उत्सवों के नाम पर उद्दण्डता अवाँछनीय है।

February 1966

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किसी उत्सव अथवा समारोह का अर्थ होता हैं, अपनी हार्दिक प्रसन्नता को सुन्दरता पूर्वक व्यक्त करना। किन्तु अब कोई समारोह अथवा उत्सव अपनी वाँछित मर्यादा को पार कर जाता है, तब वह न केवल एक बोझ ही हो जाता है, बल्कि एक उपहासास्पद कौतुक बन जाया करता है।

विवाह वास्तव में एक समारोह का विषय है। विवाहोत्सव के अवसर पर सम्बन्धित लोगों का हर्षित एवं प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है और प्रसन्नता अपनी अभिव्यक्ति चाहती भी है और उसकी अभिव्यक्त करना भी चाहिए।

किंतु दुर्भाग्यवश हिंदुओं का विवाह समारोह आजकल एक विशुद्ध बाल-कौतुक जैसा बन गया है। समारोह के नाम पर इस अवसर पर ऐसा अनावश्यक आडम्बर किया जाने लगा है, जिसको देखकर किसी भी सभ्य समझदार को मन ही मन शर्म आने लगती हैं।

दूल्हे की वेश रचना से लेकर वधू की विदाई तक जो भी समारोह किये जाते हैं, उनको देखकर सोचना पड़ता है कि यह विवाह हो रहा है अथवा नासमझ गँवारों का कोई स्वाँग।

जिस दिन से विवाह कृत्य का समारम्भ होता है, उसी दिन से वर-वधू के घरों में ढोलक बजने शुरू हो जाते हैं और दिन में समय-असमय इतनी बार बजा करते हैं कि पास-पड़ौस के रहने वाले ऊबने और परेशानी अनुभव करने लगते हैं। ऐसे अवसरों पर फिजूल और निठल्ली स्त्रियों को तो मानो एक मनचाहा मनोरंजन ही मिल जाता है। जब देखो वर-वधू के घर उपस्थित और ढोलक के साथ जुटी पड़ी हैं। ब्याह के माँगलिक गानों से लेकर इश्क की अश्लील गजलों तक का जो सिलसिला प्रारम्भ होता है, वह इतनी देर तक चलता रहता है कि उस पर किसी सभ्य व्यक्ति को घृणा होने लगती है।

ऐसे अवसर पर घर में स्त्रियों का निरंकुश राज हो जाता है और वे अपने गाने की हवस पूरी करने में यह भी भूल जाती हैं कि घर में वह पुरुष वर्ग और वयोवृद्ध लोग भी मौजूद हैं, जिनकी मर्यादा का भी ख्याल रखना है। एक उन्हें यदि उनकी याद भी रहे तो भी वे अपने उन्माद में उनकी पूर्ण उपेक्षा कर देती हैं और निःसंकोच भाव से अपने कार्यक्रम में लगी रहती हैं।

यदि एक पुरुष परेशान होकर किसी गायिका को टोक देता है, तो वह नीरस अथवा चिड़चिड़ा मान लिया जाता है और घर-घर से आई गयिकायें बड़बड़ाती हुई उसकी आलोचना करने लगती हैं। कभी-कभी वे बुरा मान जाती हैं। ऐसे अवसर पर गृह-स्वामिनी को सामाजिकता एवं भद्रता के नाते पुरुषों को कुछ कह सुनकर उन निठल्ली स्त्रियों को मनाना तक पड़ता है और उन्हें मनमाने गाना, गाने और ढोल फोड़ने के लिये और अधिक छूट देनी पड़ती है।

घरों में बेचारे बहुत से विद्यार्थी भी होते हैं। उन्हें पढ़ना होता है, अपना पाठ याद करना अथवा गणित हल करनी होती है, पर उन निठल्ली एवं हर्षोन्मादिनियों को उनकी हानि की कोई चिन्ता नहीं रहती। बहुत बार तो विद्यार्थियों की परीक्षाएं तथा विवाह के अवसर साथ-साथ पड़ जाते हैं। ऐसी स्थिति में बेचारे परीक्षार्थियों को बड़े संकट का सामना करना पड़ता है। यदि वे उन्हें ढोल बजाने अथवा जोर-जोर से गाना, गाने के लिए मना करते हैं तो धृष्ट समझे जाते हैं, साथ ही कहने वाली मूर्खायें यहाँ तक कह देती हैं कि उसे अपनी बहिन अथवा भाई के विवाह समारोह से अरुचि है। ऐसे असमंजस में पड़े उस परीक्षार्थी की क्या दशा होती है? जिसका एक-एक क्षण मूल्यवान होता है। इसकी चिंता करना हर्षान्वितायें अपना कर्तव्य नहीं समझती।

अब विचार करने की बात यह है कि विवाह महोत्सव पर स्त्रियों का हर्षित होना स्वाभाविक ही है और उसकी अभिव्यक्ति भी आवश्यक है। किंतु क्या इस मूर्खतापूर्ण हर्षातिरेक को उत्सव अथवा समारोह कहा जायेगा?

यदि यही ढोल वादन और गायन का कार्यक्रम किसी उपयुक्त समय पर एक सीमित अवधि के लिए शिष्ट एवं मधुर गानों के साथ मनाया जाये तो निःसन्देह बड़ा ही सुन्दर एवं सुखदायक रहे। किन्तु हिन्दू-समाज में विवाह का अवसर एक मर्यादाहीन उच्छृंखलता का समय माना जाता है। इसलिये उसमें शिष्टता एवं उस भय की सीमा में बँध कर चलना आवश्यक हर्ष की न्यूनता मानी जाती है। साथ ही न जाने कितने पुराने दकियानूसी, अर्थहीन, सारहीन और संगीत हीन रूढ़िवादी गाने भी इस अवसर पर गाने का रिवाज है। किसी दूसरे प्रकार के सार्थक गाने न तो किसी को आते हैं और यदि किसी शिक्षिता लड़की अथवा महिला को आते भी हैं, तो न तो वे पसन्द किये जाते हैं और न उसको अवसर दिया जाता है। अपना स्थान किसी परिमार्जित प्रगतिशीलता को दे देना रुढ़िवादिनी गयिकायें अपना और अपनी गायन-कला का अपमान समझती हैं। इस प्रकार की खुशी, प्रसन्नता अथवा गर्वाभि व्यक्ति को मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता।

यह तो रही घर के अन्दर की बात। बाहर किसी देवी-देवता की पूजा करने, कुएँ की परिक्रमा करने अथवा किसी पेड़-पौधे पर सिन्दूर आदि चढ़ाने के लिए जाते समय तो अनियमित ढोल-वादन, अश्लील गायन तथा असंभव स्वर लहरी देखते-सुनते ही बनती है। बेचारे राह चलते सभ्य लोगों को एक बार लज्जा आ जाती है, किन्तु उन्हें तनिक भी इस बात की चिन्ता नहीं होती कि वे किसी भद्र परिवार की महिलायें हैं और उनकी यह सार्वजनिक असभ्यता अशोभनीय है। इस प्रकार सड़कों, बाजारों और गली, कूचों में खुला खेलने को क्या उत्सव अथवा समारोह कहा जायेगा? तब असभ्यता, अश्लीलता अथवा अभद्रता किन क्रियाओं को कहा जायेगा? किन्तु हिन्दू-समाज में उत्सव की अभिव्यक्ति के नाम पर ऐसी अशिष्टताएं अनिवार्य रूप से विवाहों के अवसर पर होती ही हैं और परम्परा के दास इसमें कोई भी सुधार, किसी प्रकार का परिमार्जन करने की आवश्यकता ही नहीं अनुभव करते। यदि कोई विचारशील व्यक्ति परिवार के पुरुष वर्ग को स्त्रियों की यह अभद्रता रोकने के लिये कहता भी है तो वह मजबूरी दिखाता हुआ कह देता है कि क्या किया जाये? यह रिवाज तो बहुत पुराना चला आता है। रोका भी किस प्रकार जा सकता है? वास्तव में किसी का यह उत्तर सुनकर खेद करने के सिवाय किसी प्रगतिशील व्यक्ति के पास कोई उपाय ही नहीं रहता।

यदि एक बार इस बाहरी गाने-बजाने को अनुशासित कर दिया जाये और गन्दे एवं अर्थहीन गानों का स्थान प्रगतिशील सुन्दर तथा भावपूर्ण गीतों को दे दिया जाये, तब भी गनीमत हो, किन्तु न तो लोगों में ऐसा करने का साहस है और न चिन्ता।

कहना न होगा कि इस प्रकार के प्रदर्शनों तथा उत्सव एवं समारोह के हर्ष की अभिव्यक्ति से और तो कुछ नहीं, संसार के सामने हिन्दू समाज की सार्वजनिक सभ्यता का एक कुचित्र अवश्य उपस्थित हो जाता है। देखने वाले अवश्य ही इस गलतफहमी में पड़ जाते होंगे कि हिन्दुओं की आन्तरिक सभ्यता ठीक उस सभ्यता के विपरीत है, जिसकी वह डींग हाँका करते हैं और जिसको कि वे संसार की अन्य सभ्यताओं की तुलना में श्रेष्ठ बतलाते हैं।

निःसन्देह किसी भी व्यक्ति अथवा समाज की सभ्यता की गहराई का इसी प्रकार के उत्सवों, संस्कारों एवं समारोहों के समय ही पता चलता है। जिनके खुशी मनाने के तरीके—सादे, सरल, शिष्ट एवं सुरुचिपूर्ण होते हैं, आज के युग में वे समाज ही सभ्य कहे जा सकते हैं। अन्यथा उत्सवों के नाम पर ऐसी हाय-हाय और हैरत से भरी बेहयायी करने वाले और कुछ भी कहे जायें, सभ्य कदापि नहीं कहे जा सकते। अस्तु अपनी सभ्यता एवं शिष्टता के नाम पर हिन्दुओं को अपने विवाहोत्सवों में उचित सुधार करना अत्यन्त आवश्यक है।


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