैं कि उन्हें मानवीय कृत्य मानते इच्छा ही नहीं होती।

बहुत से लोग इन लोगों के विषय में यह कहते सुने जाते हैं कि ऐसे लोगों को परमात्मा की ओर से विशेष प्रतिभा मिली होती है, जिसके बल पर वे इस प्रकार के सराहनीय एवं विस्मयकारक कार्य कर सकने में समर्थ एवं सफल हो सके हैं। किंतु जरा इन कर्तव्यवानों अथवा उनके जानकारों के पास जाइये और पूछिये—महानुभाव, क्या आपको ईश्वर की ओर से कोई विशेष प्रतिभा मिली हुई है? जिससे आप इस प्रकार के विलक्षण एवं विश्वस्त कार्य कर सके हैं तो कदाचित ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो इसका उत्तर स्वीकारात्मक भाषा में दे, नहीं तो सभी निषेधात्मक उत्तर देते हुए यही कहेंगे कि मैंने तो अपने अन्दर कभी कोई विशेष प्रतिभा अनुभव नहीं की। हाँ इतना अवश्य है कि मुझे काम करने का शौक अवश्य है। अब इसको आप विशेष प्रतिभा मान लें अथवा मानव पुरुषार्थ।

इस उत्तर के साथ आत्म-श्लाघा से बचने के लिये यदि कोई भद्र पुरुष यह जोड़ दे कि हाँ भगवान की कृपा रही है, जिसके लिये मैं उसका अनुग्रहीत हूँ तो भी इन शब्दों को किसी विशेष प्रतिभा की स्वीकृति न समझ लेना चाहिए। यदि मनुष्य चमत्कार लेकर पैदा हो सकते होते तो संसार में अब तक न जाने कितने इसका प्रमाण दे चुके होते। वे जन्मते ही समझदार हो जाते और समझदार होते ही बिना किसी परिश्रम पुरुषार्थ के जो चाहते, कर दिखाते।

अब यदि एक बार यह भी मान लिया जाये कि अनेक बार लोग विशेष प्रतिभायें लेकर पैदा होते हैं तो भी इस बात का कोई प्रमाण संसार में नहीं मिलता कि पुरुष के बिना परिश्रम किये उस विशेष प्रतिभा ने कुछ कर दिखाया हो। वह प्रतिभा भी तो तभी चमकती और चमत्कृत करती है, जब उसे पुरुषार्थ का सहारा मिलता है। अपनी बात के समर्थन में अनेक अन्ध-विश्वासी, अति आस्तिक, भक्त अथवा श्रद्धालु पौराणिक कथाओं और प्राचीन किंवदन्तियों के आधार पर यह भी कह सकते हैं कि अमुक ऋषि मुनि, तपस्वी, यती, जोगी अथवा करामाती ने बिना कुछ किये अमुक काम कर दिखाया, ऐसी-ऐसी चीजें पैदा कर दीं। किंतु जनश्रुतियों अथवा कथा-कहानियों का प्रमाण देने वाले यह क्यों नहीं देखते कि इस प्रकार की सिद्धि के पीछे उक्त व्यक्तियों का कितना पुरुषार्थ रहा करता है? इस प्रकार की सिद्धियाँ यदि किसी को मिली होंगी तो इनको प्राप्त करने में उसका कितना प्रचण्ड तप त्याग एवं पुरुषार्थ रहा होगा? अलाउद्दीन के चमत्कारी चिरागों जैसी शक्तियाँ पाने के लिये कहानी नायकों ने कितना परिश्रम किया है और कितने खतरे उठाये हैं? बिना पुरुषार्थ के किसी प्रकार की सिद्धि अथवा उपलब्धि की प्राप्ति असम्भव है। इस विश्वास को दृढ़तापूर्वक अपने मस्तिष्क में धारण कर लेना चाहिये।

बात वास्तव में यह है कि इन उपलब्धियों की किंवदन्तियों की ओर ध्यान जाता ही उन लोगों का है जो आलसी और निकम्मे होते हैं। उन्हें कुछ काम तो करना नहीं होता खाली बैठे हुए ख्याली घोड़े दौड़ाया करते हैं। अफीमचियों की तरह प्रमाद की पिनक लिया करते हैं और ख्याली दुनिया में उपलब्धियों के सपने देखा करते हैं। यही सोचा करते हैं कि परमात्मा ने जिस प्रकार उसको वैभव विभूति दे दी है, उसी प्रकार वह दयानिघान हमको भी कृतार्थ कर देगा। किंतु आलसियों के यह ख्याली पुलाव न तो कभी किसी काम आये हैं, न आते हैं और न आयेंगे। उनकी जिंदगी इसी प्रकार के शेखचिल्ली ऊहापोह के लिये बनी होती है, सो उसी में बर्बाद होती रहती है। इसको आलसी मनुष्य के दुर्भाग्य के सिवाय और क्या कहा जा सकता है?

मनुष्य के भीतर अलादीन के हजारों चिरागों से अधिक चमत्कारी शक्तियाँ भरी पड़ी हैं, किंतु वे अपना चमत्कार प्रकट तभी करती हैं, जब उन्हें परिश्रमपूर्ण संघर्ष से जगाया जाता है। आलसी आदमी को यदि एक बार अलादीन का चिराग भी दे दिया जाये तो वह भी उसके लिये व्यर्थ ही सिद्ध होगा। आलस्य के अभिशाप से न तो वह उसको घिसेगा और न उससे उत्पन्न होने वाली शक्ति का उपभोग करने के लिये उसके पास कोई योजना होगी। ऐसी दशा में वह चिरागी देव भी उसकी कुछ सहायता न कर सकेगा।

आलसी अथवा निकम्मे व्यक्ति को यदि एक बार साधन सम्पन्न भी बना दिया जाये तो वे साधन भी उपयोग के अभाव में पड़े-पड़े बर्बाद हो जायेंगे। आलसी जब संसार के सर्वोपरि साधन और ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ देन ‘मानव शरीर’ और उसकी चमत्कारी शक्तियों का ही जब कोई उपभोग नहीं कर पाता तब वह अन्य प्राप्त साधनों का क्या उपभोग कर सकता है?

आलस्य का पाप मनुष्य जीवन को अभिशाप बना देता है। उसका शरीर एक बेकार वस्तु की तरह उसके लिये बोझ बना रहता है। कोई काम न करने से, खाली बैठ-बैठे समय काटते रहने से उसमें निस्तेजता आती है, जिससे जीवन के किसी क्षेत्र में किसी प्रकार की रुचि नहीं रहती और अरुचिपूर्ण जीवन एक बोझ की तरह ही भयावह बन जाता है। आलसी व्यक्ति संसार की सारी विभूतियों से वंचित रहा करता है। वह दूसरों की उन्नति देखकर मन ही मन डाह किया करता है। दूसरों की सफलता से अभागे आलसी को तो जलन होती है, किंतु उसके उस पुरुषार्थ से कभी स्पर्धा नहीं होती, जो उसकी सफलता का मूल हेतु हुआ करता है। यदि कोई आलसी किसी की उपलब्धियों से डाह करने के बजाय उसके परिश्रम के प्रति स्पर्धा करे तो अवश्य ही उस में कुछ करने का उत्साह जाग उठे और वह भी पसीने के बल-बूते पर सब कुछ बदल कर रख दे, किंतु आलसी को तो काम करने और पसीना बहाने की कल्पना मात्र से ही मौत आया करती है।

मानव जीवन का अनमोल अवसर पाकर उसे आलस्य के वशीभूत होकर बेकार गँवा देना बड़ा पाप है। इस पाप से बचना प्रत्येक मनुष्य का पावन कर्तव्य है, जो आलसी है वह केवल आत्म वंचक ही नहीं, दूसरों का चोर भी होता है। भोजन, वस्त्र आदि आवश्यक वस्तुऐ परिश्रम का पुरस्कार हैं। इनको पाने का अधिकारी वही है, जो कुछ काम करता है, किसी प्रकार का उपार्जन करता है। बिना कुछ काम किये जो पड़ा-पड़ा खाता है, वह प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप में किसी परिश्रमी का भाग चुराता है।

पर अकर्मण्य आलसी अपने से पूछे कि इस प्रकार बेकार पड़े-पड़े खाते रहने में उसे कोई सुख है? क्या उसकी आत्मा उसे इस अकर्मण्यता के लिये नहीं धिक्कारती? क्या कभी उसे यह विचार नहीं आता, इस बात की ग्लानि नहीं होती कि जब संसार में और लोग परिश्रम कर रहे हैं, पसीना बहा रहे हैं, तब उसका इस प्रकार पड़ा रहना मूर्खतापूर्ण बेहयायी ही है। बेहयायी की जिन्दगी बिताना मनुष्यता नहीं। हाथ, पाँव और मन, मस्तिष्क के सुरक्षित रहने पर भी जो परिश्रम नहीं करता, उससे अधिक अभागा दूसरा नहीं।

अपने मानव जीवन को दुर्भाग्य के दोष से बचाने और जीवन में मानवीय उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिये आलस्य के पाप को पुरुषार्थ के पुण्य से धो डालना ही मनुष्य को श्रेयस्कर है। आलस्य एक भयानक पाप है, इसको आश्रय देकर पराश्रित रहने वाला अथवा अपनी दयनीय दशा में पड़ा रहने वाला मनुष्य होते हुए भी मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है। मनुष्य वह है, जो ईश्वर-प्रदत्त क्षमताओं का उपयोग करके कुछ ऐसा कर दिखाये, जिससे उसका मनुष्य होना सार्थकता का गौरव प्राप्त कर ले।


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