अमृत और उसकी प्राप्ति

February 1966

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मृत्यु इस संसार में किसी भी जीव को शायद जितना दुःख देती है उतना अन्य कोई वस्तु नहीं। धन और साधन सम्पन्न मनुष्य, नाग, यक्ष, किन्नर, गंधर्व, भूत और बैताल तक, मृत्यु की कल्पना से काँपते पाये जाते हैं। युग के युग बीते, असंख्यों व्यक्तियों ने असंख्यों तरीकों से अनुसन्धान किये पर इस समस्या का कोई समाधान न निकला। जन्म लेने वाले जीव को मृत्यु से कदापि न बचाया जा सका। आधुनिक विज्ञान का आविर्भाव भी इसी परिकल्पना पर आधारित है। विज्ञान के समुद्र मंथन से अनेक प्रकार के तत्व, रत्न और विविध आश्चर्य आविष्कृत हुये किन्तु अमृतत्व की कहीं से भी उपलब्धि न हो सकी। मृत्यु से छुटकारा पाने का कोई स्थूल साधन आज तक न ढूँढ़ा जा सका। इस दुःख से जीव को किसी भाँति उन्मुक्त न किया जा सका।

तो भी संसार के प्रत्येक धर्म ने एक ऐसे तत्व की बात स्वीकार की है जिसे पाकर मनुष्य अमृत-पद पा लेता है, उसे मृत्यु के भय से छुटकारा मिल जाता है। ऋषियों ने अमृत तत्व को एक दैवी पेय पदार्थ के रूप में माना है। पौराणिक कथा, कहानियों और उद्धरणों के अतिरिक्त वेद और उपनिषदों में भी कई स्थानों में ‘अमृत’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। ऐसे सभी स्थल यह व्यक्त करते हैं कि अमृत कोई ऐसा तत्व है जिसके द्वारा मृत्यु से छुटकारा मिल सकता है। अमृत पान करने की वस्तु है या कोई आध्यात्मिक तत्व है तथा उसके पान करने से मृत्यु से छुटकारा मिल जाता है या नहीं—यह यहाँ विवेचना का विषय है।

पुराणों में एक कथा आती है—एक बार देवताओं तथा असुरों ने समुद्र का मन्थन किया। इस मन्थन से जो चौदह रत्न मिले अमृत भी उनमें एक था। बाद में देवताओं ने उसे पान किया और वे अमर हो गये।

समुद्र का मन्थन किया जाना और उससे कोई अमृत जैसा दृश्य पेय प्राप्त किया जाना—यह बात कुछ अजीब-सी लगती है। इतने बड़े समुद्र को मथा जाना ही असम्भव लगता है फिर उससे जो चौदह रत्न प्राप्त हुये वह भी ऐसे हैं जिन पर कोई सहसा विश्वास नहीं होता। पर उक्त पौराणिक आख्यानों की गहराई में प्रवेश किया जाय तो मालूम पड़ता है कि इन कथानकों के द्वारा शास्त्रकारों ने सूक्ष्म आध्यात्मिक तत्वों का अलंकारिक विश्लेषण किया है। अमृत को जिस रूप में पुराणों में वर्णित किया गया है वह उस तत्व का केवल कवित्वमय चित्रण है पर उसमें जो जीवन दर्शन सन्निहित है वह अवश्य ही बहुत महत्वपूर्ण है। इस अलंकारिक विवेचन की वास्तविकता को जानने के लिये उपनिषदों का अध्ययन आवश्यक है। अमृत की व्याख्या उपनिषदों में जिस रूप में की गई है भारतीय संस्कृति का निरूपण उसी को आधार मान कर किया गया है।

अमृतत्व आध्यात्म-धर्म का प्रमुख आधार है और उसी की प्राप्ति को मनुष्य जीवन का लक्ष्य भी बताया गया है। किन्तु वह किसी तरल पेय पदार्थ के रूप में नहीं है वरन् विशुद्ध आध्यात्मिक तत्व के रूप में हुआ है जिसका अवगाहन कर मनुष्य का स्थूल शरीर भले ही अमर न होता हो किन्तु यह निश्चित है कि वह जिस उद्देश्य को लेकर धरातल में अवतरित होता है उसे अवश्य पूर्ण कर लेता है। इसे ही आत्म-कल्याण, स्वर्ग या मुक्ति की, परमानन्द की प्राप्ति कह सकते हैं। जिस तत्व को प्राप्त कर जीव शाश्वत सुख में लीन हो जाता है उसे ही अमृत-तत्व के नाम से पुकारा जाता है।

वह तत्व क्या है—कठोपनिषद् में इसकी व्याख्या की गई है। शास्त्रकार ने यम के मुख से नचिकेता के लिए जो उपदेश कराया है—उसमें कहा है—

य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं, कामं पुरुषो निर्मिमाणः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृत मुच्यते॥

(2। 2। 8)

अर्थात्— यह परमात्मा ही प्रलय काल में भी जागृत रहता है। जीव के लिए कर्मानुसार भोग का निर्माण करने वाला भी वही है। वह शुक्र है, वह ब्रह्म है उसे ही अमृत के नाम से पुकारा जाता है।”

इस श्लोक से यह सिद्ध होता है कि परमात्मा ही वह अविनाशी तत्व है जिसे प्राप्त करने से मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूरा किया जा सकता है।

मुण्डकोपनिषद् में इसे और भी स्पष्ट करते हुये बताया है—

यदर्चि मद्यदणुभ्योऽणु च, यस्मँल्लोका निहिता लोकिनश्च। तदेतदक्षरं ब्रह्म स प्राणस्तदु वां्मनः तदेतत्स तयं तदमृतं तद्वेद्धव्यं सौम्य विद्धि॥

(2। 2। 2)

अर्थात्—हे सौम्य! तू उस बेधने के योग्य लक्ष्य को बेध डाल, जो तेजस्वी सूक्ष्मातिसूक्ष्म और लोकों में निवास करने वाले प्राणियों का आश्रय है, वही अविनाशी ब्रह्म है, वही मन, वाणी, प्राण, सत्य और अमरत्व से युक्त है।

यहाँ परमात्मा के “अमृत-तत्व” होने की बात को पुष्ट करते हुये शास्त्रकार ने यह भी सिद्ध किया है कि वह प्राण है, सत्य है, मन और वाणी है। इन सन्दर्भों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह मनुष्य के भौतिक स्वरूप को अमृत नहीं करता वरन् जीवात्मा की स्थिति को इतना ऊँचे उठा देता है कि जीवन का हलकापन नष्ट हो जाता है और उसे अपने आनन्दमय, अविनाशी स्वरूप का बोध हो जाता है। उपरोक्त सूक्त में शास्त्रकार ने आदेश दिया है कि सौम्य! उस परमात्मा की ही शरणागति प्राप्त करो।

ब्रह्मा मृत की उपलब्धि के साधन पर प्रकाश डालते हुये केनोपनिषद् में विवेचन किया है—

आत्मना विन्दते वीर्य; विद्यया विन्दतेऽमृतम्।

(2। 1। 4)

अर्थात्—”परमात्मा से प्रकट हुआ ज्ञान ही यथार्थ है, क्योंकि इसके द्वारा ही अमृतत्व की प्राप्ति होती है। आत्मा से परमात्मा को जानने की प्रेरणा प्राप्त होती है और ज्ञान से अमृत स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।”

हमारे महापुरुष सदैव इस बात पर जोर देते आये हैं कि मनुष्य ज्ञानवान बनें। विद्या को मनुष्य का आभूषण बताया और कहा कि ज्ञान ही तुम्हें बन्धन से मुक्त करेगा और अमृतत्व प्रदान करेगा पर उन्होंने यह बात भी स्पष्ट कर दी कि यह विद्या लौकिक नहीं हो सकती। यथार्थ विद्या ब्रह्म विद्या है। उसका मनन करने से आत्मा के रहस्य ज्ञात होते हैं, वास्तविक रूप का ज्ञान होता है और यह ज्ञान ही मनुष्य को सृष्टि के आदि कारण परमात्मा को जानने की प्रेरणा प्रदान करता है।

विद्या के विशुद्ध गृहणीय स्वरूप का और भी विवेचन ईशोपनिषद् में हुआ है—

विद्या चाविद्याँ च यस्तद् वेदो भयं स ह। अविद्यया मृत्यं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥

(11 वाँ मन्त्र)

अर्थात्—”जो मनुष्य विद्या रूप ज्ञान तत्व और अविद्या रूप कर्म तत्व को साथ ही साथ जान लेता है, वह कर्मों के अनुष्ठान से मृत्यु को पार कर ज्ञान के अनुष्ठान से अमृतत्व का उपभोग करता है।”

उपनिषद् के यह सभी प्रकरण अमृत-तत्व के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं पर साथ ही मनुष्य को भूल न होने देने के लिये भी आगाह कर देते हैं। अमृत मौलिक अर्थ में मृत्यु से छुड़ाने वाला पदार्थ है पर मृत्यु को आध्यात्मिक रूप में शरीर का बारम्बार विनाश मानकर जीव के अज्ञान को मानना पड़ेगा। क्योंकि जब तक अज्ञान रहता है तब तक मनुष्य के सारे क्रिया कलाप स्थूल भोगों तक ही सीमित रहते हैं। विषय भोगों के प्रति आसक्ति मनुष्य से पाप कराती है और वह बार-बार कर्मानुसार मृत्यु पाता है, पुनर्जन्म लेता है। जब तक यह स्थिति चलती रहती है तब तक उसके दुःख नष्ट नहीं होते।


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