देशभक्त पुरु-जो सिकन्दर के आगे झुका नहीं

February 1966

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भारतीय इतिहास में महाराज पुरु का बहुत सम्मानपूर्ण स्थान है। महाराज पुरु के सम्मान का कारण उसकी कोई दिग्विजय नहीं है। इतिहास में केवल एक यही ऐसा वीर पुरुष है, जिसने पराजित होने पर भी विजयी को पीछे हटने पर विवश कर दिया।

ईसा के पूर्व छठी शताब्दी में यूनान के सम्राट सिकंदर ने सिंहासनारूढ़ होते ही विश्व-विजय करने का विचार बनाया। यद्यपि सिकन्दर के पास अपना देश था और उसके लिये आवश्यक न था कि वह किसी दूसरे देश पर आक्रमण करके उसे जीते, तथापि उसने अहंकार और लोभ के वशीभूत होकर विश्व-विजय की ठान ही ली।

यह दोष सिकन्दर का नहीं, बल्कि उस राजमद का था, जो सम्पूर्ण पृथ्वी को अधिकार में करने पर भी संतुष्ट नहीं होता और अकारण ही शाँतिप्रिय लोगों को सताना शुरू कर देता है। असन्तोष की परिणति अनीतिपूर्ण अत्याचार होना स्वाभाविक है और अत्याचार का अर्थ है विनाश। विश्व-विजयी सिकन्दर इसी क्रम में पड़कर एक दिन नष्ट हुआ और निराश होकर इस संसार से विदा हुआ।

सिकन्दर ने अपने अभिमान पूर्ण अभियान के लिये यूनान से प्रस्थान किया। नया उत्साह, नये साधन, बड़ा विजेता एक विशाल वाहिनी लेकर चला, तो देश के देश उसे आत्म-समर्पण करने लगे। बिना लड़े अथवा थोड़ा लड़कर उसने यूनान से भारतीय सीमान्त तक के सारे देश आन की आन में जीत लिये।

न जाने पराजित देशों के निवासी किस मिट्टी के बने थे कि दुश्मन से दो हाथ किये बिना ही अधीन बन गये। कर्तव्य तो उनका यह था कि जब उनके देश का एक-एक बच्चा कट मर जाता, तब कहीं सिकन्दर की सेना उस दुश्मन से आगे बढ़ पाती, किंतु क्या कहा जाय, उन विजितों की मानसिक दुर्बलताओं को, जो वे भविष्य पर विचार किये बिना विलास और आलस्य की मृत्यु दायिनी गोद में पड़े चलते रहे।

बिना किसी प्रयास के अनायास ही देश पर देश जीत लेने से सिकन्दर के अहंकार का घट लबालब भर गया और उसे अपने-विश्व-विजेता होने का भ्रामक स्वप्न उज्ज्वल से उज्ज्वल तर दिखाई देने लगा। वह आँधी की तरह बढ़ता आया और भारतीय सरहद पर अपना पड़ाव डाल दिया।

अपने जय अभियान के लिये वह महान् यूनानी जितना लश्कर लेकर चला था, अब इस समय उसके पास उससे कहीं अधिक सेना हो गई थी। इस कारण स्पष्ट है कि जिन-जिन देशों को वह पराजित करता आया अथवा जिन-जिन देशों ने उसे आत्म-समर्पण किया, उनकी सेनाओं तथा साधनों को भी सिकन्दर ने अपने लश्कर में शामिल कर लिया था। इस समय उसे अपनी शक्ति के अभिमान का भरपूर नशा था।

भारतीय सीमाँत के समीप आते-आते सिकन्दर को सिंध और झेलम के पानी से पैनी की गई तलवारों के जौहर आने-जाने वालों से सुनने को मिलने लगे थे। किन्तु सिकन्दर ने उन सत्य समाचारों को लोक-चर्चा से अधिक महत्व नहीं दिया। सिकन्दर बढ़ता रहा और भारतीय वीरता के समाचार भी। किंतु जब उस देश-जयी को भारत की वीर-गाथायें दोस्त और दुश्मन दोनों के मुँह से एक जैसी ही सुनने को मिलीं, तब उसके विजय-विश्वास में दरार पड़े बिना न रह सकी और उसे आक्रमण करने से पूर्व विचार करने पर मजबूर होना पड़ा।

सिकन्दर ने भारत की आँतरिक दशा का पता लगाने के लिये भेदिये भेजे, जिन्होंने आकर समाचार दिया कि इस में कोई संदेह नहीं कि वीरता भारतीयों की बपौती है, साहस उनका सहचर और बलिदान उनका खेल है, किंतु उनकी इन सारी विशेषताओं को एक नागिन घेरे हुए है, जिसे ‘फूट’ कहते हैं। इसी फूट रूपी नागिन के विष से भारतीयों की बुद्धि मूर्छित हो चुकी है, जिससे उनकी अनुशासनहीन शूरता और दम्भपूर्ण स्वाभिमान अभिशाप बन चुका है। यदि सिकन्दर भारत में प्रवेश चाहता है, तो उसे तलवार की अपेक्षा भारतीयों में फैली फूट की विष बेल से लाभ उठाना होगा।

साहस के पीछे हटते ही सिकन्दर की भेद-नीति आगे बढ़ी। उसने और भी गहराई से पता लगाया कि इस समय भारत किसी एक छत्र सत्ता से अनुशासित नहीं है। अकेले पश्चिमोत्तर सीमान्त, सिन्ध और पंजाब में ही सैकड़ों छोटे-छोटे राज्य हैं, जो सदियों से आपस में लड़ते-लड़ते जर्जर हो चुके हैं। इन प्रदेशों के सारे राजा एक दूसरे के प्राणाँत शत्रु बने हुए हैं और एक दूसरे को हर मूल्य पर नीचा दिखाने के लिए कोई भी उपाय एवं अवसर का उपयोग करने को उद्यत बैठे हैं। भारत के सिंहद्वार के प्रहरी राजाओं के बीच शत्रुतापूर्ण अनैक्य के इन समाचारों ने सिकन्दर के साहस को फिर बढ़ावा दिया और उसने अपना काम शुरू किया।

राजनीति के चतुर खिलाड़ी सिकन्दर ने शीघ्र ही उस तक्षक का पता लगा लिया, जो प्रोत्साहन पाकर भारत की स्वतंत्रता पर फन मार सकता है और वह था—तक्षशिलाधीश दम्भी आम्भीक, जो अपने अकारण उपद्रव के कारण पुरुषपुर नरेश ‘महाराज पौरुष’ से बार-बार हारकर विद्वेषविष से अन्धा बन चुका था।

आम्भीक पुरु से लड़ने के लिए फिर सेना तैयार करने में जुटा हुआ था, जिसके लिये वह त्राहि-त्राहि करती हुई प्रजा से बुरी तरह धन शोषण कर रहा था। सिकन्दर ने अवसर से लाभ उठाया और लगभग पच्चास लाख रुपये की भेंट के साथ सन्देश भेजा, यदि महाराज आम्भीक सिकन्दर की मित्रता स्वीकार करें तो वह उन्हें पुरु को जीतने में ही मदद नहीं देगा, बल्कि पूरे भारत में उसकी दुन्दुभी बजवा देगा। सिकन्दर द्वारा भेजी हुई भेंट के साथ सम्मानपूर्ण सन्देश पाकर द्वेषान्ध आम्भीक के होश हर्ष से बेहोश हो गये और वह देश के साथ विश्वासघात करके सिकन्दर का स्वागत करने को तैयार हो गया। भारत के गौरवपूर्ण चन्द्र-बिम्ब में एक कलंक बिंदु लग गया।

आम्भीक का निमंत्रण पाकर सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। किंतु भारत का भाग्य केवल आम्भिक पर ही तो निर्भर न था। जहाँ आम्भीक जैसे देशद्रोही थे, वहाँ अनेक देशभक्त राजा भी थे। उन्होंने सिकन्दर का प्रतिरोध किया, किंतु अलग-अलग अकेले जिसके फलस्वरूप मिटते चले गये। जहाँ इन राजाओं में देश-भक्ति की भावनाएं थीं, वहाँ एकता की बुद्धि का अभाव था। सिकन्दर के विरोधी होने पर भी वे अपने आपसी विरोध को न भुला सके। किसी एक राष्ट्र के कर्णधारों में परस्पर प्रेम रहने से ही कल्याण की सम्भावनायें सुरक्षित रहा करती हैं, फिर भी यदि उनमें किसी कारण से मनोमालिन्य रहेगा, तब भी किसी संक्रामक समय में उन्हें आपसी भेदभाव मिटाकर एक संगठित शक्ति से ही संकट का सामना करना श्रेयस्कर होता है। अन्यथा आया हुआ संकट अलग-अलग सबको नष्ट कर देता है। यही बात सिकन्दर के साथ लड़ाई में राजाओं के साथ हुई।

इधर सिकन्दर विजयी हो रहा था और उधर दुष्ट आम्भीक की दुरभिसन्धि से अनेक अन्य राजा देशद्रोही बनते जा रहे थे। काबुल का कोफायस, पुष्कलावती का संजय, शशिगुप्त तथा अश्वजित आदि अनेक अभागे राजा सिकन्दर की सहायता करते हुए उसकी विजयों में अपना भाग देखने लगे थे। जिसके फलस्वरूप पुरु को छोड़कर लगभग सारे राजा या तो हारकर मिट चुके थे अथवा देशद्रोह करके सिकन्दर के झंडे के नीचे आ चुके थे।

अब भारत के प्रवेश द्वार पर एक मात्र प्रहरी के रूप में केवल महाराज पुरु रह गये थे। अब प्रश्न यह उठता है कि महाराज पुरु बुद्धिमान देशभक्त होने पर भी अब तक के सिकन्दरी युद्ध में तटस्थ रहकर लड़ाई क्यों देखते रहे? क्यों नहीं उन्होंने स्वयं ही नेतृत्व करके सारे राजाओं को संगठित करके सिकन्दर का प्रतिरोध किया? महाराज पुरु ने प्रयत्न किया, किंतु हीन राजमद के रोगी राजा पुरु की योजना में शामिल न हुए। कुछ तो स्वार्थ के वशीभूत होकर सिकन्दर से मिल गये और कुछ ने पोरस का नेतृत्व स्वीकार करने की अपेक्षा सिकन्दर से पृथक ही लड़कर मर जाना अच्छा समझा, ताकि श्रेय पुरु को न मिलकर उन्हें ही मिले मनुष्य की यह संकीर्ण स्वार्थपरता, सामूहिक जीवन के लिए सदा ही विघातक रही है।

सिकन्दर कपिशा से तक्षशिला तक के बीच के अनेक स्वतंत्र जातियों की कटीली झाड़ियों से लोहू-लुहान होता हुआ तक्षशिला आ पहुँचा, जहाँ आम्भीक ने उसका बड़ा विशाल स्वागत किया। अभी तक सिकन्दर कपिशा के आस-पास ही रहा। अभिसार देश का राजा महाराज पुरु का मित्र बना रहा। पर ज्यों ही सिकन्दर तक्षशिला पहुँचा अभिसार नरेश को भीरुता का दौरा पड़ गया। कहना न होगा, जब कोई पापी किसी मर्यादा की रेखा उल्लंघन का उदाहरण बन जाता है, तब अनेकों को उसका उल्लंघन करने में अधिक संकोच नहीं रहता। तक्षशिला के राजा आम्भीक की देखा देखी अभिसार नरेश भी सिकन्दर से जा मिला जिससे पोरस को बिल्कुल अकेला रह जाना पड़ा।

अभिसार-नरेश से पोरस के साहस-वीरता तथा गौरवपूर्ण देशभक्ति के विषय में जानकर सिकन्दर ने पुरु को इस आशय का सन्देश भेजा कि यदि वह सिकन्दर को बिना विरोध के आगे बढ़ जाने दे तो वह उसे अपना मित्र मान कर सुरक्षित छोड़ देगा।

सिकन्दर का यह मैत्री सन्देश स्वाभिमानी पुरु के लिए युद्ध की खुली चुनौती थी। उसने सिकन्दर को पंजाब में झेलम के किनारे ललकारा। घमासान युद्ध की सम्भावना से दोनों की सेनायें नदी के आरपार डट गई। झेलम के पूर्वी किनारे पर महाराज पुरु की थोड़ी सी सेना और उसके पश्चिमी तट पर देशद्रोही राजाओं की कुमुक के साथ सिकन्दर का टिड्डी दल।

बरसात के दिन थे, झेलम बाढ़ पर थी, सिकन्दर का साहस नदी पार करते न पड़ा। लगभग एक सप्ताह बाद एक दिन जब कि रात में घनघोर वर्षा हो रही थी और पुरु की सेना बराबर पड़ी हुई थी, झेलम के लगभग अठारह मील उत्तर में बढ़कर सिकन्दर की सेना ने नदी पार करके पुरु की सेना पर आक्रमण कर दिया। सिकन्दर के टिड्डी दल ने यद्यपि पुरु की थोड़ी-सी सेना पर धोखे से आक्रमण किया था, तथापि पुरु के वीर सैनिकों की तलवारों ने उस अँधेरी में बिजली की तरह कौंध कर उसे पीछे हटा दिया।

इस आकस्मिक युद्ध में चार सौ सैनिकों के साथ पुरु का पुत्र मारा गया, किंतु खेत पुरु के हाथ ही रहा। सिकन्दर ने पीछे हटकर सेना बढ़ाई और इधर पुरु ने बेटे का शोक किये बिना ही व्यूह रचना कर दी। हाथियों को आगे रखकर की गई व्यूह-रचना के कारण महाराज पुरु की सीमित सेना भी सिकन्दर की सेना को अजेय एवं दुर्धर्ष दिखाई देने लगी। सिकन्दर के बार-बार प्रेरणा एवं प्रोत्साहन देने से वह बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ी और टक्कर होते ही भाग खड़ी हुई। वह क्षण निकट ही था कि महाराज पुरु की विजय हो कि तब तक एक बाहरी विस्फोट होने से पुरु की सेना के हाथी भड़क गये और वे अपने सैनिकों को ही कुचलते हुए पीछे की ओर भाग खड़े हुए। पुरु का अजेय व्यूह अपने ही साधनों से नष्ट हो गया। सारी सेना तीतर-बितर हो गई। अब क्या था? सिकन्दर ने अवसर से लाभ उठाया और संपूर्ण शक्ति के साथ पुरु की अस्त-व्यत सेना पर धावा बोल दिया। शत्रु की ओर से असावधान, अपनी सेना की सँभाल करते हुए पुरु शत्रुओं के तीरों से घायल होकर गिर पड़े।

अचेतनावस्था में गिरफ्तारी के बाद जब महाराज पुरु हो होश आया, तब वे सिकन्दर के सामने थे। सिकन्दर ने हँसते हुए बड़े गर्व के साथ कहा-’पोरस! बतलाओ कि अब तुम्हारे साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाय?’

सिकन्दर को विश्वास था कि इस समय असहाय होने से पुरु गिड़ गिड़ाकर यही कहेगा कि अब तो मैं आपका बंदी हूँ, जिस प्रकार का व्यवहार चाहिए, करिये और तब सिकन्दर उसे प्राणदान देकर आभार-स्वरूप भारत-विजय करने में उसकी वीरता एवं रण-कुशलता का मनमाना उपयोग करेगा, किंतु उसका उत्तर सुनकर वह विश्व-विजय का स्वप्नदर्शी ग्रीक आकाश से जमीन पर गिर पड़ा।

महाराज पुरु ने स्वाभिमान पूर्वक सिर ऊँचा करके उत्तर दिया—सिकन्दर, वह व्यवहार जो ‘एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।

सिकन्दर निर्भीक पुरु का यह वीरो चित उत्तर सुनकर इतना प्रसन्न एवं प्रभावित हुआ कि उठकर उसके गले से लग गया।

भारतीयों की वीरता और महाराज पुरु की विकट मार से सिकंदर की सेना की हिम्मत हवा हो चुकी थी। सिकंदर अच्छी तरह जानता था कि यदि अब वह आगे बढ़ने का आदेश देगा तो उसकी भयभीत सेना अवश्य विद्रोह कर देगी, इसलिये वह महाराज पुरु पर एहसान रखता हुआ चुपचाप भारतीय सीमाओं से बाहर चला गया।

अभागे आम्भीक जैसे अनेक देश-द्रोहियों के लाख कुत्सित प्रयत्नों के बावजूद भी एक अकेले देशभक्त पुरु ने भारतीय गौरव की लाज रखकर संसार को सिकन्दर से पद-दलित होने से बचा लिया।

कहना न होगा कि जब तक पुरु जैसे वीर भारत-भूमि पर पैदा होते रहेंगे इसकी गौरव-पताका युग-युग तक आकाश में उड़ती रहेगी।


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