हैं अँधेरे खेत, जाने किस जनम से सुन रहा हूँ?
पर नहीं होती यहाँ पर-उजाले की वार्तायें।
सूर्य होकर पूछता हूँ ज्योति के अंकुर कहाँ हैं?
बुझ रहीं हैं रोशनी की आज क्यों अंतर कथायें?
कौन है जो सिन्धु में अंगार बोता जा रहा है?
कच्छ की गहराइयों में कौन बौना-पन खड़ा है?
अशुभ है अनुकूल केवल आज इस अन्धी सभा में,
शुभ किसी निर्जीव के हाथों खिलौने सा पड़ा है।
कोटि अमृत अंश है, पर मृत्यु से कतरा रहे हैं,
है नहीं अमरत्व का विश्वास इनकी आत्मा को।
है सुरक्षित मंदिरों में आदि मानवता मनुज की,
किन्तु; युग-अंधा नहीं स्वीकारता परमात्मा को।
झुलसाती हैं क्यारियाँ औ फूल सब काले हुए हैं,
गंध बासी अर्चना सी थाल में मुरझा गई है।
आस्था का शीश कुचले जा रही हैं सभ्यताएँ,
शुभ्र संस्कृति को सिया को सृष्टि ही बिछला रही है।
हो जिन्हें विश्वास अपनी जाति के पुनरुन्नयन का,
देश के उन कर्णधारों को कभी से खोजता हूँ।
इस अँधेरे के नयन में किरण का काजल लगा दें,
मैं उन्हीं शृंगार दारों को कभी से खोजता हूँ।
मौन के स्वर पर मुझे आया रहम अब तक बहुत,
पर पूछता हूँ अब कि वे निर्माण के गुरु-स्वर कहाँ हैं?
जो अँधेरे को मिटाकर ज्योति दें सारे जगत को,
सूर्य होकर पूँछता हूँ-ज्योति के अंकुर कहाँ हैं?
*समाप्त*
(ब्रजेश चंचल)