जिसे अपने जीवन में सुख-शान्ति की आकाँक्षा है, जिसे उन्नति, विकास और सफलता की कामना है, उसे अपने सबसे घातक शत्रु ‘चिन्ता का त्याग कर देना चाहिये।’ मनुष्य की जिस शक्ति पर उन्नति, विकास और सफलता निर्भर रहती है उसे यह चिन्ता की आग जलाकर भस्म कर देती है। निःशक्त व्यक्ति जीवन में किसी प्रकार का श्रेय प्राप्त नहीं कर सकता। चिन्ता के त्याग से मनुष्य की बची हुई शक्ति उसके बड़े काम आ सकती है।
सामान्यतः लोगों की यही धारणा रहती है कि मनुष्य की चिन्ता का कारण उसके जीवन को कोई न कोई अभाव ही होता है। एक प्रकार से अभाव ही चिन्ता का रूप धारण कर लेता है। किन्तु यदि इस विषय पर गहराई से विचार किया जाय तो पता चलेगा कि अभाव और चिन्ता दो भिन्न बातें हैं। अभाव की वेदना जहाँ क्रिया की प्रेरिका है वहाँ चिन्ता मनुष्य को निष्क्रिय बना देती है। जिस अभाव की पूर्ति के बिना मनुष्य को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है उसकी पूर्ति के लिए वह अवश्य प्रयत्नशील होगा। किन्तु चिन्ता एक ऐसा असाध्य रोग है जो मनुष्य के समग्र जीवन को प्रभावित करके किसी काम का नहीं रखती।
जो व्यग्रता अपने कारण को दूर करने के लिये क्रियाशील बनाये, वह उत्तरदायित्व की भावना ही है, चिन्ता नहीं। चिन्ता केवल उसी व्यग्रता को कहा जा सकता है जो मनुष्य को अपने तक सीमित करके केवल सोचने और जलने के लिये मजबूर करे।
मनुष्य ने ज्यों-ज्यों विकास किया है त्यों-त्यों उसकी आवश्यकतायें बढ़ गई हैं, जिसके फलस्वरूप उसकी चिन्तायें भी बढ़ गई हैं। जीवन की आवश्यकतायें पूरी करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ चिन्ता करनी ही होती है, किन्तु इस चिन्ता को उस प्रकार की चिन्ता नहीं कहा जा सकता जो किसी के जीवन को अभिशाप बनाकर रख देती है। भोजन-वस्त्र, रहन-सहन, शादी ब्याह, हारी-बीमारी, पालन-पोषण आदि जीवन के ऐसे सामान्य, साधारण एवं अनिवार्य कार्यक्रम हैं जिन्हें सबको ही किसी न किसी प्रकार से पूरा करना पड़ता है। यदि यह कार्यक्रम समान रूप से सबकी चिन्ता का विषय बनकर जीवन को आक्रान्त कर लें तो संसार में चारों ओर उदासी, विषाद, व्यग्रता, विकलता आदि के अतिरिक्त और कुछ दिखलाई ही न दे। हर मनुष्य रोता और आहें भरता ही बैठा रहे। पर ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि कोई एक बात समस्त समाज को एक रूप में ही प्रभावित नहीं कर सकती। अपनी-अपनी मनोभूमि के स्तर के अनुरूप ही मनुष्य पर किसी बात का न्यूनाधिक प्रभाव पड़ता है। जहाँ कोई एक व्यक्ति किसी एक बात से दब, कुचलकर निर्जीव हो जाता है वहाँ दूसरा पूरी तरह निश्चिन्त तथा प्रसन्न दीखता है। इसका कारण उन दोनों की अपनी-अपनी मनोभूमि का स्तर ही है।
अभावों में किसी को व्यग्र करने की अपनी शक्ति नहीं होती। यह मनुष्य का चिन्ताशील स्वभाव ही होता है जो एक छोटी-सी बात को भी लेकर मन की मन ‘ईरान से तूरान’ तक समस्याओं का जाल बिछा कर अपने को उनमें फँसाकर और कष्ट पाता हुआ अनुभव किया करता है।
भोजन-वस्त्र आदि यद्यपि रोजमर्रा की बातें हैं। किन्तु किसी-किसी के लिए ये साधारण बातें ही जीवन समस्या बन जाती हैं। इनको लेकर वे इतने चिन्तित रहा करते हैं कि विविध रोगों के शिकार बन जाते हैं, आँख,दाँत,कान आदि कमजोर कर लेते हैं, बाल पका लेते हैं और अकाल में ही बूढ़े हो जाते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति चिन्ताशील स्वभाव के होते हैं। चिन्ता, उनका उत्तरदायित्व नहीं, एक व्यसन, व्याधि, प्यास और आवश्यकता बन जाती है। जब तक वे किसी बात को लेकर व्यग्र नहीं हो लेते उन्हें चैन ही नहीं पड़ती। यदि ऐसे व्यक्तियों को व्यर्थ चिन्ता करने से रोका जाये तो वे एक मानसिक परेशानी अनुभव करते हैं। यही कारण है कि अधिक मना करने पर चिन्ताशील व्यक्ति कभी- कभी बुरा मान जाता है और सोचने लगता है कि अमुक व्यक्ति उसे उसके उत्तरदायित्व की भावना से विरत कर हानि पहुँचाना चाहता है। वास्तव में चिन्ताशील व्यक्ति की मानसिक शिथिलता का सहारा पाकर अत्यधिक एवं अनावश्यक उत्तरदायित्व की भावना भी भयानक चिन्ता रूपी सर्पिणी बन कर उसके मनोमन्दिर में बस कर उसके रक्त, माँस का भोजन किया करती है। चिंता रूपी सर्पिणी का भोजन मनुष्य का रक्त ही है, जो इसको अपने जीवन में पालेगा उसे इसको अपना रक्त पिलाना ही होगा।
चिन्ताशील व्यक्ति बहुत कुछ कल्पनाशील ही होता है। किन्तु उसकी कल्पना का लक्ष्य सृजनात्मक नहीं होता ध्वंसात्मक होता है। जिस प्रकार प्रसन्न चेता व्यक्ति की कल्पनायें कला-कौशल, उन्नति विकास आदि के मधुर स्वप्नों के चित्र बनाया करती हैं, उस प्रकार चिन्ताशील व्यक्ति की कल्पनायें नहीं। ऐसे व्यक्तियों की कल्पनायें ऐसे ही मार्ग से चला करती हैं जिनके बीच में आशंकायें, अमंगल, अनिष्ट, निराशा, असफलता, भय एवं भीरुता के गर्त-गह्वर पड़ा करते हैं।
आजीविका जैसी सहज समस्या को ही ले लिया जाये और एक चिन्ताशील व्यक्ति की तुलना निश्चिन्त प्रवृत्ति के व्यक्ति से की जाये तो एक महान अन्तर सामने आयेगा। निश्चिन्त प्रवृत्ति का व्यक्ति सोचेगा— आज नहीं तो कल जीविका अवश्य प्राप्त होगी। आज कहीं परिश्रम करके रोटी कमा लेंगे, कल किसी अच्छे स्थान पर पहुँच जायेंगे। परिश्रम एवं पुरुषार्थ के बल पर मैं अवश्य ही अच्छे-अच्छे साधन का प्रबन्ध कर लूँगा। मैं जीवन रण में हारने अथवा पीछे हटने वाला नहीं हूँ। इसके विपरीत चिन्ताशील व्यक्ति सोचेगा— जब आज ही जीविका नहीं मिली तो कल कहाँ से आ जायेगी? मेरे पास जो कुछ है उसके खत्म होते ही मरने की नौबत आ जायेगी, मेरे मर जाने पर बीबी-बच्चों को कौन सहारा देगा? कौन उनके दुःख-सुख को पूछेगा? मैं बड़ा निकम्मा हूँ, हाय मेरे कारण ही मेरे बाल-बच्चे दर-दर की ठोकरें खाते फिरेंगे। मुझे कोई सहयोग क्यों देगा? मैं ही किसी के क्या काम आया हूँ? मेरा भाग्य खराब है, मेरा समय विपरीत है, मेरा जीवन व्यर्थ है, आदि-आदि न जाने कितने प्रकार की निराशाजन्य अनिष्टों की कल्पना करता-करता चिन्ताशील व्यक्ति अपने जीवन को अभिशाप बना लेता है और निकम्मा होकर उसी की ज्वाला में जला करता है।
एक छोटी-सी चिंता जब इतने अनिष्टों को जन्म दे सकती है तब उसे एक क्षण के लिये भी अपने पास रखना बुद्धिमानी नहीं है। जो व्यक्ति चिन्ताओं को प्रश्रय देता वह अपने जीवन में अँगार बिखेरने के सिवाय और कुछ नहीं करता। चिन्तित व्यक्ति स्वयं अपने लिये अपना शत्रु होता है।
जिन्हें आत्म-कल्याण की कामना है, जीवन में उन्नति और विकास की आकाँक्षा है उन्हें निरर्थक चिन्ताओं से मुक्त रह कर पुरुषार्थ करना चाहिये। जिस प्रकार हाथ पैर बँधा हुआ व्यक्ति एक छोटी-सी नदी को तैरकर पार नहीं कर सकता उसी प्रकार चिन्ताग्रस्त आदमी छोटी से छोटी समस्या से भी निस्तार नहीं पा सकता।
चिन्ताओं से मुक्ति का एक मात्र उपाय है हर समय काम में लगा रहना। निठल्ले व्यक्ति को ही चिन्ता जैसी पिशाचिनी घेरती है। जो व्यक्ति कर्मरत है प्रगतिशील है चिन्तायें उसे किसी प्रकार भी नहीं घेर सकतीं। चिन्ताओं का जन्म स्थान एवं निवास स्थान दोनों ही में मनुष्य का ‘चित्त’ होता है। यदि मनुष्य का मन किसी कार्य में व्यस्त रहे तो चिन्ताओं का जन्म ही न हो सके।
बहुत से लोग उत्तरदायित्व की तीव्र भावना को ही चिन्ता मान लेते हैं। उनका विश्वास होता है कि चिन्ता उत्तरदायित्व के प्रति वह सजगता है, जिसके बल पर कोई अपने कर्तव्य को निभाने में तत्पर होता है। ठीक उत्तरदायित्व का वहन करना हर मनुष्य का कर्तव्य है किन्तु इसे अपनी निरर्थक भावुकता अथवा चिन्ताशील स्वभाव से दुर्वह बना लेना कोई बुद्धिमानी नहीं है। चिन्ता में लिपटा हुआ उत्तरदायित्व कभी भी ठीक से नहीं पूरा किया जा सकता। मनुष्य का मन मस्तिष्क जितना भारमुक्त होगा वह उतनी ही कुशलता से अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कर सकता है। चिन्ताएँ छोड़िये और मुक्त मन एवं दत्त चित्त होकर कर्त्तव्य का पालन कीजिये आप सफल भी होंगे और प्रसन्न भी।