निराश्रिताओं को आश्रय देने वाली निराश्रिता-रमाबाई

February 1966

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जीवन का सारा रस सोख लेने वाली गरीबी, हृदय को तोड़ देने वाले सामाजिक अत्याचारों और अस्तित्व मिटा देने वाली आपत्तियों के बीच भी जिन्होंने अपने जीवन को सफल कर दिखाया उन पंडिता रमाबाई का जन्म मैसूर राज्य के पश्चिमी घाट के वन प्रान्त में एक कुटिया में अप्रैल 1858 को हुआ।

रमाबाई के पिता का नाम अनन्त शास्त्री डोंगरे था। वह एक विद्वान ब्राह्मण थे, साथ ही स्त्री-शिक्षा के हिमायती और सुदामा की तरह गरीब थे।

पंडित अनन्त शास्त्री अपने विचारों का प्रचार अपने ब्राह्मण समाज में किया करते थे और लोगों को अपनी बहू-बेटियों को पढ़ाने की प्रेरणा देते थे। उनके इस प्रचार से रूढ़िवादी उनके कुटुम्बी उनकी जान को आ गये। विवश होकर अनन्त शास्त्री घर छोड़कर अपनी पत्नी और तीन बच्चों को लेकर मँगलोर से तीस मील दूर गंगा मूल नामक वन में एक कुटिया बनाकर रहने लगे।

अनन्त शास्त्री एक तो यों ही गरीब थे, ऊपर से विद्वानों तथा साधु-सन्तों का आतिथ्य बहुत किया करते थे, जिससे उनकी कमाई और घर की जो थोड़ी-बहुत सम्पत्ति थी तेजी से स्वाहा होती चली गई और एक दिन ऐसा आया कि अन्न के लाले पड़ने लगे। दान अच्छी बात है उदारता दैवी गुण है। पर अपनी सामर्थ्य भर। अन्यथा अपनी सीमा से आगे निकल जाने पर यह जी का जंजाल बन जाता है। घर आये अतिथि की उतनी ही सेवा करनी चाहिये जिसका निर्वाह हर समय किया जा सके। परिवार को भूखा रख कर आतिथ्य पुण्य के स्थान पर पाप सरीखा बन जाता है। हर काम की संसार में एक सीमा है, एक मर्यादा है और उस मर्यादा की रक्षा करना सबसे बड़ी बुद्धिमानी है।

पिता के पास पैसा तो था ही नहीं जो वे रमाबाई को पाठशाला भेजते। निदान उन्होंने उन्हें घर पर ही संस्कृत एवं मराठी की शिक्षा दी। रमाबाई का मन पढ़ाई में इस कदर लगता था कि उन्हें संस्कृत श्लोकों की पुस्तकें की पुस्तकें कंठस्थ हो गई।

परिवार की जीविका चलाने के लिये रमाबाई के पिता ने पुराणों की कथा सुनाने का काम अपनाया। इस काम में उन्हें दूर-दूर तक घूमना पड़ता और भूखा प्यासा रहना पड़ता था। नतीजा यह हुआ कि उनका स्वास्थ्य समाप्त हो गया जिससे वे शीघ्र ही स्वर्ग सिधार गये। इसी बीच भीषण अकाल के प्रकोप से उनकी माता भी उन्हें छोड़कर चली गई और रमाबाई अपने दो भाई बहिनों के साथ पूर्ण रूप से अनाथ हो गई।

एक तो दुर्भिक्ष का प्रकोप दूसरे जीविका का कोई साधन नहीं। भूखों मरने की नौबत आ गई। किन्तु बुद्धिमती रमाबाई ने हिम्मत न हारी और जंगल से कन्दमूल तथा फल ला लाकर अपने भाई बहिनों के प्राण बचाए।

इस आपत्ति की मारी ततारी हुई रमाबाई एक भिखारिणी के रूप में चार सौ मील की पैदल यात्रा करके कलकत्ता आ गई। अपनी इस आपत्ति का वर्णन करते हुये उन्होंने एक स्थान पर स्वयं कहा है कि- “अन्न तो असम्भव था, फिर भी पेट की ज्वाला वनस्पतियों से बुझा लेती थी किन्तु शीत की समस्या हल न होती थी। आखिर अपने भाई बहिनों के प्राण बचाने के लिये किसी गड्ढ़े में बैठकर सूखी रेत, पत्तों और घास-फूस का ओढ़ना बना लेती थी।”

यह थीं आपत्तियाँ जिनको रमाबाई ने सहन किया, और इन्हीं आपत्तियों पर विजय प्राप्त कर समाज की ऐसी सेवा की कि आज उनका नाम इतिहास में अमर है। धैर्य, साहस और सन्तोष रमाबाई के प्रमुख साधन थे और उन्होंने स्वीकार किया है कि इन्हीं गुणों की बदौलत वे आपत्तियों का अथाह सागर पार कर सकी हैं। अपने इस देशाटन में रमाबाई ने हिन्दी, कन्नड़ और बंगला भाषायें और सीख ली थीं, जिनने उन्हें अपनी यात्रा पूरी करने में बहुत सहायता की।

बाल्यकाल में प्राप्त की विद्या कलकत्ता आकर उनके बहुत काम आई। बंगाल में उन दिनों विधवाओं की दशा बहुत शोचनीय थी। माँ-बाप, सास-ससुर और देवर आदि के रहते हुये भी वे एक पति के न रहने से सबके लिये भार स्वरूप बन जाती थीं। उनको अभागा समझकर घर-द्वार से निकाल दिया जाता था। पढ़ी-लिखी न होने से या तो भीख माँगती थीं या किसी गलत रास्ते पर पड़ जातीं अथवा विदेशी मिशिनरियों के हाथ लग जाती थीं।

कलकत्ता पहुँचकर रमाबाई अपना दुख तो भूल गई और इन बेचारी विधवाओं के लिये काम करने लगीं। उन्होंने किसी का सहारा लिये बिना बाल-विवाह और विधवाओं के साथ हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध प्रचार करना शुरू कर दिया। इस समय रमाबाई की आयु केवल बाईस वर्ष की थी। उनके भाषणों में हृदय की पीड़ा समाज का कल्याण तथा हिन्दू शास्त्रों के प्रमाणों का समावेश रहा करता था। जिसका परिणाम यह हुआ कि शीघ्र ही कलकत्ते में वे लोकप्रिय हो गई और उनकी बहुत-सी मुसीबत जन-सहयोग से दूर हो गई।

अभी उनकी कठिनाइयों में नाम मात्र को ही सुविधा का श्रीगणेश हुआ था कि उनके हृदय पर एक गहरा आघात और लग गया। उनके भाई की मृत्यु हो गई। रमाबाई के लिए यह आघात असह्य था। किन्तु उन्होंने समाज के हर बच्चे के लिए ममता का विस्तार कर किसी प्रकार अपनी पीड़ा बहला ली और फिर काम में जुट गई।

रमाबाई संसार में बिल्कुल अकेली रह गई थीं। और इधर तरुणाई आ जाने से उनका रंग-रूप भी पूरी तरह से निखर चुका था। अब उन्हें सामाजिक क्षेत्र में निर्भीकता, स्वतन्त्रता तथा निरापद रूप में कार्य करने में बाधा होने लगी थी। उनके संपर्क में आने वाले बहुत से लोगों ने उनसे अन्तरंगता प्राप्त करने की कोशिश की। इसलिये उन्होंने इच्छा न होते हुए भी विवाह कर लेना आवश्यक समझा।

किन्तु ठीक से ठौर-ठिकाना तथा जाति-पाति में विश्वास न होने से ब्राह्मण तो दूर कोई सवर्ण हिन्दू उनसे विवाह करने को तैयार न हुआ। हिन्दू जाति की इस मूढ़ता पर उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ और अन्त में आत्म-मर्यादा की रक्षा के लिये उन्होंने विपिन बिहारी मेधावी नामक एक वकील से अन्तर्जातीय विवाह कर लिया। विपिन बिहारी जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के एम.ए. और बड़े योग्य वकील थे। उन्होंने रमाबाई को अंग्रेजी की शिक्षा देनी प्रारम्भ कर दी।

किन्तु रमाबाई की विपत्तियों का सिलसिला अभी खत्म न हुआ था। डेढ़ साल बाद हैजे से उनके पति की भी मृत्यु हो गई और रमाबाई संसार में फिर अकेली रह गई। एक तो रमाबाई यों ही बेसहारा थीं, दूसरे अन्तर्जातीय विवाह कर लेने पर तो उस समाज ने भी उनकी दशा पर दया नहीं की, जो कुछ समय पहले उनकी विद्वता से प्रभावित होकर उन्हें देवी मानता था।

वैधव्य के साथ रमाबाई के साथ एक दिक्कत और थी। उनकी गोद में एक नन्ही-सी बच्ची थी। रमाबाई मुसीबतों से जूझती हुई स्वयं तो प्राण देने में कोई संकोच न करतीं किन्तु उस बच्ची को सर्वथा अनाथ न करना चाहती थीं। विवश होकर उन्होंने आश्रय के लिये अपने सम्बन्धियों का द्वार खटखटाया। वहाँ से भी उन्हें दुत्कार के अतिरिक्त और कुछ न मिला। फिर भी साहस की धनी उन्होंने हिम्मत न छोड़ी और पुनः समाज सेवा के क्षेत्र में उतरने की ठान ली।

उन्होंने रानाडे, केलकर और भंडारकर प्रभृति समाज सुधारक तथा उदार दृष्टिकोण वाले नेताओं से भेंट की और स्त्री-समाज के सुधार तथा उन्नति के लिए काम करने की इच्छा प्रकट की। उक्त नेताओं ने न केवल उनके विचारों का स्वागत ही किया अपितु प्रोत्साहन के साथ सहायता देने का भी वचन दिया।

सेवा का क्षेत्र और नेताओं का प्रोत्साहन पाकर रमाबाई ने जी खोलकर काम करना शुरू किया और शीघ्र ही “महिला-समाज” नामक एक संस्था की स्थापना कर डाली, जिसकी उपयोगिता ने उसकी शाखायें सारे महाराष्ट्र में फैला दीं।

अपने इस कार्य से रमाबाई का प्रभाव इतना बढ़ गया कि उनकी पहुँच सरकार के ऊँचे-ऊँचे अफसरों तक हो गई जिसके फलस्वरूप सन् 1882 के अंग्रेजी-शिक्षा आयोग ने उन्हें अपनी राय देने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया और भारतीय नारी के लिए शिक्षा की सुविधाओं के लिए जोरदार सिफारिश की। उनकी वह सिफारिश महारानी विक्टोरिया तक पहुँचाई गई, जिनकी प्रसन्नता ने उन्हें इंग्लैंड पहुँच कर अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया।

इंग्लैंड पहुँचकर उन्होंने सेंटमेरीज होम में रहकर अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की और चेल्टन्हेम के लेडीज कालेज में दो साल संस्कृत पढ़ाई। तत्पश्चात अमेरिकन शिक्षा प्रणाली का अध्ययन करने के लिये वे अमेरिका चली गई, जहाँ उन्होंने किंडरगारडन शिक्षा प्रणाली का प्रशिक्षण लिया और समय निकाल कर ‘दी हाई कास्ट हिन्दू वोमन’ (सवर्ण हिन्दू नारी) नामक एक पुस्तक भी लिखी। जिसका मुख्य विषय हिन्दू जाति में स्त्रियों पर किये जा रहे अत्याचारों का दिग्दर्शन, आलोचना तथा समीक्षा भी था।

इस पुस्तक का अमेरिकन नारी समाज पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वहाँ ‘रमाबाई एसोसिएशन’ नाम की एक संस्था इस मन्तव्य से स्थापित की गई कि भारतीय विधवाओं को अमेरिका से भरसक सहायता कराई जाये। इस संस्था ने भारत में एक विशाल विधवा-आश्रम खोलने तथा दस साल तक उसे हर प्रकार की मदद देकर चलाने का वचन दिया।

सन् 1889 में रमाबाई भारत लौटी और अमेरिका के ‘रमाबाई एसोसिएशन’ की ओर से भारत में ‘शारदा सदन’ नाम से एक विधवा आश्रम खोला। जिसके उन्होंने चार मुख्य उद्देश्य रक्खे—(1) विधवाओं को शिक्षित करके समाज की सुसंस्कृत सदस्या बनाना। (2) उन्हें पाश्चात्य रंग-ढंग से बचाना। (3) विधवाओं को ईसाइयों के जाल से बचाना। (4) शारदा सदन को सही मानों में विधवाओं का सच्चा घर बनाना।

इन चारों उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उन्होंने विधवाओं को अध्यापकी, धाय तथा नर्सरी की ट्रेनिंग देनी शुरू की तथा साथ ही शिक्षा का पूरा वातावरण विशुद्ध रूप से भारतीय रखने की व्यवस्था की।

सन् 1897 में अमेरिका के रमाबाई एसोसिएशन की सहायता के दस साल समाप्त हो गये और उसने मदद देनी बन्द कर दी। निदान मदद की अवधि बढ़वाने के लिए रमाबाई पुनः अमेरिका गई और जब अपने उद्देश्य में सफल होकर लौटीं तो उन्होंने आश्रम का एक और भवन बनवाया, साथ ही कृपा सदन’ नाम का एक अन्य आश्रम खोला जिसमें न केवल विधवाओं बल्कि समाज की पतिताओं को भी आश्रय तथा काम देने की व्यवस्था की गई।

अनन्तर उन्होंने बम्बई के विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसका उपयोग शारदा सदन के हाई स्कूल की प्रिंसिपल के रूप में किया और गुल वर्ग में एक नया हाई स्कूल खोला।

किन्तु कुछ ही समय बाद उनकी एकमात्र प्राणाधार पुत्री मनोरमा का देहान्त हो गया जिसका आघात, उसका निरन्तर कार्य एवं आपत्तियों से जर्जर हुआ स्वास्थ्य सँभाल न पाया जिससे वे कुछ समय बीमार रहकर 5 अप्रैल 1902 को इस लोक का परित्याग कर गई।

विवाह के सम्बन्ध में यदि उन्होंने समाज के तिरस्कार को महत्व दिया होता और उसका विरोध निषेधात्मक रूप में किया होता तो अपनी हीनताओं की भेंट चढ़कर एक अज्ञात मृत्यु ही मरी होतीं। आज उनको न तो कोई जानता और न उनका नाम लेता।

इसके विपरीत उन्होंने अपने जीवन को एक आदर्श जीवन बनाया अपने चरित्र की रक्षा की और समय के अनुसार समझ से काम लेकर अपने मानव-जीवन को निर्माण कार्यों में लगाकर उसको सार्थक बना लिया। विपत्तिओं से घबराकर अपने को गिरा देने पर भी वे अमर न हो जातीं बल्कि एक कलंक पूर्ण जीवन काटती हुई अंत में किसी ऐसे ही आश्रम, सदन अथवा अनाथालय में जाकर आश्रय लेतीं जिनकी कि उन्होंने स्वयं स्थापना करके समाज का हित किया, संसार में यश लाभ किया और आत्मा को शान्ति कर अमर बन गई।

जिन भयानक आपत्तियों से घबराकर कोई भी अनाथ लड़की जब अपने भाई-बहिन के साथ भिखारिणी बन सकती थी, उन आपत्तियों को साहस, आत्म-विश्वास, धैर्य तथा सेवा-भाव से विजय कर महामानसी रमाबाई ने हर स्त्री-पुरुष के सम्मुख एक अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित किया है। निःसन्देह भारत माता की लाड़ली रमाबाई वन्दना की पात्र है।


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