बच्चे आपके सच्चे मित्र

February 1966

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मित्र, सच्चा, सरल और निष्कपट मित्र! ऐसे मित्र की तलाश संसार में किसे न होगी, जिससे अपनी प्रत्येक गुप्त से गुप्त बात प्रकट कर सकें तो भी ऐसी आशंका न रहे कि वह बात कहीं अन्यत्र फैल जायगी। जो इतना सरल हो कि अपनी प्रत्येक त्रुटि को उदारतापूर्वक क्षमा कर सके जो हर कार्य में सच्चा सहयोगी सिद्ध हो सके। अभिन्न हृदय, अभिन्न आत्मा, न कोई छल न कपट। ऐसा मित्र मिल जाय तो पूर्वजन्म का कोई पुण्य, कोई सुकृत ही समझना चाहिए।

पर ऐसी मित्रता इस जगत में अपवाद ही हो सकती है। प्रायः मित्रता किसी लाभ या स्वार्थ की दृष्टि से कायम होती है और जब उन परिस्थितियों में ढीलापन आने लगता है, तो आत्मीयता के बन्धन भी समाप्त होने लगते हैं। अनेक बार यह सम्बन्ध इतने कटु हो जाते हैं कि जिगरी दोस्त भी जानी दुश्मन बन जाते हैं, मित्रता शत्रुता में बदल जाती है।

हमारी दृष्टि में अपने बच्चों की मित्रता अधिक निश्चित उपयोगी हो सकती है। मित्र में जो गुण होने चाहिएं, वे बच्चों में मौलिक रूप में देखे जा सकते हैं। बच्चों के साथ आत्मीयता का विस्तार किया जाय तो वे सबसे प्रिय संगी, स्नेही और सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर कहा करते थे—”परमात्मा की पवित्रता और निश्छलता यदि कहीं है, तो उसे मैंने बच्चों में पाया। बालकों को में अपने जीवन का प्रेरणास्रोत मानता हूँ।” पं. जवाहरलाल जी की बालकों के साथ घनिष्ठता विश्व-विख्यात है, उन्होंने एक बार कहा था—”मैं इस संसार में अपने मित्रों के कारण बहुत सुखी हूँ यह जो भोले-भाले बच्चे हैं, यही हमारे प्रिय सखा हैं।”

पारिवारिक सोमनस और बालकों के जीवन निर्माण की दृष्टि से भी अपने बच्चों की मैत्री बहुमूल्य होती है। इसके लिये बालक सदैव इच्छुक दिखाई देंगे, किन्तु घरों में बच्चों की अल्प-बुद्धि समझ कर प्रायः उनकी उपेक्षा की जाती रहती है। उनकी सूझ-बूझ कई बार इतनी महत्वपूर्ण होती है कि वयस्कों को आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। सच तो यह है कि बालकों में सही निर्णय की क्षमता दूसरों की अपेक्षा कहीं अधिक होती है, किन्तु उन्हें ऐसा करने के लिए अवसर नहीं दिया जाता, यह दुःख की बात है।

घर का बजट या किसी काम-काज की योजना बनाते समय लोग बच्चों को यह कहकर भगा देते हैं कि जाओ, खेलो—यहाँ तुम्हारे मतलब की कोई बात नहीं। पर ऐसा करते हुए अभिभावक यह भूल जाते हैं कि ऐसा करने से न केवल बालक की रचनात्मक बुद्धि को आघात पहुँचता है, वरन् वे एक महत्वपूर्ण सहयोग से वंचित रह जाते हैं। बजट बनाते समय बच्चे कई इतनी उपयोगी बातें बता देते हैं, जहाँ हमारी कल्पना भी नहीं पहुँचती। यह तो साधारण बात हुई। बालकों से बड़े व्यक्तियों को कई बार ऐसे सुझाव मिले हैं कि यदि वे न मिलते तो उनके कार्यों या कृतियों में अनेक दोष रह जाते।

जार्ज बर्नाडशा के एक नाटक में किसी पात्र के मुँह से ऐसी बात कहलाई गई थी, जो उसे न कहनी चाहिए थी। उसे एक बालक ने ठीक किया था। “पिताजी, मनुष्य को उद्देश्यहीन उत्सवों में नहीं शामिल होना चाहिए।” यह उपदेश बालक नैपोलियन ने अपने पिता को दिया था। सुभाषचन्द्र बोस अपने घर में नजरबन्द थे, तो वहाँ से मौलवी के वेश में निकल जाने की योजना उनकी छोटी भतीजी ने ही बनाई थी। बच्चों में दरअसल असाधारण सूझ-बूझ होती है, उसे यदि ठुकराया न जाय तो वे ऐसी सुघड़ सलाह देते हैं, जैसी कोई मित्र भी नहीं दे सकता।

बच्चे में पूर्वजन्म की प्रतिभा छिपी होती है। किन्हीं में तो यह मात्रा वयस्कों से भी अधिक होती है। सुयोग्य सहयोग के लिये हर माता-पिता को उस प्रतिभा का लाभ भी लेना चाहिए और उसको विकसित करने का प्रयत्न भी करना चाहिए।

मित्रों से एक अपेक्षा यह की जाती है कि वे सुख-दुःख में सच्चे आत्मीय की तरह हमारे साथ रहें। हम नहीं कह सकते, इस नियम का व्यवहार में कितना पालन होता है। पर बच्चों से अधिक संवेदनशीलता बड़ों में नहीं होती। माता-पिता को दुःखी देखकर बच्चों के चेहरे पहले मुरझा जाते हैं। प्रसन्नता के समय घर को उल्लास से भर देते हैं, आत्म-सन्तोष का अनुभव किया जा सकता है। दुःख के समय बालकों के ममत्व से दुःख कटता है, सुख में उन पर हल्का उत्तरदायित्व छोड़ने से उनका स्वाभिमान, आत्मीयता की भावना और उदारता की वृत्ति का परिष्कार होता है। इन दोनों अवसरों पर अपनी मानसिक स्थिति को बच्चों के सामने खुली हुई रखनी चाहिए।

कभी-कभी मित्रों के गुण-सौंदर्य बहुत प्रभावित करते हैं। किसी में आत्मीयता अधिक होती है, किसी से मनोविनोद होता है, कोई प्राणवान होते हैं, कोई कर्तव्य-पालन और व्यवहार कुशलता में श्रेष्ठ होते हैं। बच्चों में इस प्रकार के अनेक सद्गुणों और सद्भावों का सम्मिलित एकीकरण देखा जा सकता है, पर उसे कृपया पुत्र होने की अधिकार भावना से न देखकर मैत्रीपूर्ण भावनाओं से देखिये। एक दूसरे पर समान अधिकार का आश्वासन देकर ही एक दूसरे के गुणों का लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

सरलता बालकों का स्वाभाविक गुण है। यदि उनके साथ कोई जोर-जबर्दस्ती न की जाय या अनावश्यक दबाव न डाला जाय तो उनमें प्रति क्षण सरलता के भाव देखे जाते हैं। वे प्रतिदिन ऐसे मनमोहक दृश्य उपस्थित करते रहते हैं। कभी बच्चा कपड़ों और देह में मिट्टी लपेट कर आपके समक्ष आ खड़ा होगा। ठीक बाल-शिव की तरह उसे देखकर आप मुस्कराये बिना न रहेंगे, उसे कपड़े पहनने के लिये कहेंगे तो उल्टी कमीज पहनकर आ जायगा, आपकी किताबों को सारे कमरे में बिखेर देगा, उन्हें इस तरह खोलेगा मानों किसी विशेष संदर्भ की तलाश हो। बड़ों को हाथ-मुँह धोता देखकर वह भी वैसा ही अनुकरण करता है, पर हाथ में लिया हुआ पानी कभी एक गाल के लिये ही पर्याप्त होगा, कभी मुँह में उँगली डालकर दाँत साफ करने की सी क्रिया करेगा। यह सब वह अपनी बाल सरलता से करता है। गलत-सही का उसे जरा भी अंदाज नहीं होता। आप की भी उसकी इन क्रियाओं से मनोविनोद करना चाहिए, पर यदि उसे इन कौतुकों के फलस्वरूप आपकी डाँट-डपट, मार-झिड़क मिली तो कुछ ही दिनों में उसकी सारी सरलता—कठोरता में बदलने लगेगी। यदि आप इन आदतों में से किसी को सुधारना ही चाहते हैं तो उसका सही नमूना बार-बार उसके आगे प्रदर्शित कीजिए, बच्चा अपने-आप उसका अनुसरण कर लेगा। समझायें भी तो हँसते हुए, कुछ कहें तो आत्मीयता के साथ। “नहीं, मुन्ने ऐसे नहीं, कंघा यों पकड़ना चाहिए और ऐसे बाल ठीक करना चाहिए।” इस प्रकार कहते हुए आप कोई बात उसे समझाइये। चिल्लाकर, चौंका कर कोई बात कहेंगे, बच्चा डर जायेगा और आपके प्रति उसकी भावनाओं में कठोरता आने लगेगी। यह दबाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कुटिल परिणाम उपस्थित करने वाला होता है।

बच्चे बड़े निष्कपट होते हैं, पर गलत उदाहरण देकर ही उनकी निष्कपटता नष्ट कर दी जाती है। घर में कुछ आता है, आप उसे छुपाते हैं, झूठ बोलते हैं, एक सा व्यवहार नहीं करते। इन तमाम बातों को आधार मानकर बच्चा भी उन्हें आवश्यक समझने लगता है और खुद भी उसी तरह का छलपूर्ण व्यवहार सीखने लगता है। कोई वस्तु घर में आये तो भले ही वह बच्चे के उपयोग की वस्तु न हो, पर उसे दिखाइये अवश्य। सो रहा हो या विद्यालय गया हो तो उसके घर आते ही आप इन सारी वस्तुओं को बाहर निकालिये और उसे बताइये कि अमुक वस्तु अमुक के लिये है, यह इतने पैसे में आई, वहाँ से खरीदी गई। उसे यथासंभव सारी बातें बता दीजिए, ताकि उसके मन में किसी प्रकार की गलतफहमी पैदा न हो।

आपके बच्चों की सारी जिम्मेदारियाँ आप पर हैं, उनको पूरा करने में निःसन्देह कठिनाइयाँ भी बहुत अधिक आती हैं, पर इससे बालक पर स्वामित्व या अधिकार की भावना प्रकट करना उचित नहीं। आपके घर वह परमात्मा का मेहमान बनकर आता है। आत्मा की दृष्टि से आप में और बच्चों में कोई असमानता नहीं होती। जिम्मेदारियाँ अधिक होने पर आप बड़े अवश्य हैं, पर अपने तमाम कर्तव्यों का भली-भाँति निर्वाह आप बच्चों के साथ मित्रवत् व्यवहार करके ही पूर्ण कर सकते हैं। आप उन्हें इस दृष्टि से देखा करें तो निःसन्देह उनका बड़ा भला कर सकते हैं और स्वयं भी आत्म-बल प्राप्त कर सकते हैं।

युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति


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